चुनीलाल 1989 में 32 साल के थे जब कश्मीर में उग्रवाद ने अपना शिकंजा कसा। कश्मीर छोड़कर भाग खड़े होने वाले दूसरे हजारों पंडितों के उलट उन्होंने घाटी नहीं छोड़ी। इतने साल वह हब्बाकदल इलाके में रहे जहां चारों ओर मुस्लिम परिवार हैं।
चुनीलाल कहते हैं, ‘मैंने अगर कश्मीर नहीं छोड़ा तो कश्मीरी मुस्लिम भाइयों की वजह से। मुझे मजहब के आधार पर कभी किसी तरह के भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा। न तो इतने सालों के दौरान किसी ने मुझे धमकाया। किसी भी दूसरे इंसान की तरह मैं खुलकर घूमता हूं।’ चुनीलाल अपनी पत्नी और बेटे के साथ रहते हैं। उनका 25 साल का बेटा श्रीनगर में रहते हुए बड़ा हुआ, वहीं पढ़ाऔर अब वहीं एक निजी कंपनी में नौकरी कर रहा है।
चुनीलाल की तरह सैकड़ों कश्मीरी पंडित हैं जो मुस्लिम पड़ोसियों से घिरे होने के बाद भी सुख-चैन से रह रहे हैं और इनमें से कोई भी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ से खुश नहीं। इस फिल्म ने न सिर्फ और जगहों पर मुस्लिमों की जान को खतरे में डाल दिया है बल्कि कश्मीर में भी इसने अमन-चैन और कश्मीरी पंडितों के लिए जोखिम पैदा कर दिया है। चुनीलाल कहते हैं, ‘कश्मीर में संघर्ष का खामियाजा सभी समुदायों ने भुगता है। अगर मैं पंडितों के हालात के लिए मुस्लिमों को जिम्मेदार कहूं तो यह गलत होगा। जितना हिन्दुओं को सहना पड़ा, उतना ही मुस्लिमों को भी। फर्क सिर्फ इतना है कि हम (पंडित) अल्पसंख्यक हैं और इस नाते हममें खौफ ज्यादा था।’ चुनीलाल हिन्दू वेलफेयर सोसाइटी ऑफ कश्मीर के प्रेसिडेंट भी हैं। 808 परिवार ऐसे हैं जिन्होंने घाटी नहीं छोड़ी और वे कश्मीर में दूसरे समुदायों की तरह ही अमन-चैन से रह रहे हैं।
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चुनीलाल कहते हैं कि ‘कश्मीर में जिस तरह का सांप्रदायिक भाईचारा है, वैसा दुनिया में कहीं नहीं। हम सभी (मुस्लिम, हिन्दू और सिख) की संस्कृति एक ही है और एक-दूसरे के पर्व-त्योहार में शरीक होते हैं। मेरे हिन्दू से ज्यादा मुस्लिम दोस्त हैं। ईद पर मैं अपने दोस्तों को मुबारकबाद देता हूं और वैसे ही वे मुझे शिवरात्रि पर शुभकामनाएं देते हैं।’ चुनीलाल जम्मू कश्मीर स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (सिडको) में काम करते थे और वहां वह 25 साल तक यूनियन लीडर भी रहे। चुनीलाल इस बात से आहत हैं कि कुछ लोग घाटीमें अमन-चैन के माहौल को बिगाड़ने पर आमादा हैं और 1990 में जो कुछ हुआ, उसे सांप्रदायिक रंग देने कीकोशिश कर रहे हैं। वह कहते हैं, ‘विवेक अग्निहोत्री ने कश्मीरी पंडितों के दर्द पर फिल्म बनाई है। उन्हें पलायन नहीं करने वाले पंडितों की बात भी करनी चाहिए थी जिन्हें सालों-साल सरकारों ने नजरअंदाज किया।’
कुछ लोग इस तरह की बातें फैला रहे हैं कि कश्मीर में मुसलमानों ने पंडितों के घरों पर कब्जा कर लिया है। लेकिन चुनीलाल कहते हैं, ‘ मैं उत्तर कश्मीर के सुंबल सोनवारी का रहने वाला हूं। वहां हमारे पास घर और जमीन है। लेकिन उस पर तो किसी ने कब्जा नहीं किया।’
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सन्नी कौल भी ऐसे ही पंडित हैं जिन्होंने कश्मीर नहीं छोड़ा। उनके दो बच्चे हैं जो राज्य से बाहर काम करते हैं लेकिन सन्नी और उनकी पत्नी की यहां से जाने की कोई इच्छा नहीं। वह कहते हैं, ‘2020 में जब मेरे एक रिश्तेदार का देहांत हो गया तो पास-पड़ोस के मुसलमानों ने ही उनका अंतिम संस्कार किया। वैसे ही पिछले साल जब मुझे कोविड हो गया तो मेरे एक मुस्लिम दोस्त के बेटे ने मुझे अपनी कार में अस्पताल पहुंचाया।’ कौल भी मानते हैं कि कुछ लोग दोनों समुदायों के बीच नफरत फैलाना चाहते हैं। वह कहते हैं, ‘कुछ नेता इस नफरत का फायदा उठाना चाहते हैं।’ लेकिन बाहर रहे सन्नी के बच्चे उनकी खैरियत को लेकर फिक्रमंद रहते हैं। सन्नी कहते हैं कि ‘खौफ तो कश्मीर में हर किसी को है और यह खौफ तब तक रहेगा जब तक यहां हत्याएं नहीं रुकतीं।’
संजय टिक्कू के नेतृत्व वाली कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति ने हाल ही में ट्वीट किया- ‘कश्मीर का हर मुसलमान आतंकवादी नहीं। हर कश्मीरी पंडित सांप्रदायिक नहीं। हम दोनों एक-दूसरे की इज्जत करते हैं, एक-दूसरे से मोहब्बत करते हैं और पिछले 32 साल के दौरान हर कश्मीरी ने जो दर्द झेला, उसे साझा करते हैं। द कश्मीर फाइल्स ने यहां रहने वाले कश्मीरी पंडितों को असुरक्षित कर दिया है।’ संजय टिक्कू भी ऐसे कश्मीरी पंडित हैं जो घाटी में ही रहे। वह हब्बाकदल इलाके में रहते हैं। उनकी संस्था पलायन नहीं करने वाले कश्मीरी पंडितों के अधिकारों के लिए लड़ रही है।
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रिकन्सिलिएशन, रिटर्न एंड रिहैबिलिटेशन ऑफ माइग्रेंट्स के चेयरमैन सतीश महलदर का कहना है कि ‘उन्होंने (विवेक अग्निहोत्री ने) इस हकीकत को नजरअंदाज कर दिया कि 1989 में दिल्ली में भाजपा के समर्थन वाली वी पी सिंह की सरकार थी। उन्होंने यह भी नहीं दिखाया कि मसूद अजहर और मुश्ताक लतराम को किसने रिहा किया। उन्होंने यह भी नहीं दिखाया कि उस दौर में कश्मीरी मुसलमान और सिख भी मारे गए थे। राज्य और केन्द्र की सरकारों की नाकामी की वजह से नरसंहार हुआ। कश्मीरी पंडितों से अनुरोध किया गया कि घाटी छोड़ दें और उन्हें जम्मू में मुफ्त राशन देने का वादा किया गया। लेकिन उनके लिए कोई इंतजाम नहीं किया गया।’
सतीश ने छत्तीसिंहपुरा, कनन पोशपुरा और गौकदल में हुई हत्याओं की न्यायिक जांच कराने और दोषियों को सजा देने की मांग सरकार से की। वह कहते हैं, ‘मैं दिल्ली में रहने वाला कश्मीरी पंडित हूं और सरकार से पूछना चाहता हूं कि मैं कब कश्मीर लौट सकूंगा।’
एक अन्य कश्मीरी पंडित उमेश तलाशी ने कहा, ‘मेरे पिता को लगातार धमकी दी जा रही थी और एक बार उन पर हमला भी किया गया। हर बार उन्हें मुसलमानों ने ही बचाया। उन्होंने मेरे पिता को कई दिनों तक अपने घर में छिपाकर रखा और उन्हें सुरक्षित जम्मू ले गए। हमारे साथ जो हुआ, वह दुर्भाग्यपूर्ण है। लेकिन हम इसके लिए हर कश्मीरी मुसलमान को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते।’
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