ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने भारत को इस मामले में सबसे खराब 16 देशों में रखा है। हाल में हिन्दुस्तान टाइम्स ने खबर दी कि केन्द्र सरकार ने हंगर इंडेक्स के कुछ अंतिम परिणामों पर सवाल करने के लिए इकोनॉमिक इंटेलिजेंस यूनिट से संपर्क किया है। महिला और बाल विकास मंत्रालय ने इस किस्म का गलत दावा किया कि हंगर इंडेक्स का आकलन एक जनमत सर्वेक्षण के आधार पर किया गया। इस इंडेक्स को तैयार करने वाले दो संगठनों में से एक- जर्मनी के वेल्ट हंगर हिल्फे ने साफ किया है कि वह किसी सर्वेक्षण पर यकीन नहीं करता और यह भारत सरकार है जो अल्पपोषण (अंडरनरिशमेन्ट) और कुपोषण (अंडरन्यूट्रीशन) के अंतर और इनके खतरनाक परिणामों को लेकर भ्रम में रही है। करीब दो महीने तक देश के तीन राज्यों का दौरा करने वाले पत्रकार रोहित जैन ने जो कुछ देखा उसे देख-पढ़कर आपके आंसू निकल आएंगे
उसने कुछ भी नहीं कहा। रात के खाने में क्या पका रही हो, ऐसा सवाल पूछते हुए, मुझे खुद ही बहुत अजीब सा लगा था। क्या वह यह मानने में हिचकिचा रही थी कि उसके पास अपने और अपने तीन बच्चों के लिए पकाने को कुछ नहीं है?
तभी वह कुछ बुदबुदाई जिसे मैं ठीक से सुन नहीं पाया। उसके एक पड़ोसी ने मुझे बताया कि ‘हां, उसके पास पकाने को कुछ नहीं है।‘ इस बात से मुझे काठ मार गया। लगा कि सनमाई मूर्छा से उबरी है और उसने साफ-साफ कहा कि ‘मैं पणस (कटहल) के बीजों का संतुला (करी) बना लूंगी।’ संतुला मतलब, बिना मसाले की करी; तरकारी मतलब, मसाले वाली करी। लेकिन क्या उसके पास चावल नहीं है? करी के साथ वे लोग क्या खाएंगे? मेरे मूर्खतापूर्ण सवाल पर उसके चेहरे पर हंसी-जैसी तैरी। एक दिन पहले उसने अपने पड़ोसियों से चावल उधार मांगा था और दिन में ‘पाखल’ खाया था। पाखल मतलब, रात भर चावल को पानी में भिगो दो और फिर उबाल लो।
लेकिन क्या उसे सरकारी राशन नहीं मिलता? वह कहती है, यह पूरे महीने के लिए पूरा नहीं पड़ता। वह अधिक-से-अधिक पखवाड़े भर इसे चला पाती है। हम इस साल 22 जून को यह बातचीत कर रहे थे। इस महीने का राशन खत्म हो चुका था जबकि अगली बार 5 जुलाई को यह मिलना था।
लेकिन उसकी व्यथा-कथा कोई अजूबी नहीं है। ओडिशा के बुजीबोंग गांव में हर कोई एक ही नाव पर सवार है। कुछ लोग पास के जंगल से झाड़बेर और साग- सब्जी चुन लाते हैं। कुछ लोग कभी-कभार किसी तरह रागी (मंड़ुआ) या कुसूर (एक किस्म के बीन्स) ले आते हैं। मैंने जानना चाहा कि वह सब्जी जंगल से क्यों नहीं ले आती, तो उसकी मुस्कुराहट हटी तो नहीं, पर उसने कहा, ‘तब मैं बच्चों को कहां छोड़ आऊंगी?’ जंगल जाने-आने, वहां खाने की चीजें खोजने-जमा करने में कई घंटे लग जाते हैं। बच्चों को लेकर जाने पर रफ्तार कम हो जाएगी। और इसमें खतरा भी है।
सनमाई के पति की दो साल पहले पीलिया से मौत हो गई। फिर शादी करने के प्रस्तावों को उसने बहुत मुश्किल से टाल रखा है। उसने विधवा की तरह ही रहना चुना है। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं है। उसके पड़ोसी जब-तब मदद करते हैं। लेकिन मैं सोचता हूं कि यह सब वह कितने दिन खींच पाएगी?
15 साल पहले तक गांव अच्छी हालत में था। स्थिति तब से खराब होने लगी जब वन विभाग ने जंगल के बाहरी इलाकों में खेती-किसानी पर रोक लगा दी। गांव वाले कहते हैं कि उनके पूर्वज ‘शताब्दियों से’ जंगल के छोटे- छोटे हिस्सों में खेती-बाड़ी करते थे। लेकिन विभाग के फतवे ने इन सब पर रोक लगा दी। हर परिवार का कोई-न-कोई आदमी दैनिक मजदूरी करने केरल जाता है। वे मजबूरी में ही ऐसा करते हैं और जितनी जल्दी हो, करीब दसेक हजार रुपये इकट्ठा होने पर वहां से भाग आते हैं। सरकारी राशन के अतिरिक्त यह राशि एक परिवार का साल भर पेट पालने के लिए पर्याप्त है।
पर यह सब होने पर भी इन लोगों में कोई कटुता या गुस्सा नहीं है। जो है, उसमें ही वे खुश और संतुष्ट हैं। उनमें से एक ने कहा भी, ‘हम अपना गांव और अपने आसपास जंगल को पसंद करते हैं। हमें यहां ताजा हवा तो मिलती है। यहां शांति है। हम यह जगह नहीं छोड़ेंगे।’
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प्रीत लाल यादव का गांव मध्य प्रदेश में है। वह आठ किलो गेहूं लेकर 15 किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ के बोदला ब्लॉक पैदल ही चला जाता है ताकि उसे चावल मिल सके। वह नियमित तौर पर ऐसा करता है। बैगा आदिवासी महिला समरिन बाई मेरावी और वह इतने अनाज की अदला-बदली कर लेते हैं। प्रीत लाल को हर माह सरकारी राशन दुकान से 20 किलो चावल, 10 किलो गेहूं और 5 किलो मक्का मिल जाता है। समरिन को पीडीएस से 35 किलो सिर्फ चावल ही मिलता है। चावल और मक्का तो इस इलाके में नियमित खाया जाता है लेकिन गेहूं कभी-कभार। इस इलाके में कोदो, कुटकी, निगार और बाजरा भी उपजाए जाते हैं। ये मोटे अनाज कहे जाते हैं जो हाल के कुछेक वर्षों से मॉल वगैरह में तो महंगे दाम में मिलने लगे हैं लेकिन इस इलाके में इसके बदले सब्जी-तेल खरीदने के लिए उगाए जाते हैं। दोनों कहते हैं कि सरकारी राशन पूरे महीने के लिए कम पड़ता है और इसलिए दोनों ही परिवार मकान वगैरह बनाने के कामों में मजदूरी करते हैं। इन लोगों ने मनरेगा स्कीम में भी अपना नाम दे रखा है ताकि जब-तब कुछ-न-कुछ काम मिलता रहे। समरिन के 11 महीने के पोते सागर और बहूचारु को आंगनवाड़ी के जरिये दलिया मिल जाता है लेकिन लॉकडाउन के बाद से लड्डू और केले मिलना बंद हो गए हैं। समरिन का बड़ा बेटा शहर जाकर काम नहीं करना चाहता। वह कहता है कि वहां रहना-खाना और पर्याप्त कमाना मुश्किल है। वह कहता है कि उसे गांव की खुली हवा ही अच्छी लगती है।
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झारखंड के चतरा में पछिया बाई बिरहोर बहुत खुश मिली। वह कुछ खास पका रही थी- प्याज डालकर भिंडी-आलू, भात और जंगल से लाया गया साग। दरअसल, एक दिन पहले ही उसने 20 रुपये की दर से सूप बेचे थे और इससे उसे 120 रुपये की आमदनी हुई थी। उसके घर में सामान्यतया मांड़-भात, नमक-भात या जंगल से इकट्ठा कर लाया साग-भात पकता है। उसने बताया कि दरअसल, उसने 40 रुपये बचा लिए हैं। यह पूछने पर कि इसका वह क्या करेगी, तो उसने कहा कि उसने 10-10 रुपये में खैनी, मसाले, प्याज और तेल खरीद लिए हैं। उसने 20-20 रुपये में भिंडी और आलू खरीदे थे। छह सूप बनाने के लिए उसने और उसकी दो बेटियां ने 10 किलोमीटर जाना-आना कर बांस इकट्ठा किया। उन तीनों ने दिन भर मेहनत की, तो सूप बनाने का काम पूरा हो पाया। यह उनकी मेहनत की कमाई थी जिससे वे अपने लिए ‘अच्छा-अच्छा’ खाना पका रही थीं।
(रोहित जैन ने पुलित्जर सेंटर ग्रांट पर गरीबी और भूख पर रिपोर्ट करने रे विए इस साल दो माह तक तीन राज्यों का दौरा किया है)
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