भारत में ओपीनियन पोल का रिकॉर्ड देखें तो समझ में आ जाएगा कि इनके अनुमान कितने सटीक या गलत साबित हुए हैं। आम तौर पर ओपीनियन पोल के नतीजे गलत ही साबित होते रहे हैं, ऐसे में कभी कभी लगता है कि ये सर्वे करने वालों को कुछ और ही करना चाहिए।
हां, कुछेक सर्वे ऐसे भी हुए हैं, जो एकदम सटीक और सही साबित हुए हैं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि किसी एक ही एजेंसी के सर्वे ही सही साबित होते रहे हों। न ही ऐसा हुआ कि किसी एक एजेंसी के सारे सर्वे गलत साबित हुए हों। मोटे तौर पर समझा जाए तो ये सर्वे एक जुए की तरह हैं, जिसमें कभी किसी का तुक्का लगता है तो कभी किसी और का। जिसका तुक्का सही लगा वह सीना ताने घूमता है, और जिसका पासा पिट गया वह मुंह छिपाए घूमता है।
मिसाल के तौर पर दिल्ली में आम आदमी पार्टी कांग्रेस और बीजेपी का सूपड़ा साफ कर देगी, ऐसा सिर्फ एक ही एजेंसी अनुमान लगा पाई थी, और बिहार के 2015 के चुनाव का अनुमान भी सिर्फ एक ही एजेंसी लगा पाई थी, और वह सर्वे भी किन्हीं अज्ञात कारणों से दिखाया नहीं गया था। हालांकि एक राजनीतिक विश्लेषक ने एक अंग्रेजी अखबार में बिहार के 2015 चुनाव में महागठबंधन की जीत का अनुमान लगाया था। ऐसा ही उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी हुआ था, जब सिर्फ एक ही एजेंसी वहां बीजेपी को प्रचंड बहुमत का अनुमान लगा पाई थी।
कर्नाटक के लिए भी एक के बाद एक कई ओपीनियन पोल और सर्वे सामने आ चुके हैं। इनमें एकरूपता नहीं है। कोई कांग्रेस को जिता रहा है, कोई बीजेपी को, तो कोई त्रिशंकू विधानसभा के कयास लगा रहा है। कुछेक सर्वे तो देवेगौड़ा की जेडीएस को एक मजबूत विकल्प के तौर पर पेश कर रहे हैं, और उसे त्रिशंकू विधानसभा की स्थित में किंगमेकर के तौर पर देख रहे हैं। कर्नाटक चुनाव के साथ ही पिछले कई चुनावों के सर्वे देखें तो सामने आएगा कि सर्वे करने वालों को मोटे तौर राजनीतिक माहौल का सही अंदाज़ा हो नहीं पाता है। अगर सर्वे के आंकड़े पहले से तय माहौल से अलग दिखते हैं तो एजेंसियां खुद को बचाने के लिए त्रिशंकू विधानसभा का अनुमान लगा लेते हैं।
लेकिन कुल मिलाकर आज की स्थिति यह है कि कर्नाटक में जब से प्रचार अभियान शुरु हुआ है, चुनावी माहौल में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की अगुवाई में कांग्रेस ने स्थिरता और सुशासन का नारा लोगों के बीच रखा है। कांग्रेस ने पिछले एक महीने में कभी भी कौतूहल या परेशानी का वैसा प्रदर्शन नहीं किया है जैसा कि 2013 के चुनाव में बी एस येदियुरप्पा के शासन में हुआ था। इतना ही नहीं कांग्रेस ने तो इन चुनावों का एजेंडा ही उस समय तय कर दिया था जब मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जा देने का ऐलान किया था और कन्नड़ राष्ट्रवाद को सर्वोपरि रखा था।
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दूसरी तरफ बीजेपी के अब तक के पूरे प्रचार से साबित होता है कि उसके लिए 2013 के बाद से कुछ भी बदला नहीं है। हां, इतना जरूर है कि इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह मोर्चा संभाले हुए हैं। लेकिन इन दोनों की कर्नाटक चुनाव में मौजूदगी क्या गुल खिलाएगी, अभी कुछ साफ-साफ नहीं कहा जा सकता। रही बात जेडीएस की, तो इस पार्टी पर पिछले कुछ समय में देवेगौड़ा परिवार की गिरफ्त मजबूत ही हुई है। ऐसे में पार्टी के वफादार कार्यकर्ताओं और समर्थकों के साथ ही नेताओं की भी अनदेखी होती रही है, जिसका असर 12 मई को होने वाले मतदान पर पड़ने की पूरी संभावना दिखती है।
लेकिन इस पूरे चुनावी समर में जो बात मायने रखती है, वह यह कि वोटर राजनीतिक दलों की सारी कवायद पर किस तरह प्रतिक्रिया देते हैं। ओपीनियन पोल किसी पार्टी को जीतता या हारता दिखा तो सकते हैं, लेकिन ऐसा रिकॉर्ड बताते हैं कि असल में ऐसा होता नहीं है।
(लेखक बेंग्लुरु के स्वतंत्र पत्रकार हैं, और यह उनके अपने विचार हैं।)
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