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उत्तराखंड में विकास की विनाशलीला: खत्म होने के कगार पर जोशीमठ, मकानों में दरारें, जमीन से फूटते पानी के चश्मे,

नरेंद्र मोदी सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर पहाड़ों में विकास तेज करने को उचित ठहराया है। सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल ने भी विशेषज्ञों की राय को दरकिनार कर सरकार के तर्क को स्वीकार कर लिया। ऐसे में जो कुछ जोशीमठ में हो रहा है वैसा संकट तो आना ही था।

स्रोतः अतुल सती के फेसबुक वॉल से
स्रोतः अतुल सती के फेसबुक वॉल से 

उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र से जो तस्वीरें, वीडियो और मीडिया रिपोर्टस सामने आई हैं या आ रही है, वे भयावह हैं और बेहद चिंता वाली हैं। जोशीमठ में हो रहे लगातार हिमस्खलन के चलते इलाके के 500 से ज्यादा घरों में दरारें आ गई हैं, 3000 से ज्यादा लोग भीषण सर्दी में खुले आसमान के नीचे रात गुजारने को मजबूर हैं। कुछ लोगों के लिए यह महज एक खबर हो सकती है, लेकिन स्थानीय लोगों के लिए यह बहुत बड़ी मुसीबत है।

पिछले साल के आखिरी महीनों में स्वीथ, धामक, नकरोटा और डोबरीपंथ गांवों में 220 से ज्यादा घरों में दरारें आ गईं। गांव वालों ने ऋषिकेश-श्रीनगर रोड पर पांच दिनों तक यातायात बाधित किए रखा और रेलवे के खिलाफ शिकायत की। श्रीनगर सबडिविजनल मजिस्ट्रेट ने रेलवे से इन गांव वालों की क्षतिपूर्ति की सिफारिश की। लेकिन रेलवे ने यह कहते हुए सलाह ठुकरा दी कि महज 1.54 करोड़ दिए जाएंगे, क्योंकि रेलवे ने निर्माण के वैज्ञानिक मानकों का पालन किया है।

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उत्तराखंड के पहाड़ों में बसे कई नगरों और गांवों में यहां हो रहे निर्माणों की वजह से प्रभाव पड़ रहा है। चिपको आंदोलन का सूत्रपात करने वाले रैनी गांव को खतरनाक घोषित कर दिया गया और वहां के निवासियों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाया जा रहा है। फरवरी, 2021 में एनटीपीसी के 520 मेगावाट तपोवन विष्णुगढ़ पनबिजली परियोजना को जब हिमस्खलन ने क्षतिग्रस्त कर दिया, तो गांव में भी बाढ़ आ गई।

उत्तराखंड में सक्रिय स्वयंसेवी संगठनों का कहना है कि गढ़वाल के पहाड़ों में रोजाना ही तीन भूस्खलन हो रहे हैं। सितंबर के अंत और अक्टूबर 2022 के पहले हफ्ते के बीच केदारनाथ में तीन हिमस्खलन हुए। पहली अक्टूबर को उत्तराखंड के पहाड़ों की ऊंचाइयों में हुए विनाशकारी हिमस्खलन में 27 पर्वतारोहियों को अपनी जान गंवानी पड़ी।

असल में हिमालय जिंदा पहाड़ है और वहां लगातार  भूगर्भीय गतिविधियां होती रहती हैं। यहां सैंकड़ों ऐसी धाराएं हैं जहां सालों पानी नहीं आता लेकिन जब ऊपर ज्यादा बर्फ पिघलती है, तो वहां अचानक तेज जल-बहाव होता है। वैज्ञानिकों ने इस संवेदनशील क्षेत्र में बहुत ज्यादा निर्माण और 500 से अधिक जलबिजली परियोजनाओं की नासमझ शुरुआत को लेकर बार-बार चेतावनी दी है। जलवायु परिवर्तन की मार बढ़ती जा रही है। इस वजह से हिमस्खलन की घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं।

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वैज्ञानिकों की चेतावनी अनसुनी की जा रही है। केदारनाथ और बद्रीनाथ के आडंबरपूर्ण मास्टर प्लान को हिमोढ़ पर कार्यान्वित किया जा रहा है। हिमोढ़ ग्लेशियर से जमा की गई धरती और पत्थरों को कहते हैं। ये काम ऐसे इलाकों में हो रहे हैं जो भूस्खलनों, अचानक आने वाली बाढ़ और हिमस्खलन वाले हैं। विस्फोट और डायनामाइट का उपयोग लगतार किया जा रहा है। टनल बनाने और सड़कों को चौड़ा करने के लिए डायनामाइट के लगातार उपयोग को लेकर यहां की पर्यावरण ऐक्टिविस्ट सुशीला भंडारी हाल में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से केदारनाथ में मिली थीं। भंडारी ने रश्मि सहगल को बताया था कि शाह ने उन्हें आश्वस्त किया कि इन पहाड़ों में डायनामाइट का उपयोग नहीं किया जाएगा; 'लेकिन इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि इनका उपयोग जल्द ही रुक जाएगा।'

हिमालयीन इलाके में सैकड़ों जलधाराएं हैं। वैसे तो वे बरसों सूखी रहती हैं लेकिन बादल फटने या हिमनदियों में पानी बढ़ने पर अचानक आने वाली बाढ़ के वक्त वे पानी के बहाव के लिए नालियों का काम करती हैं। अब इन जगहों पर पक्के कंक्रीट के मकान बना दिए गए हैं। इसलिए 6 फरवरी, 2021 को ग्लेशियर फटने के बाद विनाशकारी बाढ़ आई थी, तो ऐसे मकानों के कारण सबसे ज्यादा तबाही हुई थी।

जलवायु परिवर्तन के चिह्न भी बिल्कुल साफ दिख रहे हैं। चमोली हिमालय की छाया में बसा है। यहां बरसात कम ही होती थी। लेकिन हाल के कुछ वर्षों से यहां गर्मियों में भी कई-कई बार बारिश होने लगी है।

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यहां पहाड़ कच्चे रहे हैं और जब-तब पहाड़ धंसने, बादल फटने, भूस्खलन और अचानक बाढ़ आ जाने की घटनाएं पिछली शताब्दी में भी होती थी। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि हाल के वर्षों में 'विकास' के लोभ ने अनिश्चितताओं और आकस्मिक-अनपेक्षित घटनाओं को अंजाम दिया है। पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए होटल, रिसॉर्ट, पानी, सड़क और ट्रांसपोर्ट की अधिक-से-अधिक सुविधाएं जुटाने के लिए डीजल जेनरेटरों का भी अधिकाधिक उपयोग हो रहा है। इस वजह से और प्लास्टिक तथा अन्य कूड़े इतने अधिक बढ़ गए हैं कि प्रदूषण की समस्या गंभीर होनी ही है।

इस अंचल के पारंपरिक घर स्थानीय मिट्टी में रेत मिला कर धूप में पकाई गई ईंटों से बनते थे। इन घरों की बाहरी दीवारों को स्थानीय 'पुतनी मिट्टी' और उसमें वनस्पतियों के अवशेष को मिला कर ऐसा कवच बनाया जाता है जो शून्य  से नीचे तापमान में भी उसमें रहने वालों को उष्मा देता था। यह इलाका भूकंप-संवेदनशील तो है ही। ऐसे में पारंपरिक आवास सुरक्षित माने जाते रहे हैं। कंक्रीट गरमी में और तपता है जबकि जाड़े में यह अधिक ठंडा करता है।  सीमेंट की वैज्ञानिक आयु 50 साल है जबकि इस इलाके में पारंपरिक तरीके से बने कई मकान, मंदिर, मठ सैकड़ों सालों से ऐसे ही शान से खड़े हैं। यहां के पारंपरिक मकान तीन मंजिला होते हैं- सबसे नीचे मवेशी, उसके ऊपर परिवार और सबसे ऊपर पूजा घर।

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हिमालय दुनिया का सबसे युवा और जिंदा पहाड़ कहलाता है। हिमालय पहाड़ न केवल हर साल बढ़ रहा है बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती है। यहां पेड़ भूमि को बांध कर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कि कटाव और पहाड़ ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है।

नरेंद्र मोदी सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर पहाड़ों में इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास तेज करने को उचित ठहराया है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पहाड़ की सड़कों की चौड़ाई पांच मीटर से अधिक रखने और पहाड़ों में इतनी बड़ी संख्या में पेड़ काटने के खिलाफ विशेषज्ञों की राय को दरकिनार करते हुए सरकार के तर्क को स्वीकार कर लिया।

उत्तराखंड में 300 किलोमीटर की सीमा चीन-तिब्बत से मिलती है और यहां फौज की मौजूदगी जरूरी है। यहां से माना दर्रा महज 50 किलोमीटर दूर है। उत्तराखंड से केंद्र सरकार को जो ब्योरा भेजा गया है, उसके मुताबिक, पिछले 10 साल में सिर्फ बाड़ाहोती क्षेत्र में चीन 63 बार घुसपैठ के प्रयास कर चुका है। ऐसे में, वहां तक सभी मौसम के लायक त्वरित परिवहन के लिए सड़क अनिवार्य  है। लेकिन इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास पर अधिक जोर सैन्य जरूरतों की अपेक्षा पर्यटन की दृष्टि से होता लगता है। आश्चर्य नहीं है कि स्थानीय लोग भी मानते हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा तो सिर्फ टेक भर है। होटल, ट्रांसपोर्ट वालों और इस सेक्टर में प्रमोटरों को घरेलू पर्यटन, खास तौर से धार्मिक र्प्यटन के लिए बढ़ावा दिया जा रहा है।

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इस साल मई महीने में चारधाम यात्रा शुरू होने के कुछ दिनों के अंदर ही 9.5 लाख से अधिक रजिस्ट्रेशन हो चुके थे। इनमें भी 3.35 लाख से ज्यादा रजिस्ट्रेशन केदारनाथ धाम के लिए हुए थे। विशेषज्ञों का कहना है कि इस इलाके में जितनी क्षमता है, यह आंकड़ा उससे तीन गुना अधिक रहा। इतने लोगों के परिवहन, कचरे, जल-आपूर्ति का खामियाजा पहाड़ों को ही भोगना है।

लेकिन यह सब कम समय तक रहने वाले लाभ की तरह है। इस धार्मिक पर्यटन की वजह से स्थानीय व्यापार और रोजगार बढ़ा है। सुविधापूर्ण सड़कें, चकाचौंध करने वाली जन सुविधाएं, होटल, रिसॉर्ट, मॉल और मल्टीप्लेक्स ने रोजगार को बढ़ावा दिया है। ट्रांसपोर्ट और होटल वालों के लिए पहले इतने अच्छे दिन नहीं थे। लोगों की पहले से कहीं अधिक आय हो रही है। और राजनीति चमकाने वाले प्रगति के इस तरह के दिखते चिह्न की वजह से खुश हैं। यहां आने वाले श्रद्धालु प्राचीन मंदिरों के इस तरह विकस किए जाने तथा यहां उपलब्ध कराई जाने वाली सुविधाओं को देखकर प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें हेलिकॉप्टर से आने-जाने की सुविधाएं भी जो मिलने लगी हैं।

ऐसे में, पर्यावरण को लेकर चिंताएं प्रकट करने और प्राकृतिक संसाधनों की जरूरत से कहीं अधिक दोहन के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोगों को देशद्रोही और 'ऐसे कम्युनिस्ट के तौर पर करार दिया जाने लगता है जिनकी निष्ठा और खाद-पानी चीन से आती है।' जैसे, जोशीमठ में हाल के महीनों में जो कुछ हुआ है, उसके खिलाफ प्रदर्शन करने वालों को 'हिन्दू विरोधी, विकास विरोधी और देशद्रोही' कहा जा रहा है।

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वैसे, शुक्र है कि जोशीमठ के लोगों की पीड़ा ने, देर से ही सही, सरकार और मीडिया का ध्यान खींचा है लेकिन राज्य के दूसरे हिस्सों में इसी तरह की समस्याओं की ओर आम तौर पर अनदेखी ही होती रही है। बदरीनाथ धाम का प्रवेश द्वार कहे जाने वाला जोशीमठ शहरी आबादी वाला इलाका है और यहां अधिकतर खाते-पीते तथा राजनीतिक तौर पर जागरूक लोग रहते हैं। लेकिन शायद उत्तराखंड में भी कम ही लोगों ने चीनी सीमा के पास नीति घाटी में जुगजू गांव के बारे में सुना होगा। जुगजू के गांव वाले पिछले कई साल से बरसात के दिनों में गुफाओं में रहने चले जाते हैं क्योंकि बारिश के बाद भूस्खलन रोजाना की आम बात हो गई है।

पहाड़ों के निचले हिस्से वाले गांव और शहर ज्यादा संकटग्रस्त हैं और उन पर खास ध्यान देने की जरूरत है। न सिर्फ जोशीमठ बल्कि भारत-नेपाल और भारत-चीन सीमाओं के पास के सभी जिलों को पारस्थितिकीय और पर्यावरण बदलावों से निबटने के लिए सहायता की दरकार है।

ग्लेशियरों, खास तौर से गंगोत्री ग्लेशियरों में हो रहे बदलावों को लेकर कई अध्ययन हुए हैं। विशेषज्ञों ने चेताया भी है कि सूख गए और सूख रहे जल प्रवाहों से भी खतरा बढ़ रहा है जिन पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।

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पिछले साल अगस्त में इस शहर का भूगर्भीय सर्वेक्षण पर्यावरणविद प्रो. रवि चोपड़ा, भूवैज्ञानिक डॉ. नवीन जुयाल और डॉ. एसपी सती ने किया था।  नवंबर में आई उनकी रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि भू-धंसाव का प्रमुख कारण नगर के नीचे अलकनंदा नदी से हो रहा कटाव, क्षेत्र में ड्रेनेज सिस्टम और सीवेज की व्यवस्था नहीं होना है। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. स्वप्नमिता चौधरी ने यूरोपियन स्पेस एजेंसी के सेटेलाइट इंटरफेयरोमेट्रिक सिंथेटिक एपर्चर रडार (इंसार) के जरिये जोशीमठ की तस्वीरों के अध्ययन के बाद कहा है कि जोशीमठ के कई इलाकों में बड़े पैमाने पर भूधंसाव के लिए काफी हद तक बदहाल सीवरेज प्रणाली और ड्रेनेज सिस्टम जिम्मेदार है। शहर में बारिश के दौरान जिन नालों से पानी बहता है, उनके आसपास या ऊपर बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य होने से पानी अलकनंदा नदी में पहुंचने के बजाय जमीन में जा रहा है। यह भूधंसाव का बड़ा कारण बन रहा है। 

(पंकज चतुर्वेदी पर्यावरण संबंधी विषयों पर नियमित तौर पर लिखते हैं)

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