बिहार में प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग- दोनों की तैयारियों के एक से बढ़कर एक उदाहरण सामने आ रहे हैं। ऐसी खबरों से पढ़े-लिखे लोग जहां सहमे हुए हैं, वहीं एक बड़ी आबादी इसे मजाक बनाए बैठी है। कौन-सा उदाहरण बड़ा और ज्यादा खतरनाक है, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है।
तीन दिन पहले 21 मार्च को पटना एम्स में एक व्यक्ति की मौत हो गई। पहले अस्पताल प्रशासन ने उसे आइसोलेशन में रखा था, लेकिन मौत के बाद प्रशासन ने उसके शव को वैसे ही सामान्य तरीके से ले जाने दिया, वह भी तब जबकि उसकी कोरोना वायरस की जांच रिपोर्ट तब तक नहीं आई थी।शव मरने वाले के घर मुंगेर चला गया, तो तब 22 मार्च को सामने आया कि वह कोरोना वायरस से संक्रमित था।
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यह उदाहरण बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था की तत्परता और संवेदनशीलता का एक नमूना है। इससे पहले प्रशासनिक व्यवस्था की हकीकत खोलता हुआ यह व्यक्ति खाड़ी देश से कोलकाता के रास्ते मुंगेर आया और यहां प्राइवेट अस्पतालों में इलाज नहीं मिलने पर पटना के एक निजी अस्पताल होकर राज्य के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल- पटना मेडिकल काॅलेज और अस्पताल (पीएमसीएच) पहुंचा और फिर वहां से एम्स में आया। कोरोना वायरस को लेकर इतने शोर के बावजूद न तो सरकार की संदिग्ध सूची में उसका नाम आया और न ही उसे लेकर कोई ताकीद की गई।
जीवित रहने के दौरान ट्रेन, अस्पताल-दर-अस्पताल में रहने के दौरान और फिर मौत के बाद भी जारी संपर्क के कारण उससे कितने लोग संक्रमित हुए होंगे, इसका पता लगाना सबसे ज्यादा जरूरी था। इसके लिए इस व्यक्ति की जानकारी का ज्यादा-से-ज्यादा प्रचार-प्रसार करने की जरूरत थी। लेकिन उसकी जगह बिहार की नीतीश सरकार ने मरीज की जानकारी सार्वजनिक नहीं करने समेत कई नियमों का हवाला देकर उसका नाम तक छापने से मीडिया को रोक दिया।
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लॉकडाउन से बिहार में अखबार मुक्त तो रखे गए हैं, लेकिन उन्हें ताकीद की गई है कि कोरोना से संबंधित किसी मरीज के मरने पर भी उससे संबंधित जानकारी नहीं छापी जाए। यानी, मरने वाले के संपर्क में आए लोगों को ढूंढ़ने का काम सिर्फ सरकार करेगी और सरकार के तंत्र का आलम यह है कि उसे पटना में इटली-ईरान से आए दर्जनभर लोगों के राजधानी में एक जगह जमा होने की जानकारी आम आदमी गुस्से में दे रहा, तब भी सैनेटाइज की हुई गाड़ी उन्हें ले जाने नहीं पहुंचती है।
सरकार के उलट कोरोना से बचने के लिए अधिक जागरुक यहां के लोग फेसबुक और वाट्सएप के जरिये यह लिखने को विवश हैं कि किसी खास इलाके के फलां अपार्टमेंट में कोरोना संदिग्ध की जानकारी सरकार के टोल फ्री नंबर 104 पर सूचना देने के बावजूद घंटों बाद भी कोई जांच करने तक नहीं आ रहा है।
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नीतीश सरकार ने कोरोना पॉजिटिव मरीजों को रखने के लिए राजधानी के एक बंद होटल समेत दो भवनों को आइसोलेशन सेंटर में तब्दील तो कर दिया है, लेकिन उसकी रिपोर्ट में पहला पॉजिटिव भी मरने के बाद सामने आता है। इसके अलावा राज्य के जिला अस्पतालों में आईसीयू की व्यवस्था छपरा, मुंगेर-जैसे कुछ जिलों में ही है।
इसके अलावा राज्य में आइसोलेटेड बेडों की संख्या भी 400 तक नहीं पहुंच सकी है। 37 जिलों में 5 से 10 के हिसाब से बेड की व्यवस्था का दावा किया जा रहा है। इसके अलावा 7 मेडिकल कॉलेजों में 10 से 20 बेड की व्यवस्था का स्वास्थ्य मंत्री का दावा है। यानी, सारी ताकत झोंकने के बावजूद 500 से ज्यादा आइसोलेटेड बेड की व्यवस्था नीतीश सरकार के लिए मुश्किल है। इसके कारण ही जांच और स्क्रीनिंग की गति भी यहां कमजोर है। नेपाल बॉर्डर, पटना और गया एयरपोर्ट पर स्क्रीनिंग के दावों से खुद को प्रयासरत दिखा रही नीतीश सरकार के पास राजधानी तक में स्क्रीनिंग के लिए तत्पर टीम नहीं है।
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सरकार के इस तरह के ढुलमुल रवैये के कारण ही 22 मार्च को जनता कर्फ्यू की शाम भारी संख्या में लोग सड़कों पर निकल आए। केंद्र की ओर से मुख्य सचिवों को लॉकडाउन की ताकीद के बाद नीतीश सरकार ने बिहार में इसकी घोषणा तो की लेकिन उसकी हकीकत 23 मार्च को सुबह से ही दिखती रही। लोग सड़कों पर निकलने से परहेज नहीं कर रहे थे, क्योंकि उन्हें जागरूक करने के लिए राज्य सरकार सिर्फ अखबारों में विज्ञापन देकर रह गई। रैलियों में आज भी लाउडस्पीकर से प्रचार करवाने वाले राजनीतिक दलों के दिग्गजों ने सरकार में रहते हुए इस महामारी के दौरान इसकी जरूरत तक नहीं समझी।
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