झारखंड में विधानसभा की 81 सीटें हैं। सीटों के खयाल से यह कुछ जगहों से बड़ी जरूर है क्योंकि गोवा में 40, मणिपुर और नागालैंड में 60-60 और हिमाचल प्रदेश में 68 सीटों वाली विधानसभाएं हैं। फिर भी, अपेक्षाकृत इस छोटे राज्य झारखंड में प्रचार के लिए बीजेपी ने दिग्गजों की जैसी फौज उतारी है, वह अद्भुत है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने नवंबर के पहले सप्ताह में तंज कसते हुए ठीक ही कहा कि झारखंड में बीजेपी द्वारा मैदान में उतारे गए 68 उम्मीदवारों के लिए प्रचार को उतरे उसके मुख्यमंत्रियों और केन्द्रीय मंत्रियों की संख्या उनसे कहीं ज्यादा है। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा तो कई महीनों से राज्य में डेरा डाले हुए हैं जबकि योगी आदित्यनाथ, शिवराज सिंह चौहान, राजनाथ सिंह, अमित शाह और यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी यहां लगातार आते रहे हैं।
झारखंड में चुनाव जीतने को बीजेपी जिस तरह उतारू दिखती है, वह उसकी हताशा भी दिखाता है। कहा जा रहा है कि बीते पांच साल सत्ता से बाहर रहने के कारण पार्टी राज्य में फिर सत्ता हासिल करना चाहती है। उसके पास हारने का विकल्प भी नहीं है क्योंकि इसके बाद विपक्ष के हमले झेलना उसके लिए आसान नहीं होगा। राज्य में कोयला, लौह-अयस्क, बॉक्साइट जैसी खनिज संपदा और यूरेनियम तथा सोने के विशाल भंडारों के कारण झारखंड दुधारू गाय है और सबसे बड़ा आकर्षण। इससे भी ज्यादा यह कि कॉरपोरेट निकाय या ‘कंपनी’ (मसलन अडानी समूह) भी राज्य में ज्यादा लचीली और अनुकूल सरकार चाहते हैं, और बीजेपी के साथ सहज महसूस करते हैं।
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2011 की जनगणना के अनुसार, 28 आरक्षित एसटी (अनुसूचित जनजाति) सीटों के साथ आदिवासियों की संख्या राज्य की आबादी का लगभग 26 प्रतिशत है। 2019 के विधानसभा चुनाव में जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी गठबंधन ने विधानसभा की 81 सीटों में से 47 और 28 एसटी आरक्षित सीटों में से 26 सीटें जीतीं। बीजेपी एसटी के लिए आरक्षित केवल 2 सीट जीत पाई और कोल्हान क्षेत्र की सभी 14 आरक्षित सीटें हार गई। जेएमएम 30 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बना। सबसे ज्यादा वोट शेयर के बावजूद बीजेपी को सिर्फ 25 सीटें मिलीं। बीजेपी और उसके सहयोगी ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) को इंडिया ब्लॉक के 39.62 फीसदी के मुकाबले 47.2 फीसदी वोट मिले जो साफ तौर पर आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी विभाजन का संकेतक है। 2024 के नतीजे बताएंगे कि विभाजन खत्म हुआ या नहीं।
बीजेपी खुद को झारखंड में शासन करने वाली स्वाभाविक पार्टी इसलिए भी मानती है कि उसी ने अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में नवंबर 2000 में बिहार से अलग कर यह नया राज्य बनाया था। राज्य के 24 साल के इतिहास में 13 साल तक बीजेपी की सरकारें रहीं। शेष 11 में छह वर्ष अस्थिर गठबंधन सरकारों के रहे और अंतिम पांच वर्ष जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार के नाम।
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इसलिए, कहने को बीजेपी अपने संसाधनों, कॉरपोरेट, आरएसएस और खनन लॉबी के समर्थन से चुनाव में बढ़त लेती दिख रही है। हालांकि पार्टी ने जिस तरह 5 नवंबर को 30 से ज्यादा विद्रोही छह साल के लिए पार्टी से निष्कासित किए, सब कुछ इतना आसान नहीं लगता। लुईस मरांडी और लक्ष्मण टुडू सहित 12 बीजेपी नेता पार्टी छोड़कर जेएमएम में शामिल हो गए। ईडी, सीबीआई और आयकर वाली धमकी भी अन्य राज्यों की तरह यहां काम करती नहीं दिखी।
बीजेपी के लिए एक और मुश्किल मौजूदा विधायकों के प्रति लोगों की नाराजगी भी है। उसके एक दर्जन से ज्यादा उम्मीदवार 10 साल या उससे ज्यादा समय से विधायक हैं। इनमें से कई को जन-नाराजगी झेलनी पड़ रही है। तीसरी बाधा, इसके लगभग आधे उम्मीदवारों का राजनीतिक परिवारों से होना है। झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस के खिलाफ ‘परिवार शासन’ के आरोपों का हल्ला मचाने वाली बीजेपी के ऐसे 33 उम्मीदवारों में पूर्व मुख्यमंत्री और केन्द्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा की गृहिणी पत्नी, एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री रघुबर दास की बहू, तीसरे मुख्यमंत्री चंपई सोरेन के बेटे और एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी शामिल हैं। स्थानीय दावेदारों को नजरअंदाज कर बाहरी को उम्मीदवार बनाने का मामला भी दिक्कत कर रहा है।
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भले ही प्रधानमंत्री मोदी से लेकर अमित शाह, हिमंत बिस्वा सरमा से लेकर राजनाथ सिंह, शिवराज सिंह चौहान से लेकर निशिकांत दुबे तक बीजेपी नेता राज्य में घुसपैठियों की आशंका जताते रहे हैं- स्वतंत्र तथ्य-खोजी टीमों को घुसपैठ का ऐसा कोई सबूत नहीं मिला। वैसे भी, जैसा कि हेमंत सोरेन कहते हैं, घुसपैठ से निपटना बीएसएफ और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह की जिम्मेदारी है। बीजेपी ब्रिगेड जनगणना का हवाला देते हुए लोगों को बता रही है कि संथाल परगना की आदिवासी आबादी 1951 के 44 प्रतिशत से घटकर 2011 में मात्र 28 प्रतिशत रह गई थी। वे यह भी बताते हैं कि भले ही राज्य में मुसलमान 14 प्रतिशत ही हैं, 2011 की जनगणना के अनुसार संथाल परगना में मुसलमान वहां की आबादी का 20 प्रतिशत से ज्यादा थे।
झारखंड जनाधिकार महासभा की फैक्ट फाइंडिंग टीम ने संथाल परगना में जांच के बाद और इन आरोपों को निराधार पाया। एक बयान में दावा किया गया कि उच्च मृत्यु दर और बाहरी प्रवासन के कारण भी आदिवासियों का प्रतिशत बड़े पैमाने पर गिरा है। यह हिन्दुओं के प्रतिशत में गिरावट को इस तरह भी बताता है कि बड़ी संख्या में आदिवासी खुद को हिन्दू शिनाख्त से दूर रखना चाहते हैं। इसके बजाय, गैर-ईसाई आदिवासियों में अपने धर्म को ‘सरना’ घोषित करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। चूंकि सरना को अभी तक एक अलग धर्म के रूप में मान्यता नहीं मिली है, इसलिए जनगणना में उन्हें ‘अन्य’ के खाते में दर्ज किया जा रहा है। बिहार और पश्चिम बंगाल के पड़ोसी जिलों से आकर बस गए गैर-आदिवासियों के कारण भी संथाल परगना में आदिवासियों के प्रतिशत में गिरावट दिखती है।
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बीजेपी के ध्रुवीकरण अभियान का एक बड़ा कारण अपने शासन की कुछ कमियों की चर्चाओं से बचना भी है। पार्टी राज्य में न सिर्फ वादे पूरे करने में विफल रही, बल्कि बतौर मुख्यमंत्री रघुबर दास के शासन में उसने छोटानागपुर किरायेदारी अधिनियम और संथाल परगना किरायेदारी अधिनियम बदलना चाहा जिससे सरकार को सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए आदिवासी और कृषि भूमि अपने कब्जे में लेने का अधिकार मिल जाता। विधेयक को तत्कालीन राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया और आदिवासियों के भारी विरोध से राज्य सरकार को इसे वापस लेना पड़ा था। उसी दौरान पत्थलगड़ी आंदोलन जिसमें ग्रामीणों ने बाहरी लोगों को गांवों में घुसपैठ के खिलाफ चेतावनी देते वाले बड़े-बड़े पत्थर लगाए थे, पुलिस दमन का शिकार बना। हजारों आदिवासी देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किए गए- बाद में हेमंत सोरेन सरकार ने ये मामले वापस ले लिए।
शोर-शराबा और समाज को बांटने वाले भाषणों के अलावा बीजेपी ने राज्य की आबादी के 26 प्रतिशत आदिवासियों को छूट देते हुए ‘समान नागरिक संहिता’ वाला पैंतरा लागू करने की चाल भी चली। चूंकि अधिकांश गैर-आदिवासी पहले से ही बीजेपी के समर्थक रहे हैं, ऐसे में यूसीसी से बीजेपी को कुछ नया हासिल होता नहीं दिखता। यह बीजेपी और इसके नेताओं की समझ को भी दर्शाता है कि वे न तो राज्य को समझ पाए हैं, न यहां के लोगों को। यहां तक कि उससे जुड़े आदिवासी नेता भी उन्हें नहीं बता पाए कि इससे कुछ मिलने वाला नहीं है। राज्य में मुस्लिम पुरुषों और आदिवासी महिलाओं, ईसाई और गैर-ईसाई- दोनों के बीच विवाह को जनजातियों द्वारा लंबे समय से मान्यता मिलती रही है और यह भी कि आदिवासियों और मुसलमानों के बीच कभी कोई फसाद नहीं हुआ। इसके अलावा, अधिकांश जनजातियों में महिलाओं को जमीन विरासत में नहीं मिलती है और इसलिए मुस्लिम पुरुषों पर आदिवासी महिलाओं से शादी करके भूमि जिहाद में शामिल होने जैसे आरोप लगाना भी बेअसर हो जाता है।
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भले ही बीजेपी नेताओं ने राज्य में जेएमएम के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ बयानबाजी तेज कर दी है लेकिन सच है कि देश के कुछ सबसे गरीब राज्यों में से एक झारखंड में किसानों का कर्ज माफ हुआ है, 11 लाख लड़कियों को हर महीने पांच हजार रुपये दिए गए हैं, प्रति माह 1,100 रुपये का भुगतान कर लाखों महिलाओं को मदद दी गई और गरीबों को 26 लाख घर मिल गए। इसने शिक्षकों का मानदेय बढ़ाया और पुलिसकर्मियों को हर साल एक महीने का अतिरिक्त वेतन देने की शुरुआत की। राज्य सरकार ने विदेश में रहकर विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई के लिए छात्रों को छात्रवृत्ति दी और रघुबर दास सरकार द्वारा रद्द किए गए 1.1 मिलियन राशन कार्ड बहाल कर सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विस्तार किया।
योगी आदित्यनाथ जहां भी प्रचार कर रहे हैं, बीजेपी कार्यकर्ता उनके स्वागत के लिए बीजेपी के झंडों से सजे बुलडोजर लेकर जा रहे हैं। बड़कागांव में पार्टी प्रत्याशी तो यहां तक वादा करते दिखे कि बुलडोजर एक्शन में दिखेगा। कांग्रेस प्रत्याशी अंबा प्रसाद कटाक्ष करते हुए कहती हैं- बीजेपी लोगों को उनकी जमीन से बेदखल करने के लिए ‘कंपनी’ (एनटीपीसी और अडानी) के दलाल के रूप में काम कर रही है। उन्होंने कहा, ‘अगर बीजेपी सत्ता में लौटती है तो लोगों पर बुलडोजर और गोलियां चलाई जाएं तो हमें आश्चर्य नहीं होगा।’ फिलहाल तो यह संभावना बहुत कम नजर आ रही है।
(झारखंड से राजेंद्र तिवारी की रिपोर्ट)
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