राष्ट्रपति भवन की वेबसाइट पर अपलोड किए गए राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से जारी एक बयान का जहां कुछ लोगों ने स्वागत किया है, वहीं कुछ लोगों को लगता राष्ट्रपति ने बिना वजह पश्चिम बंगाल को निशाना बनाया है जबकि बलात्कार और हत्या की घटनाएं तो देश के विभिन्न राज्यों और इलाकों में हो रही हैं। यह चर्चा इसलिए भी हो रही है क्योंकि पूर्व में बीजेपी शासित राज्यों में हुई ऐसी ही घटनाओं पर राष्ट्रपति खामोश थीं और कोई प्रतिक्रिया नहीं आई थी, इसीलिए कहा जा रहा है कि राष्ट्रपति पद का इस्तेमाल पक्षपातपूर्ण तरीके से किया जा रहा है। यूं भी राष्ट्रपति का बयान ऐसे वक्त में आया है जिस दिन बीजेपी ने आरजी कर मेडिकल कॉलेज की घटना को लेकर बंगाल बंद का आह्वान किया था और ममता बनर्जी के इस्तीफे की मांग की थी।
याद दिला दें कि जब 2012 में निर्भया कांड हुआ था तो पूरी दिल्ली में जबरदस्त विरोध प्रदर्शन हुए थे और उससे तत्कालीन शीला दीक्षित सरकार और केंद्र की यूपीए सरकार हिल उठी थी। इन प्रदर्शनों की अगुवाई बीजेपी और आरएसएस ने की थी। इसके बाद हुए दिल्ली चुनाव और लोकसभा चुनाव दोनों सरकारें हार गई थीं।
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भारतीय जनता पार्टी पश्चिम बंगाल में किसी न किसी बहाने से राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग करती रही है और अब उसने बहाना बनाया है कि राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है और महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ते जा रहे हैं।
पश्चिम बंगाल की स्थिति को लेकर राष्ट्रपति की सहानुभूति की पृष्ठभूमि के संकेत पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सी वी आनंद बोस के रवैये से भी मिलते हैं। राज्यपाल 19 अगस्त को दिल्ली में थे और उन्होंने राष्ट्रपति और केंद्रीय गृह मंत्रालय से मुलाकात की। वे पहले ही आर जी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में हड़ताली जूनियर डॉक्टरों से मिल चुके थे, जहां 9 अगस्त को कथित तौर पर एक सिविक पुलिस स्वयंसेवक ने बलात्कार के बाद एक जूनियर महिला डॉक्टर की हत्या कर दी थी।
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लेकिन, राष्ट्रपति के इस लेख को बिना किसी संदर्भ से पढ़ने से ऐसी आशंकाएं नहीं उभरतीं। राष्ट्रपति के इस हृदयस्पर्शी लेख को 10 बिंदुओं में बांट सकते हैं।
कोलकाता में एक डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या की वीभत्स घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। जब मुझे इस बारे में पता चला तो मैं स्तब्ध और भयभीत हो गई। इससे भी ज़्यादा निराशाजनक बात यह है कि यह अपनी तरह की एकमात्र घटना नहीं थी; यह महिलाओं के खिलाफ़ अपराधों की एक श्रृंखला का हिस्सा है। कोलकाता में जब छात्र, डॉक्टर और नागरिक विरोध प्रदर्शन कर रहे थे, तब भी अपराधी दूसरी जगहों पर घात लगाए बैठे थे। पीड़ितों में केजी में पढ़ने वाली बच्चियां भी हैं।
कोई भी सभ्य समाज बेटियों और बहनों के साथ इस तरह के अत्याचार की अनुमति नहीं दे सकता। देश का गुस्सा फूटना तय है, मुझे भी गुस्सा आया है।
हाल ही में, मैं एक उस समय बेहद दुविधा में आ गई थी जब राष्ट्रपति भवन में रक्षा बंधन मनाने आए कुछ स्कूली बच्चों ने मुझसे मासूमियत से पूछा कि क्या उन्हें भरोसा दिया जा सकता है कि भविष्य में निर्भया जैसी घटना नहीं होगी। मैंने उनसे कहा कि वैसे सरकार हर नागरिक की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन आत्मरक्षा और मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण सभी के लिए, खासकर लड़कियों के लिए, उन्हें मजबूत बनाने के लिए आवश्यक है। लेकिन यह उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं है क्योंकि महिलाओं को कई तरह से नुकसान पहुंचाया जा सकता है।
जाहिर है, इस सवाल का पूरा जवाब सिर्फ़ हमारे समाज से ही मिल सकता है। हमने कहाँ गलती की है? और हम गलतियों को दूर करने के लिए क्या कर सकते हैं? इस सवाल का जवाब खोजे बिना, हमारी आधी आबादी उतनी आज़ादी से नहीं जी सकती जितनी दूसरी आधी आबादी।
हमारे संविधान ने महिलाओं सहित सभी को समानता दी गई है, जबकि दुनिया के कई हिस्सों में यह केवल एक आदर्श था। सरकार ने तब इस समानता को स्थापित करने के लिए संस्थाओं का निर्माण किया, जहां भी आवश्यकता हुई, और इसे कई योजनाओं और पहलों के माध्यम से बढ़ावा दिया। नागरिक समाज आगे आया और इस संबंध में सरकार के प्रयासों को आगे बढ़ाया। समाज के सभी क्षेत्रों में दूरदर्शी नेताओं ने लैंगिक समानता के लिए जोर दिया।
महिलाओं को अपनी जीती हुई हर इंच ज़मीन के लिए लड़ना पड़ा है। सामाजिक पूर्वाग्रहों के साथ-साथ कुछ रीति-रिवाज़ों और प्रथाओं ने हमेशा महिलाओं के अधिकारों के विस्तार का विरोध किया है। यह एक बहुत ही निंदनीय मानसिकता है। मैं इसे पुरुष मानसिकता नहीं कहूंगी, क्योंकि इसका व्यक्ति के लिंग से कोई लेना-देना नहीं है: ऐसे बहुत से पुरुष हैं जिनमें यह नहीं है। यह मानसिकता महिला को कमतर इंसान, कम शक्तिशाली, कम सक्षम, कम बुद्धिमान के रूप में देखती है। ऐसे विचार रखने वाले लोग महिला को एक वस्तु के रूप में देखते हैं।
दिसंबर 2012 में, हमारा इस सोच से सामना हुआ था जब एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी गई। सदमे और गुस्से का माहौल था। हमने तय किया था कि किसी और निर्भया के साथ ऐसा न हो। राष्ट्रीय राजधानी में उस त्रासदी के बाद से बारह वर्षों में, इसी तरह की अनगिनत त्रासदियां हुई हैं, हालांकि केवल कुछ ने ही पूरे देश का ध्यान खींचा। ये भी जल्द ही भुला दी गईं। क्या हमने कोई सबक सीखा?
जैसे-जैसे सामाजिक विरोध कम होते गए, ये घटनाएं सामाजिक स्मृति के गहरे और दुर्गम कोने में दब गईं, जिन्हें केवल तभी याद किया जाता है जब कोई और जघन्य अपराध होता है। मुझे डर है कि यह सामूहिक भूलने की बीमारी उतनी ही घृणित है जितनी कि मैंने जिस मानसिकता की बात की थी वह। अब समय आ गया है कि न केवल इतिहास का सामना किया जाए, बल्कि अपनी आत्मा में झांककर महिलाओं के खिलाफ अपराध की विकृति की गहनता से जांच की जाए।
मेरा दृढ़ विश्वास है कि हम इस तरह के अपराध को नहीं भूलेंगे। हमें इस विकृति से व्यापक तरीके से निपटना चाहिए ताकि इसे शुरू में ही रोका जा सके। हम ऐसा तभी कर सकते हैं जब हम पीड़ितों की यादों का सम्मान करें और उन्हें याद करने की एक सामाजिक संस्कृति विकसित करें ताकि हमें अतीत में हमारी असफलताओं की याद आए और हम भविष्य में और अधिक सतर्क रहें।
हमारी यह जिम्मेदारी है कि हम अपनी बेटियों के भय से मुक्ति पाने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करें। फिर हम सब मिलकर अगले रक्षाबंधन पर उन बच्चों की मासूम जिज्ञासाओं का दृढ़ता से उत्तर दे सकेंगे। आइये हम सब मिलकर कहें कि बस, बहुत हो गया।
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राष्ट्रपति का पूरा भाषण इस ट्वीट में दिए गए नोट में पढ़ा जा सकता है।
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