लोकसभा चुनाव में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद समाजवादी पार्टी उपचुनाव के सहारे बहुजन समाजवादी पार्टी से पूराना हिसाब चुकाने में लगी हुई है। समाजवादी पार्टी जानती है कि अगर 2022 में जीत का स्वाद चखना है तो उसे बीएसपी से आगे रहना पड़ेगा। इसीलिए उसने बीएसपी के असंतुष्ट पिछड़ों और मुस्लिमों को पार्टी में शामिल कराना शुरू कर दिया है। अभी हाल में बीएसपी के प्रदेश अध्यक्ष रहे दयाराम पाल, मऊ के पूर्व जिलाध्यक्ष अशोक गौतम, हरिनाथ प्रसाद, पूर्व एमएलसी अतहर खान और जगदीश राजभर को अपनी पार्टी में शामिल कर अखिलेश ने बीएसपी को बड़ा संदेश देने का प्रयास किया है।
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इसके अलावा, अभी हमीरपुर सीट पर हुए उपचुनाव का परिणाम भी समाजवादी पार्टी को राहत देने वाला ही था। समाजवादी पार्टी ने भले ही इस सीट पर जीत न दर्ज की हो, लेकिन 2017 में हासिल वोटों की तुलना में इस बार वोटों में अधिक गिरावट नहीं थी। पहली बार उपचुनाव में उतरी बीएसपी को तीसरे स्थान पर पहुंचाने में भी समाजवादी पार्टी कामयाब हुई है। बीएसपी का दलित-मुस्लिम फार्मूला भी बेअसर दिखा। समाजवादी पार्टी इसे अपने लिए एक अच्छे संकेत मान रही है।
उपचुनाव में जातिगत समीकरणों का ध्यान रखा जा रहा है। बूथ मैनेंजमेंट का जिम्मा अखिलेश यादव ने खुद संभाल रखा है। इसी कारण उन्होंने संगठन की घोषणा टाल दी है। वह उपचुनाव से पहले कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते हैं।
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समाजवादी पार्टी के एक बड़े नेता ने नाम जाहिर न करने की शर्त पर कहा, “जहां उपचुनाव हो रहे हैं, वहां पार्टी ने बीएसपी से असंतुष्ट नेताओं को अपने पाले में लाने को कहा है। साथ ही बीएसपी की सोशल इंजीनियरिंग को कैसे फेल करें, इस पर हमारी नजर है।”
उन्होंने कहा, “उपचुनाव के परिणाम संगठन के पुनर्गठन में काफी निर्णायक होंगे। यहां पर अच्छा प्रदर्शन करने वाले लोगों को ही पार्टी में जगह मिलेगी, इसलिए यह चुनाव हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इन्हीं चुनाव के माध्यम से हमारा 2022 का रास्ता तय होगा।”
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उन्होंने बताया, “अभी काफी संख्या में बीएसपी के बड़े और काडर बेस नेता समाजवादी पार्टी में आना चाहते हैं। एक बात तो तय हैं कि हमीरपुर के चुनाव परिणाम से बीएसपी को अपनी धोखानीति का सबक मिला है। यह सिलसिला अब 2022 तक थमने वाला नहीं है। बीजेपी ने भी जीत हासिल करने के लिए ज्यादातर दूसरे दलों के नेताओं को अपने यहां शामिल कराकर कामयाबी पाई है। उन्हें दूसरे दलों के नेताओं कारण ही जीत मिली है। इस फार्मूले को हम लोग क्यों नहीं अपना सकते।”
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वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रतनमणि लाल ने बताया, “समाजवादी पार्टी के अंदर इस बात पर तल्खी देखने को मिलती है। बसपा के साथ समझौते से उन्हें अपेक्षाकृत लाभ नहीं हुआ, इसीलिए वह बीएसपी को कमजोर करने का प्रयास करेंगे। अखिलेश यादव सोच रहे थे कि लोकसभा चुनाव में गठबंधन से फायदा समाजवादी पार्टी को होगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। अखिलेश यादव अपने पिछड़े वोट को बीजेपी में जाने से नहीं रोक पाए।”
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उन्होंने कहा, “अखिलेश के सलाहकारों ने शायद उन्हें यह सलाह दी हो कि समाजवादी पार्टी के जो लोग बीएसपी में हैं, उन्हें पहले अपने पाले में लाया जाए। साथ ही बीएसपी के उन असंतुष्ट लोगों को भी पार्टी में शमिल कराएं, जिनके दम पर बीएसपी कभी राजनीतिक रूप से मजबूत थी। इसी कारण अखिलेश बीएसपी के मजबूत वोटबैंक को अपने पक्ष में करना चाहते हैं। समाजवादी पार्टी और बीएसपी को उन्हीं की हथियार से कमजोर करने का प्रयास कर रही है।”
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रतनमणि लाल ने बताया कि मायावती के वफादार लोग समाजवादी पार्टी में नहीं आएंगे। समाजवादी पार्टी उन लोगों पर नजर बनाए हुए है, जो बीएसपी में बढ़ते हुए मुस्लिम और दलित के वर्चस्व से परेशान हैं और बीजेपी में जाने से बच रहे हैं। समाजवादी पार्टी भी अब अकेले अल्पसंख्यकों के भरोसे रहने वाली नहीं है, इसी कारण पिछड़े वोटों की सेंधमारी की फिराक में है।
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