देश के विभिन्न हिस्सों में पढ़ाई-लिखाई कर रहे कश्मीर के हजारों बच्चे संकट में हैं। 5 अगस्त को अनुच्छेद-370 हटाए जाने के बाद से उनका अपने घर-परिवार के लोगों से संपर्क मुश्किल से हो पा रहा है। इन बच्चों की दिक्कत यह भी है कि उनके घर-परिवार वाले उन्हें पैसे भी नहीं भेज पा रहे क्योंकि एक तो वहां अधिकतर जगह बैंकों में काम नहीं हो रहे; दूसरे कि कश्मीर में रोजी-रोजगार ठप रहने से आमदनी ही नहीं हो रही तो वे लोग पैसे भेजें भी तो कहां से।
ऐसी हालत में बच्चे क्या-क्या झेल रहे हैं, इसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। गुजरात में पढ़ाई कर रहे अनंतनाग के वसीम की पूरे अगस्त में घर वालों से कोई बात नहीं हुई। इस ‘दर्द’ ने उन्हें इतना परेशान किया कि वह इन 25 दिनों में अपने एमफिल की थीसिस के लिए एक शब्द भी नहीं लिख पाए। उन्होंने कहा कि “जरा सोचिए, आप जेहनी तौर पर परेशान हों और आपकी इसी परेशानी पर कोई जश्न मनाए और आपको मिठाइयां खाने को दे, तब आपके दिल पर क्या गुजरेगी?”
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वसीम की सितंबर के पहले हफ्ते में घर वालों से बात हुई, तब उनके दिल को थोड़ी तसल्ली मिली। फिर उनके गाईड ने उन्हें बुलाकर थोड़ा समझाया, तब जाकर वह वापस अपनी पढ़ाई की तरफ लौट पाए हैं। उन्होंने बताया कि उन्हें यहां रजिस्ट्रेशन कराने के लिए कुछ पैसों की जरूरत थी, लेकिन वह यहां किसी से मांग नहीं सकते थे। फिर, उन्होंने दिल्ली में जामिया के पुराने दोस्त को कॉल किया। उससे कर्ज मांगा, तब जाकर यहां फीस भर पाए। उन्होंने अपने कॉलेज का नाम रिपोर्ट में न देने का अनुरोध किया है क्योंकि उससे उन्हें वहां परेशानी हो सकती है।
दिल्ली के जामिया में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही इफरीन रविन का पूरा परिवार श्रीनगर में रहता है। वह बताती हैं कि कश्मीर में जब यह सब कुछ शुरू हुआ तो वह वहीं थीं। वह 15 अगस्त को दिल्ली आईं। उनका दाखिला उनके अब्बू ने करा दिया था लेकिन यहां आने के बाद उन्हें हॉस्टल की फीस जमा करनी थी जिसे उन्होंने एक दोस्त से कर्ज लेकर अदा की। वह कहती हैं, “मुझे हर वक्त घर की टेंशन लगी रहती है। हम यहां से कॉल भी नहीं कर सकते। उन्हें भी हमसे सेकेंड भर बात करने के लिए घंटों मेहनत करनी पड़ती है।”
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सोफियान की बाबरा हनाईकू कहती हैं कि मीडिया यहां यह भ्रम फैला रहा है कि कश्मीर में कम्युनिकेशन सर्विस बहाल कर दी गई है। लेकिन सच यह है कि ऐसा नहीं है। वहां सिर्फ लैंड लाईन सेवा बहाल की गई है। आज के जमाने में तो सबके पास मोबाईल है, लैंडलाईन रखता कौन है? और मोबाईल सर्विसेज तो आज भी बंद हैं। वह कहती हैं, “मेरी तो छोड़िए। मैं तो दिल्ली में हूं। वहां मेरे नाना को मेरी अम्मी से बात करने के लिए एक ऑफिस में जाना पड़ा। चंद मिनटों की बात के लिए अपने घंटों खराब किए, जबकि नाना का घर मेरे घर से सिर्फ 10 मिनट की दूरी पर है। वहां इतनी पाबंदियां हैं कि लोग एक-दूसरे से मिल भी नहीं पा रहे हैं।”
बारामुला के आमिर मुजफ्फर बट्ट का कहना है कि “मैंने यहां अपना एमए पूरा कर लिया है। अब मैं अपने अब्बू से यह तक पूछ नहीं पाया कि बीएड में दाखिला लूं या एमफिल में? दाखिले के लिए पैसे नहीं हैं। इसके लिए घर वालों से पैसे किस मुंह से मांगू? आखिर वे कहां से लाकर देंगे? मेरे कई दोस्त कॉलेज की फीस नहीं भर पाए हैं। पता नहीं, उनका आगे क्या होगा। और घर जाने के बारे में सोच ही नहीं सकते। अगर चले भी गए तो वहां घरों में कैद हो जाएंगे।”
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दिल्ली के एक विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे एक असिस्टेंट प्रोफेसर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि “हमें तो सैलरी मिलती है। लेकिन उन बच्चों के बारे में सोचिए जिनका अभी एडमिशन हुआ है। एक छात्र ने रात को तीन बजे अपना स्टेटस अपडेट किया कि वह लाल किला के पास खड़ा है और उसके पास पैसे नहीं हैं। दरअसल उसे मुंबई जाना था। मैंने उसी वक्त वहां पहुचंकर उसकी मदद की। एक लड़की ने कॉल कर बताया कि उसका जामिया में दाखिला होना है लेकिन फीस नहीं है। तब हम कुछ लोगों ने जामिया के वाइस चांसलर को एक पत्र लिखकर कहा कि कश्मीरी छात्रों के लिए फीस जमा करने की तारीख थोड़ी बढ़ा दी जाए। लेकिन यूनिवर्सिटी भी कहां तक करेगी? और मेरी भी मदद करने की कुछ सीमाएं हैं।”
कमोबेश यही हाल सब जगह है। जालंधर के एक नामचीन विश्वविद्यालय में पढ़ रहे शफी अहमद ने बताया कि उसके पिता श्रीनगर में सब्जी बेचने का काम करते हैं। वह महीने में दो बार श्रीनगर से उसके खाते में पैसे डलवाया करते थे। अब वहां से पैसा नहीं आ रहा। बैंक खाता खाली हो गया है। पीजी और ढाबे वाले का बकाया देना है। फिलहाल तो वे लोग कुछ नहीं कह रहे, पर ऐसा कितने दिन चलेगा?
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पीजी और शिक्षा संस्थानों के भीतर रह रहे कश्मीरी छात्रों का कहना है कि दूसरे राज्यों के रहने वाले उनके सहपाठियों को भी उनके घर वाले एक निश्चित रकम भेजते हैं। पहले पहल तो उन्होंने उधार देकर किसी तरह सहायता की, पर अब धीरे-धीरे उनलोगों ने भी हाथ खड़े करने शुरू कर दिए हैं। वैसे भी, दूसरे राज्यों के छात्र कश्मीरी छात्रों से कम ही मेल-मिलाप रखते हैं। ऐसे में, कश्मीरी विद्यार्थियों की दुश्वारियों में इजाफा हो रहा है।
नक्श अब्दुल्ला नाम के छात्र ने कहा कि उनके घर वाले खुद दिक्कतों में हैं और हमारे लिए बहुत ज्यादा फिक्रमंद भी हैं कि वे पैसे भेज नहीं पा रहे और हम गुजारा कैसे करते होंगे। पंजाब में पढ़ाई कर रहे कश्मीरी छात्र शाहिद कुरेशी के अनुसार, “पंजाब में कश्मीरी छात्रों को किसी किस्म का कोई खतरा नहीं, लेकिन पैसे आना बंद हो जाने से उन्हें जबरदस्त मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। हालात भी ऐसे नहीं हैं कि वे घरों को लौट सकें। एक अन्य कश्मीरी छात्र ने बताया कि उसके दादा ने लैंडलाइन फोन पर उससे कहा कि बेशक पंजाब में भूखों रह लेना लेकिन इन हालात में अभी तो इधर आने की सोचना भी नहीं।”
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कश्मीरी छात्रों की अच्छी तादाद वाले एक संस्थान के वरिष्ठ प्राध्यापक, जो लेखक भी हैं, ने बताया कि अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद से कश्मीरी छात्र अवसाद और तनाव में हैं। कश्मीर में एकदम से चरमरा गई अर्थव्यवस्था ने इन लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी पर हर लिहाज से बेहद नकारात्मक असर डाला है।
वैसे, शुक्र है कि पंजाब की कई स्वयंसेवी और धार्मिक संस्थाएं इन कश्मीरी बच्चों की मदद कर रही हैं। हालांकि, यह मदद लंगर (खाने) का राशन मुहैया कराने तक सीमित है। जबकि खाने के अलावा भी बेशुमार जरूरतें हैं, लेकिन इन संस्थाओं की भी अपनी सीमाएं तथा बजट हैं।
गुरु काशी यूनिवर्सिटी के प्रबंधकों ने जम्मू-कश्मीर वेलफेयर कमेटी का गठन किया है। यूनिवर्सिटी के डीन डॉ. हरजिंदर सिंह रोज के अनुसार, “विश्वविद्यालय की ओर से कश्मीरी विद्यार्थियों को यूनिवर्सिटी में हॉस्टल फीस जमा कराने की अवधि में मोहलत दी गई है।”
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