दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनके मंत्रियों के हाथ पांव फूले हुए हैं। उन्हें अचानक एहसास हुआ है कि लॉकडाउन में मिली मोहलत को उन्होंने व्यर्थ गंवा दिया और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत और बेहतर नहीं किया। उन्हें इस बात से भी घबराहट है कि उनकी अक्षमता जगजाहिर हो चुकी है।
केजरीवाल की घबराहट का संकेत उसी समय मिला था जब उन्होंने ऐलान किया था कि दिल्ली के अस्पतालों में सिर्फ दिल्ली के लोगों का ही इलाज होगा। शुक्र है कि उप राज्यपाल अनिल बैजल ने इस आदेश को खारिज कर दिया, लेकिन इसके फौरन बाद उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने दिल्ली वालों को डराने की कोशिश की और कहा कि जल्द ही दिल्ली में 5.5 लाख कोरोना पॉजिटिव केस हो जाएंहे और कम से कम 80,000 बेड की जरूरत होगी तभी दिल्ली वालों के साथ बाकी लोगों का भी इलाज हो पाएगा।
लेकिन इन दोनों ही बातों में दिल्ली के सीएम और डिप्टी सीएम यह बात भूल गए कि सरकार और नेताओं का काम लोगों को जोड़ना और उनका ख्याल रखना होता है न कि डराना और उनके बीच मतभेद पैदा करना।
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अगर दिल्ली सरकार ने लॉकडाउन में मिली मोहलत का सही इस्तेमाल करते हुए शहर के हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने का काम किया होता तो यह घबराहट नहीं होती। ध्यान रहे दिल्ली में 57,000 अस्पताल बेड हैं, जिनमें से 13,200 केंद्र सरकार के संस्थानों में, 3,500 एमसीडी के अस्पतालों में और11,000 दिल्ली सरकार के 38 अस्पतालों में हैं। बाकी 29,000 बेड यानी आधे से ज्यादा निजी अस्पतालों में हैं।
अभी 10 जून को उपराज्पाल अनिल बैजल के साथ बैठक के बाद डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया, स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन और मुख्य सचिव विजय देव ने ऐलान किया कि दिल्ली का प्रगति मैदान, तालकटोरा इंडोर स्टेडियम, त्यागराज स्टेडियम, इंदिरा गांधी स्टेडियम. जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम और ध्यानचंद स्टेडियम को अस्थाई अस्पतालों में बदला जाएगा।
लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि यही घोषणा तो दिल्ली सरकार ने 30 मार्च को भी की थी। इसके बाद भारतीय खेल प्राधिकरण, साई ने जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम दिल्ली सरकार के हवाले कर दिया था। इसके अलावा साई ने 22 मार्च को ऐलान किया कि देश भर में साई के तहत आने वाले सभी खेल परिसरों का इस्तेमाल क्वेरंटाइन सेंटर के तौर पर किया जा सकता है। इस आदेस पर दक्षिण पूर्वी दिल्ली की जिला मजिस्ट्रेट और दिल्ली आपदा प्रबंधन अथॉरिटी की चेयरपर्सन हरलीन कौर के हस्ताक्षर हैं।
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ऐसे में सवाल उठता है कि जब स्टेडियम मार्च में ही दिल्ली सरकार के कब्जे में आ गया था तो उसे तब अस्थाई अस्पताल में क्यों नहीं बदला गया?
इसी तरह दिल्ली सरकार ने नर्सों की भर्ती और अन्य हेल्थ वर्करों की भर्ती भी नहीं की। स्थिति यह है कि दिल्ली सरकार के अस्पतालों में कम से कम 30 कोरोना पॉजिटिव मरीजों से भरा हुआ कोरोना वार्ड सिर्फ 2 नर्सों के सहारे चल रहा है। साथ ही नर्से एक ही पीपीई भी बारी बारी से पहन रही हैं। कई बार तो पांच वार्डों के लिए सिर्फ दो ही नर्सों की ड्यूटी लगी होती है। अस्पतालों की दुर्दशा जब टीवी चैनलों की स्क्रीन पर नजर आने लगी तो केजरीवाल सरकार को होश आया और आनन-फानन 13 जून को 800 नर्सों को भर्ती करने की अधिसूचना जारी की गई। यहां ध्यान रहे कि भर्ती उन नर्सों की हो रही है जो 2019 में नर्सिंग की परीक्षा पास कर चुकी हैं।
दिल्ली सरकार के ज्यादातर अस्पतालों में अधिकतर सैनिटेशन और अन्य स्टाफ ठेके पर काम करता है जो कि निजी कंपनियों को दिया गया है। अभी 13 जून को सरकार ने आदेश दिया कि निजी कंपनियां सुपरवाइजर तैनात करें जो नर्सिंग स्टाफ की सहायता करेगा।
इतना ही नहीं लॉकडाउन के 83 दिन बाद दिल्ली सरकार ने 5 जून को ऐलान किया कि होम क्वेरंटाइन वाले मरीजों को ऑक्सीमीटर दिए जाएंगे, लेकिन 10 दिन गुजरने के बाद भी अभी तक इनका वितरण शुरु नहीं हुआ है। ऑक्सीमीटर एक ऐसा उपकरण है जो खून में ऑक्सीजन की मात्रा मापने का काम करता है। इसकी जरूरत इसलिए है कि कोरोना वायरस शरीर में ऑक्सीजन की कमी कर देता है जिसके बाद मरीज को वेंटिलेटर पर रखने की जरूरत होती है
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इसी प्रकार दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने मार्च में एक टास्क फोर्स बनाई थी जिसमें उनके अलावा तीनों एमसीडी, एनडीएमसी और दिल्ली पुलिस के साथ ही कई विभाग शामिल थे। इस टास्क फोर्स का काम था कोरोना वायरस का संक्रमण फैलने से रोकने के उपाय करना। लेकिन इस टास्क फोर्स की 9 मार्च के बाद कोई बैठक ही नहीं हुई। अलबत्ता जब दिल्ली में कोरोना का कहर बढ़ने लगा तो 2 जून को एक और पांच सदस्यीय समिति बना दी गई। लॉकडाउन के 75 दिन बाद बनी इस समिति का काम मुख्यमंत्री को कोरोना का फैलाव रोकने के उपाय की सलाह देने का है। अब फिर दिल्ली के उपराज्यपाल ने 6 सदस्यीय एक कमेटी बना दी है जो डीडीएमए को कोरोना रोकने के उपाय बताएगी। इस कमेटी की अध्यक्षता आईसीएमआर के बलराम भार्गव कर रहे हैं।
लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि तीन-तीन कमेटियां एक ही काम के लिए क्यों बनाई गई हैं।
इसके अलावा दिल्ली सरकार ने एक ऐप भी बनाया जिसके जरिए लोगों को अस्पतालों में बेड की उपलब्धता पता चल जाए, लेकिन सरकार भूल गई कि हर मरीज के पास स्मार्ट फोन नहीं होता। इसी तरह केजरीवाल सरकार ने अस्पतालों को आदेश दिया कि वे एलईडी स्क्रीन पर बेड और वेंटिलेटर की उपलब्धता दिखाएं , अभी तक एक भी अस्पताल ने ऐसा नहीं किया है।
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