कर्नाटक में सत्ताविरोधी लहर साफ देखी जा सकती है और ऐसे में कांग्रेस अपने पत्ते बड़ी होशियारी से चल रही है जिससे बीजेपी बैकफुट पर है। मल्लिकार्जुन खड़गे का पार्टी अध्यक्ष चुना जाना, पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार समेत तमाम बीजेपी नेताओं का कांग्रेस का दामन थामना, अमित शाह का अमूल-नंदिनी कोऑपरेटिव विवाद छेड़कर अपनी पार्टी के लिए ही मुसीबत खड़ी कर लेना- ऐसे तमाम मामले हैं जिन्होंने कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं को बेहतर किया है।
बीजेपी जहां सांप्रदायिकता और जातिवाद के बूते चुनाव लड़ रही है, वहीं कांग्रेस ने भ्रष्टाचार और कोऑपरेटिव के मामलों को उछाला है। बीजेपी ने जिस तरह अंतिम क्षणों में आरक्षण में बदलाव किया, उससे सभी जातियों में नाराजगी है। राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट को कह चुकी है कि ईडब्लूएस कोटे के भीतर मुसलमानों को आरक्षण देने के मामले को वह फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल रही है, लेकिन इससे न तो लिंगायत खुश हैं और न दलित।
बीजेपी से लिंगायत नेताओं का नाता तोड़ना संकेत है कि इस समुदाय की आंखें खुल गई हैं। उधर, कांग्रेस ने भी यह मांग करके रही-सही कसर पूरी कर दी कि जातीय जनगणना करके आबादी के अनुपात में आरक्षण दिया जाए। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कर्नाटक के लोगों पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ने के बाद 16 अप्रैल को कोलार में राहुल गांधी की चुनावी रैली ने कांग्रेस की स्थिति को मजबूती दी है।
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राज्य का चुनावी इतिहास भी बीजेपी के खिलाफ है। 1985 के बाद से कोई भी पार्टी लगातार दूसरी बार सत्ता में नहीं आई। 2013-18 के अपवाद को छोड़कर 2004 के बाद कभी भी किसी अकेली पार्टी को बहुमत नहीं मिला और गठबंधन की सरकार बनी। 2018 के चुनाव में भी बीजेपी बहुमत नहीं पा सकी थी लेकिन उसने कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों को खरीदकर सरकार बनाई।
जेडीएस पर देवेगौड़ा कुनबे को बढ़ावा देने के आरोप हैं और विस्तारित परिवार के सात लोगों के चुनाव लड़ने की बात कही जा रही है। वहीं, आम आदमी पार्टी, सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया और असदुद्दीन ओवैसी की मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के चुनावी मैदान में होने से स्थिति थोड़ी धुंधली है। अगर ये पार्टियां अलग-अलग क्षेत्रों में सेंध लगाने में कामयाब होती हैं, तो नतीजा क्या होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
विधायकों की खरीद-फरोख्त के नुकसान को झेल चुकी कांग्रेस का पूरा जोर अपने बूते बहुमत के आंकड़े तक पहुंचने का है। कोलार में राहुल ने लोगों से अपील की कि वे बीजेपी को ‘ऑपरेशन कमल’ को आगे बढ़ाने का मौका न दें। राहुल ने कहा, कांग्रेस को अपने वादों को पूरा करने और स्थिर सरकार देने के लिए 224 में से कम-से-कम 150 सीटों की जरूरत होगी। कांग्रेस नेता डी के शिवकुमार पार्टी के 150 सीटें जीतने का पहले ही भरोसा जता चुके हैं।
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प्रदेश कांग्रेस कमेटी में संचार और सोशल मीडिया अध्यक्ष प्रियांक खड़गे कहते हैं: ‘आरक्षण पर बीजेपी का अपने दुस्साहसी कदम का बचाव न कर पाना, भ्रष्टाचार, महंगाई, भर्ती घोटाला, सरकारी रिक्तियों को नहीं भरना और बीजेपी में आपसी कलह का हमें फायदा मिलेगा।’ खड़गे पुलिस सब-इंस्पेक्टर भर्ती घोटाले को लेकर लगातार बीजेपी सरकार पर हमलावर रहे जिसकी जांच अपराध जांच विभाग कर रहा है। खड़गे का दावा है कि ‘पार्टी सामूहिक नेतृत्व के तहत चुनाव में जा रही है और वह 124 सीटें जीतने में कामयाब रहेगी।’
कांग्रेस एमएलसी और पार्टी के मुख्य प्रवक्ता नागराज यादव का कहना है कि बीजेपी के हर मंत्री के दामन पर भ्रष्टाचार के दाग हैं। कुछ विधायक जिन्होंने 2019 में पूर्व मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा को सरकार बनाने में मदद करने के लिए कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) से इस्तीफा दे दिया था, वे अब पछता रहे हैं। और तो और, उनमें से एक ए एच विश्वनाथ जिन्होंने जनता दल (एस) को छोड़ा था- ने हाल ही में प्रायश्चित करने के लिए ‘पश्चाताप सत्याग्रह’ किया।
नागराज कहते हैं, कांग्रेस के मुंबई-कर्नाटक क्षेत्र (छह जिलों में 40 सीटें) और मध्य कर्नाटक (चार जिलों में 26 सीटें) में बेहतर करने की उम्मीद है जहां से बीजेपी ज्यादातर सीटें जीतती रही है। मध्य कर्नाटक में लोकायुक्त पुलिस द्वारा बीजेपी विधायक मदल विरुपाक्षप्पा की रिश्वत के आरोप में गिरफ्तारी से बीजेपी की संभावनाओं पर असर पड़ा है जबकि मुंबई-कर्नाटक इलाके में लिंगायतों और पिछड़े वर्गों में टकराव है।
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बीजेपी का मुख्य वोट बैंक लिंगायत समुदाय नए जातिगत आरक्षण से नाखुश है। समुदाय ने खुद को कोटे की 2ए श्रेणी में रखे जाने की मांग की है जो उन्हें शिक्षा और सरकारी नौकरियों में 15 फीसदी आरक्षण का हकदार बनाता। सरकार ने हालांकि उन्हें एक नई श्रेणी 2डी में रखा और उन्हें सात प्रतिशत आरक्षण की पेशकश की।
अब तक घोषित उम्मीदवारों की सूची में कांग्रेस ने अधिक लिंगायतों को समायोजित करने का प्रयास किया है। पहले धारणा थी कि 1990 के दशक में लिंगायत नेता वीरेंद्र पाटिल को कांग्रेस आलाकमान द्वारा मुख्यमंत्री पद से अलग करने की वजह से लिंगायत समुदाय ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया था।
सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वेक्षण से पता चलता है कि कर्नाटक चुनावों में पहली बार वोट डालने वालों की बड़ी भूमिका रहने वाली है। सर्वेक्षण से पता चलता है कि 2008 में बीजेपी के वोट में पहली बार वोट डालने वालों का प्रतिशत उसके औसत मत प्रतिशत से तीन अंक अधिक था। तब वह बहुमत से तीन सीटें दूर रह गई। चुनाव विश्लेषक संदीप शास्त्री ने एक लेख में कहा था कि 2013 में जब कांग्रेस जीती, तो उसके वोट में पहली बार वोट डालने वालों का प्रतिशत उसके औसत से एक अंक ज्यादा रहा।
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गौर करने वाली बात है कि 2018 में बीजेपी नौ सीटों से बहुमत से पीछे रह गई थी और तब पहली बार वोट डालने वालों का प्रतिशत उसके औसत मत प्रतिशत से छह अंक कम था। 2013 और 2018 के चुनावों में जेडीएस के हिस्से पहली बार वोट डालने वालों का प्रतिशत उसके औसत से लगभग चार अंक अधिक रहा था। दोनों बार जेडीएस को खास तौर पर ऐसे युवाओं के वोट छोटे शहरों में मिले जो संभवतः दोनों प्रमुख दलों के प्रति युवाओं के बढ़ते मोहभंग का संकेत दे रहा था।
इस बार एक नया मुद्दा अमूल-नंदिनी विवाद है। गुजरात और कर्नाटक में मजबूत दुग्ध सहकारी समितियां हैं और ये सबसे बड़े दुग्ध उत्पादक राज्यों में हैं। अमूल और नंदिनी के उत्पाद मुंबई जैसे इलाकों में एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते रहे हैं लेकिन अब तक एक-दूसरे के गढ़ों मे दो-दो हाथ करने से बचते रहे थे। लेकिन केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जो सहकारिता के प्रभारी भी हैं, ने घोषणा की कि अमूल और नंदिनी एक दूसरे के साथ गठजोड़ करेंगे और यह एक राजनीतिक मुद्दा बन गया। इसी बीच, अमूल ने बेंगलुरू में अपने ब्रांडेड दूध और दही उतारकर भ्रम की स्थिति और बढ़ा दी।
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फिजा में ऐसी बातें तैर रही हैं कि दोनों का विलय होने वाला है और इससे कर्नाटक के डेयरी किसानों और सहकारी समितियों में आशंका का माहौल है। बाजार में नंदिनी के दूध और दही की कमी ने भी तरह-तरह के संदेह को मजबूत किया है। यह भी सवाल घुमड़ने लगा है कि क्या अमित शाह गुजरात में नंदिनी को अपने उत्पाद बेचने देंगे? नंदिनी के उत्पाद अमूल की तुलना में बहुत सस्ते होते हैं क्योंकि उन्हें राज्य सरकार की ओर से सब्सिडी मिलती है। जहां भाजपा ने कांग्रेस पर प्रशासनिक और व्यावसायिक निर्णय के राजनीतिकरण का आरोप लगाया है, वहीं कांग्रेस ने इसे कर्नाटक की अस्मिता को चोट पहुंचाने वाला मामला करार दिया है। गांवों में इसका असर क्या होगा, कहना मुश्किल है लेकिन ऐसा लगता है कि कांग्रेस का यह दांव सही बैठा है।
हमेशा की तरह बीजेपी प्रचार के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर निर्भर है। राजमार्गों और ट्रेन के उद्घाटन से लेकर आईआईटी में कार्यक्रम तक, प्रधानमंत्री चार माह में नौ बार राज्य आए और उन्होंने अपनी शैली के मुताबिक ही इन मौकों का इस्तेमाल राजनीतिक संदेश देने के लिए किया।
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5 मई को चुनाव प्रचार खत्म होने जा रहा है और तब तक बीजेपी प्रधानमंत्री की 20 रैलियों की योजना बना रही है। मजे की बात यह है कि कर्नाटक गजेटियर में प्रधानमंत्री के दौरे पर कर्नाटक सरकार ने जो खर्च किए हैं, उसका ब्योरा काफी कुछ कहता है। गजेटियर में कहा गया है कि 12 मार्च को धारवाड़ में प्रधानमंत्री की 110 मिनट की यात्रा पर 9.49 करोड़ रुपये खर्च हुए। इसी तरह, नए हवाई अड्डे और अन्य परियोजनाओं का उद्घाटन के लिए 27 फरवरी को शिवमोगा की उनकी यात्रा पर 36.53 करोड़।
प्रधानमंत्री और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण (टीपू सुल्तान, हिजाब, नमाज, लव जिहाद, गाय वगैरह) बीजेपी के लिए कितने फायदेमंद रहने वाले हैं, यह देखने वाली बात है।
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