पश्चिम बंगाल के हिंदीभाषी वोटर क्या मौजूदा विधानसभा चुनाव में बीजेपी को खुल कर समर्थन देंगे? राज्य में हिंदीभाषियों की बड़ी तादाद को ध्यान में रखते हुए सत्ता के दोनों दावेदारों यानी सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस औऱ उसे चुनौती देने वाली बीजेपी लंबे अरसे से इन वोटरों को लुभाने की कवायद करती रही हैं। बीते लोकसभा चुनाव में इन हिंदीभाषी वोटरों के बड़े तबके ने बीजपी का समर्थन किया था और इसका फायदा बीजेपी को मिला भी था। खासकर आसनसोल और उत्तर बंगाल इलाके में उसे मिली कामयाबी के पीछे इस तबके का ही हाथ माना गया था। लेकिन लोकसभा और विधानसभा चुनाव के फर्क को ध्यान में रखते हुए एक बार फिर यह सवाल प्रासंगिक हो गया है कि क्या यह तबका इस बार भी बीजेपी को समर्थन देगा? हालांकि वर्ष 2016 तक इसके एक छोटे से हिस्से को छोड़ कर ज्यादातर लोग ममता और उनकी पार्टी का ही समर्थन करते रहे हैं। उससे पहले यह तबका लेफ्ट के साथ खड़ा था। लेकिन, राज्य में तेजी से बदलती राजनीतिक तस्वीर को ध्यान में रखते हुए इस तबके का समर्थन मौजूदा चुनाव में बेहद अहम हो गया है।
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दरअसल, राज्य में हिंदीभाषी वोटरों की तादाद इतनी ज्यादा है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी इनकी अनदेखी का खतरा नहीं मोल ले सकती। बंगाल की करीब 11 करोड़ की आबादी में सवा करोड़ से ज्यादा हिंदी भाषी हैं। राज्य में खासकर आसनसोल, बैरकपुर, श्रीरामपुर, उत्तर कोलकाता, हावड़ा, दमदम, कूचबिहार, जलपाईगुड़ी, अलीपुरदुआर, दुर्गापुर, जादवपुर व दार्जिलिंग इलाकों में 70 से 80 ऐसी सीटें हैं जहां इस तबके के वोट निर्णायक हैं। हुगली नदी के दोनों किनारे जूट मिल इलाकों में हिंदीभाषियों की खासी आबादी है। हिंदीभाषी-बहुल विधानसभा क्षेत्रों में लगभग 35 फीसदी वोटर हिंदीभाषी ही हैं, लेकिन इस तथ्य के बावजूद लेफ्ट से लेकर टीएमसी तक के शासनकाल में राजनीतिक दलों और सत्ता में इस तबके के लोगों का प्रतिनिधत्व बेहद मामूली रहा है। यही वजह है कि बीजेपी इस तबके के असंतोष का सियासी फायदा उठाने की कवायद में जुटी है।
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बंगाल में हिंदी भाषियों के एक संगठन राष्ट्रीय भोजपुरिया एकता मंच के महासचिव त्रिभुवन मिश्रा का कहना है कि बंगाल में हिंदी भाषा-भाषियों की बड़ी आबादी है. बावजूद इसके उनको सही अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है. अपने हक के लिए हिंदी भाषियों को संगठित होना होगा। दूसरी ओर, इस तबके की नाराजगी दूर कर उनको अपने पाले में खींचने के लिए ममता बनर्जी सरकार ने भी बीते करीब छह महीने से कई कदम उठाए हैं। इनमें हिंदी पुरोहितों को भत्ता देने के अलावा हिंदी भाषी वोटरों को अपने साथ जोड़ने के लिए तृणमूल कांग्रेस की हिंदी सेल का गठन तक शामिल है। पश्चिम बंगाल हिंदी समिति का विस्तार करते हुए कई नए सदस्यों और पत्रकारों को इसमें शामिल किया गया है। वर्ष 2011 में पुनर्गठित हिंदी अकादमी में 13 सदस्य थे, यह तादाद अब बढ़ा कर 25 कर दी गई है। ममता पूर्वी भारत का पहला हिंदी विश्वविद्यालय शुरू करने का भी ऐलान कर चुकी हैं। साथ ही उन्होंने छठ पूजा के मौके पर दो दिनों की सरकारी छुट्टी भी घोषित कर दी है।
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राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बीजेपी के बढ़ते खतरे को ध्यान में रखते हुए ही ममता बनर्जी ने ताबड़तोड़ फैसले किए। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि उनके तमाम फैसले हिंदू, हिंदी और आदिवासियों से जुड़े हैं जिन्होंने बीते लोकसभा चुनाव में बीजेपी को जमकर समर्थन दिया था। ममता बनर्जी इससे पहले हमेशा बंगाली अस्मिता और संस्कृति की बात उठाती रही हैं। पहली बार उन्होंने हिंदीभाषियों और दलितों का सवाल उठाया है। राजनीतिक पर्यवेक्षक विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, “इन फैसलों का मकसद बीजेपी खेमे में जाने वाले हिंदू वोटरों को अपने पाले में खींचना है। यह तो वक्त ही बताएगा कि पार्टी को इसका कितना सियासी फायदा मिलेगा।”
बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष कहते हैं, “तृणमूल कांग्रेस बंगाल में बीजेपी के बढ़ते असर से डर गई है। इसी वजह से उन्होंने हिंदू और हिंदीभाषियों के वोटरों को लुभाने के लिए तमाम फैसले किए हैं। लेकिन राज्य के लोग इस सरकार की हकीकत समझ गए हैं। उनको अब ऐसा चारा फेंक कर मूर्ख नहीं बनाया जा सकता।” आरएसएस के वरिष्ठ नेता जिष्णु बसु का कहना है कि अगर सरकार हिंदुओं की सहायता ही करना चाहती थी तो वह राज्य के विभिन्न इलाकों में हिंसा में मरने वालों के परिजनों को सहायता दे सकती थी।
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वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले ममता ने कहा था कि जो बंगाल में रहने वाले को बांग्ला सीखनी होगी। इसके बाद बीजेपी ने आरोप लगाया था कि ममता बंगाली और गैर-बंगाली लोगों को आपस में भिड़ाना चाहती हैं। बंगाल की सियासत पर नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार पुलकेश घोष कहते हैं, “2019 के लोकसभा चुनावों में प्रदेश के हिंदी भाषी लोगों का ज्यादा वोट बीजेपी की तरफ गया था, लेकिन हिंदीभाषियों की अच्छी-खासी तादाद ममता समर्थक भी है।”
राजनीतिक पर्यवेक्षक प्रोफेसर पार्थ चटर्जी का कहना है, “हिंदीभाषियों में बीजेपी के प्रति सहानुभूति जरूर है, लेकिन ममता बनर्जी ने बीते दस साल में ऐसा कोई काम नहीं किया है जिससे इस तबके में नाराजगी बढ़ी हो। ऐसे में इस तबके के ज्यादातर लोग मानते हैं कि केंद्र में मोदी ठीक हैं और बंगाल में दीदी।” लेकिन क्या उनकी यह राय विधानसभा चुनाव में तृणमूल के लिए वोटों में भी बदलेगी। इस सवाल का जवाब तो दो मई को ही मिलेगा।
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