दिल्ली हिंसा ने फिर बताया-दिखाया है कि पुलिस-प्रशासन किस तरह अपने ही बनाए नियमों को धता बता देता है।
कश्मीर घटनाक्रम के खिलाफ आईएएस अफसर की नौकरी छोड़ने वाले कन्नन गोपीनाथन ने इस संवाददाता से कहा कि दिल्ली पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करती है। इस सरकार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद सबसे ताकतवर माने जाने वाले अमित शाह इस मंत्रालय को संभालते हैं। जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के दौरे पर थे, तब दिल्ली में हिंसा भड़की। किसी विदेशी मेहमान के आने के समय इस तरह होना राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला है। लेकिन इस पर नियंत्रण करने की जगह हिंसा फैलने दी गई। साफ है कि अमित शाह दिल्ली की सुरक्षा करने में नाकाम रहे हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से विदेशी मामलों की सुरक्षा की उम्मीद की जाती है। वह हिंसा-प्रभावित इलाकों का दौरा करने लगे। जब अपने पास गृह मंत्री हैं, तो एनएसए को ऐसे इलाकों में जाना ही क्यों चाहिए?
यह बात सही भी है। जब तक दिल्ली हाईकोर्ट ने दखल नहीं दिया, दिल्ली पुलिस ने दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई करने की कोई तत्परता नहीं दिखाई। दिल्ली पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक सीधे अमित शाह को ही रिपोर्ट करते हैं। फिर भी, हिंसा इस तरह हुई। वजह सिर्फ यह है कि जिन बातों के लिए जो गाइडलाइंस बने हुए हैं, उसका पालन करने में मोदी-शाह की रुचि ही नहीं है।
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सांप्रदायिक हिंसा रोकने को लेकर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने गाइडलाइंस बनाए हुए हैं। इसमें राज्य सरकार से लेकर पुलिस थाने तक विभिन्न स्तरों पर की जाने वाली कार्रवाइयों और व्यवस्थाओं की स्पष्ट बातें हैं।
इसमें साफ तौर पर कहा गया है कि सांप्रदायिक दंगे पर नियंत्रण से ज्यादा महत्वपूर्ण बात इसे होने देने से रोकना है। नियमों के अनुसार :
यहां यह ध्यान रखने की बात है कि कोई भी वरिष्ठ पुलिस अफसर हिंसाग्रस्त दिल्ली के उत्तर- पूर्वी इलाके में कभी नहीं देखा गया, सिवाय तब जब 25 फरवरी को डीसीपी रैंक के एक अफसर आए और उन्होंने महिलाओं को जाफराबाद मेट्रो स्टेशन से अपना धरना हटाने को कहा।
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सांप्रदायिक हिंसा संबंधी केंद्रीय गृह मंत्रालय के दिशा निर्देश में यह भी कहा गया है कि सांप्रदायिक तौर पर संवेदनशील इलाकों में तैनात किए जाने वाले पुलिस बल का गठन इलाके की सामाजिक संरचना के अनुरूप किया जाना चाहिए ताकि इसकी विश्वसनीयता कायम हो सके। ताजा हिंसा के खयाल से देखें, तो यहां भी दिल्ली पुलिस विफल रही क्योंकि यहां तैनात किए जाने वाले पुलिसकर्मियों में अधिसंख्यक हिंदू ही थे।
गाइडलाइंस में मेडिकल रिलीफ कैंप्स को लेकर भी कई बातें कही गई हैं। इसमें कहा गया है कि इन शिविरों में इस तरह लोगों को तैनात किया जाना चाहिए जिसमें सभी समुदायों के सदस्य हों। इसे दुर्भाग्य ही मानना चाहिए कि हिंसाग्रस्त उत्तर-पूर्वी इलाके में न तो केंद्र और न ही दिल्ली सरकार ने कोई शिविर बनाने की जरूरत समझी। जो लोग इस हिंसा में घायल हुए, उन्हें पास के अस्पतालों में ले जाने वाले रास्तों पर उपद्रवियों ने कब्जा कर रखा था। हिंसा में घायल और मारे गए लोग अलहिंद और गुरु तेगबहादुर (जीटीबी) अस्पताल लाए जा रहे थे। अस्पतालों में जिस तरह के बिचौलिये सक्रिय रहते हैं, यह आम अनुभव है।
गाइडलाइंस यह भी हैं कि संवेदनशील इलाकों में ऐसे पुलिस वालों की पोस्टिंग होनी चाहिए जिनकी ईमानदारी, कुशलता और निरपेक्षता साबित हो। इसका भी स्पष्ट उल्लंघन होता दिखा। अधिकतर पुलिस अफसर उग्र बहुसंख्यक वर्ग के प्रति नरम थे जबकि मुस्लिम प्रदर्शनकारियों और पीड़ितों के प्रति उनका रवैया निष्ठुर और, कई अवसरों पर, क्रूर तक था।
गाइडलाइंस में इस बारे में भी बताया गया है कि अगर कर्फ्यू या धारा 144 के तहत प्रतिबंध लगाए जाने पर लोग उनका उल्लंघन करें, तो क्या किया जाना चाहिए। इसमें कहा गया है कि पुलिस को संभावित बदमाशों को तो गिरफ्तार करना ही चाहिए, लूटपाट और हिंसा में लगे लोगों को भी तत्काल गिरफ्तार कर लेना चाहिए। अफसोस की बात है कि इसका पालन भी होता नहीं दिखा। जाफराबाद, मौजपुर, विजय पार्क, भजनपुरा, गोकुलपुरी और खजूरी में जिस तरह उपद्रवी संपत्ति जलाते रहे, उत्तेजक नारे लगाते रहे, हथियार लहराते रहे और कर्फ्यू और धारा 144 लगाए जाने के बावजूद पुलिस ने उनकी ओर से आंखें मूंदे रखीं, इससे कई तरह के सवाल तो मन में उठते ही हैं।
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जो नियम हैं, उनके अनुसार, दिल्ली के मुख्यमंत्री शांति-व्यवस्था बहाल करने के लिए केंद्र सरकार से सशस्त्र बलों को उपलब्ध कराने को कह सकते हैं। 25 फरवरी की बैठक से पहले अरविंद केजरीवाल ने ऐसा कुछ किया, यह जानकारी तो किसी को नहीं है। हां, बैठक से निकलकर उन्होंने यह जरूर कहा कि केंद्र सरकार ने और पुलिस बल हिंसाग्रस्त इलाके में तैनात करने का आश्वासन दिया है।
कई सामाजिक संगठनों ने कहा है कि केजरीवाल गाइडलाइंस में बताए गए नियमों के तहत मेडिकल कैंप तो लगवा ही सकते थे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया। केजरीवाल चाहते, तो हेल्पलाइन नंबर जारी कर सकते थे, लगातार बढ़ती हिंसा को लेकर इस नंबर पर मिल रही सूचनाओं को दिल्ली पुलिस तक पहुंचाने की व्यवस्था कर सकते थे, ऐसे सुरक्षित कैंप बनवा सकते थे जहां हिंसा-प्रभावित लोग शरण ले सकें, शांति समितियों का गठन कर उन्हें सक्रिय कर सकते थे। इनमें से कोई काम उन्होंने नहीं किया।
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