‘आधार’ के आधार पर अदालत तक में उठे तमाम शोरगुल में तरह-तरह की आशंकाएं जताई गईं। याचिकाकर्ता ने डाटा की सुरक्षा पर सवाल खड़े किए और इसे निजता का उल्लंघन भी करार दिया। लेकिन यूआईडीएआई ने इसके बचाव में सारे घोड़े खोल दिए। बहरहाल, मुद्दा समाज के लिए अहम था, इसलिए इसे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में सामने रखने की जरूरत महसूस करते हुए <b>इंस्टीट्यूटऑफ मैनेजमेंट, अहमदाबाद </b>में अर्थशास्त्र और पब्लिक सिस्टम ग्रुप में <b>एसोसिएट प्रोफेसर रीतिका खेड़ा </b>ने तमाम विशेषज्ञों के लेखों को एक पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया। यह पुस्तक बताती है कि निजी संवेदनशील सूचनाओं के साथ कैसा खिलवाड़ किया जा रहा है। हम आज से अगले कुछ दिनों तक इस पुस्तक के चंद लेखों के संपादित अंश आपके सामने रखेंगे। सबसे पहले रीतिका खेड़ा का लेख:
यूआईडी परियोजना के समर्थकों का दावा है कि भारतवासियों की एक बड़ी संख्या को कल्याण योजनाओं का लाभ इसलिए नहीं मिला क्योंकि लोगों के पास अपनी पहचान का कोई दस्तावेज नहीं था। यदि, जैसा कि सरकार का दावा है, पहचान स्थापित करने के मौजूदा तरीकों का विस्तार अधूरा था, तो इन्हीं में विस्तार करके व्यापक क्षेत्र में इनके प्रयोग को सुनिश्चित किया जा सकता था। किंतु इस विकल्प को इस आधार पर नामंजूर कर दिया गया कि मौजूदा डाटाबेस में गंभीर कमियां मौजूद हैं।
नाम दर्ज करने और आधार क्रमांक आवंटित करने के लिए भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) का गठन किया गया । राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के अतिरिक्त, यूआईडीएआई से सीधे आधार क्रमांक प्राप्त करने के लिए नाम दर्ज कराने के दो तरीके हैं: पहला, यूआईडीएआई द्वारा निर्धारित की गई सूची (जिसमें पासपोर्ट, राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, इत्यादि शामिल हैं) में से पहचान के प्रमाण और आवास स्थल के प्रमाण के प्रयोग द्वारा, दूसरा: ‘पहचानकर्ता’ प्रणाली के प्रयोग द्वारा। इसका निर्धारण उन लोगों को ध्यान में रख कर किया गया था जिनके पास पहले से कोई पहचान पत्र मौजूद नहीं है।
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आधार परियोजना के समर्थन में एक और तर्क दिया जाता है कि इससे नरेगा, पीडीएस और पेंशन जैसे कल्याण कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार कम होगा। इन कार्यक्रमों में होने वाली धोखाधड़ी को व्यापक रूप से ‘पात्रता-सबंधी धोखाधड़ी’, ‘पहचान-संबंधी धोखाधड़ी’ और ‘मात्रा संबंधी धोखाधड़ी’ के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। पात्रता-संबंधी धोखाधड़ी का अर्थ है, उन लोगों को शामिल करना जो सरकार द्वारा निर्धारित पात्रता की शर्तों को पूरा नहीं करते, जैसे कि जाली दस्तावेजों द्वारा पात्रता सिद्ध करना। मात्रा- संबंधी धोखाधड़ी में योग्य व्यक्तियों को उनके अधिकार से कम सुविधाएं दी जाती हैं, जैसे पीडीएस में नियत मात्रा से कम अनाज दिया जाता है; मिड-डे मील योजना में पोषण के नियत मानकों को कम कर दिया जाता है।
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पहचान-संबंधी धोखाधड़ी में ऐसे मामले आते हैं जिनमें एक व्यक्ति के हित लाभों को धोखे से दूसरा व्यक्ति हड़प लेता है। पीडीएस में , कई अधिकारी किसी ऐसे व्यक्ति के नाम से राशन कार्ड लेकर, जो मौजूद नहीं है या जिसकी मृत्यु हो चुकी है, अथवा केवल एक कार्ड लेने के हकदार के नाम पर दो कार्ड लेकर सरकार को धोखा देते हैं। मिड-डे मील योजना में, अधिक संख्या में उपस्थिति दिखाकर पहचान-संबंधी धोखाधड़ी की जाती है।
बायोमीट्रिक तकनीक से, इसकी विश्वसनीयता को यदि मानें, पहचान-संबंधी धोखाधड़ी को समाप्त करने में मदद मिल सकती है। लेकिन इससे मात्रा संबंधी धोखाधड़ी या पात्रता –संबंधी धोखाधड़ी के परिमाणस्वरूप होने वाले भ्रष्टाचार के संबंध में बहुत सीमित प्रमाण मिलते हैं, किंतु जो भी प्रमाण उपलब्ध हैं, उनसे पता चलता है कि देश की सबसे बड़ी समस्या मात्रा-संबंधी धोखाधड़ी है। अत: सरकारी सूचनाओं के विपरीत, भ्रष्टाचार को रोकने में आधार नगण्य भूमिका निभा सकता है।
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आधार-समेकन की योजना दो तरीके से बनाई जाती है। एक, ‘आधार-सीडिंग’ द्वारा, जिसका तात्पर्य है कि इन कार्यक्रमों का क्रियान्वयन करने के लिए प्रयोग किए जाने वाले सॉफ्टवेयर में आधार क्रमांक दर्ज करने के लिए एक डाटा फील्ड जोड़ा जाता है। इसे एक बार की जाने वाली गतिविधि माना जाता है, किंतु यह उतनी आसान नहीं है जितनी दिखती है। प्रत्येक योजना के लिए, प्रत्येक हकदार व्यक्ति को इसके बारे में सूचित करना होगा, जिसके लिए कई प्रकार के समर्थक दस्तावेजों की जरूरत हो सकती है, नंबर दर्ज करने में गलती हो सकती है, इत्यादि।
इसके अतिरिक्त, कई मामलों में –बायोमीट्रिक सूचनाओं को दोबारा दर्ज करना जरूरी हो जाता है क्योंकि उंगली की छाप या आंख की पुतली का स्कैन पुराना हो जाता है। दूसरा, आधार बेस्ड बायोमीट्रिक प्रमाणीकरण के लिए एक पॉइंट ऑफ सेल (पीओएस) मशीन स्थापित की जाती है, जिसमें उंगली की छाप को पढ़ने वाला उपकरण लगा होता है, जिससे अपनी हकदारी के लिए आने वाले व्यक्ति की पहचान को हर बार प्रमाणित किया जाता है।
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पीडीएस में हकदार परिवारों को पीडीएस दुकानों से राशन (मुख्यरूप से गेहूं और चावल) कम दामों पर उपलब्ध कराया जाता है। पीडीएस में होने वाले भ्रष्टाचार गंभीर समस्या है। इसमें निम्नलिखित शाामिल हैं- पहचान- संबंधी धोखाधड़ी (नकली, जाली, गैर-मौजूद लोगों के पहचान पत्र इत्यादि), मात्रा-संबंधी धोखाधड़ी (कम तौलना) और पात्रता-संबंधी धोखाधड़ी तथा लोगों के छूट जाने की गलती इत्यादि शामिल हैं, जिन्होंने पीडीएस को मुश्किल में डाल दिया है।
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एक अनुमान के अनुसार, 2000 के दशक के आरंभ में लगभग पचास फीसदी गरीबों के पास स्वयं को गरीबी की रेखा से नीचे (बीपीएल) प्रमाणित करने वाला राशन कार्ड नहीं था। पीडीएस अन्य समस्याओं (जैसे अधिक मूल्य लेना, खराब अनाज) से भी ग्रसित है जिसके बारे में लिखित प्रमाण कम उपलब्ध है। 2013 में एनएफएसए पारित हो जाने के बाद, पीडीएस का ग्रामीण क्षेत्रों में 75 प्रतिशत जनसंख्या तक, और शहरी क्षेत्रों में 50 प्रतिशत जनसंखया तक, विस्तार करने का प्रावधान था। परिवारों की दो श्रेणियां निधारित की गई ; ‘प्राथमिकता’, जिसमें प्रति व्यक्ति प्रति माह 5 किग्रा. की हकदारी और‘अंतोदय’ जिसमें प्रति परिवार प्रतिमाह 35 किग्रा. अनाज की हकदारी निर्धारित की गई ।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू करने के तत्काल बाद 7 नवंबर, 2014 को आधार को पीडीएस के साथ जोड़ने के आदेश जारी किए गए। विभिन्न राज्यों में इसका क्रियान्वयन भिन्न-भिन्न अवस्थाओं पर है।
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राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू करने से पहले यह पता नहीं था कि पहचान- संबंधी धोखाधड़ी किस हद तक फैली हुई थी। आधार को पीडीएस से जोड़ने की पैरवी के लिए सरकार द्वारा अधिकतर ‘नकली’ और‘जाली’ किस्सों का ही उल्लेख किया जाता था। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने पर प्राप्त प्रमाणों से पता चला कि जिन राज्यों, जैसे बिहार, झारंखड और पश्चिम बंगाल, में सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) के आंकड़ों का प्रयोग किया गया था, वहां पहचान-संबंधी धोखाधड़ी लगभग नहीं हुई थी। स्वयं सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) में भी लोगों को बाहर करने की गलतियां हुई थीं (जैसे, कुछ बस्तियों को शामिल नहीं किया गया या परिवारों के कुछ व्यक्तियों को गिना ही नहीं गया था।
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दूसरे राज्यों में जहां एसईसीसी का प्रयोग नहीं हुआ, उनके बारे में अभी तक हमें यह जानकारी नहीं है कि वहां पहचान संबंधी धोखधड़ी किस सीमा तक की जाती है। सरकार का दावा है कि ‘2016-17 तक 2.33 करोड़ राशन कार्ड डिलीट करके और लाभार्थियों का योजनाबद्ध तरीके से निर्धारण करके’ पीडीएस में 14,000 करोड़ रुपये की बचत हुई। संसद में उत्तरित प्रश्नों से, तथापि पता चलता है कि ये दावे झूठे थे। आंशिक रूप से इसका कारण यह था कि इन नामों को अपात्रता के कारण डिलीट किया गया था- सरकार ‘अपात्र कार्डों’ या ‘पात्रता संबंधी धोखाधड़ी’ और पहचान-संबंधी धोखाधड़ी में भेद नहीं करती है।
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