लॉकडाउन में अमीर भले ही कसरत कर, चेस खेलकर या कोई डिश बनाकर उनकी क्लिप्स सोशल मीडिया पर नुमाइश कर रहे हों, लेकिन सोशल मीडिया से दूर तमाम लोग ऐसे हैं जिन्हें बहुत जरूरी होने पर भी इलाज नहीं मिल पा रहा है। सबसे ज्यादा मुश्किल गर्भवती महिलाओं के साथ है। कई अस्पताल और नर्सिंग होम संचालकों ने तो गर्भवती महिलाओं को सरकारी अस्पताल में डिलिवरी कराने का फरमान सुना दिया है।
बस्ती जिले की सविता शहर के नामी नर्सिंग होम में इलाज करा रही थी। अप्रैल के दूसरे हफ्ते में डिलिवरी होना है। डॉक्टर ने कह दिया, अब जिला अस्पताल में डिलिवरी करा लें। ऐसे मामले कमोबेश सभी जिलों में आ रहे हैं। हरियाणा में काम करने वाले नितिन कुमार को अपने घर आगरा लौटना था। पैदल ही 177 किलोमीटर की यात्रा करने के बाद घर सिर्फ 39 किलोमीटर ही बचा था कि तभी एक तेज रफ्तार बस ने जिंदगी की रफ्तार को हमेशा के लिए रोक दिया।
वहीं, बल्लभगढ़ से अपने घर आंबेडकर नगर को निकला मोहित ट्रक पर चढ़ने के प्रयास में गिर गया। मौके पर ही उसकी मौत हो गई। सिद्धार्थनगर के विनोद तिवारी नोएडा में काम करते थे। लॉकडाउन के बाद बस और ट्रेन की आवाजाही पर ब्रेक लगी तो मोटरसाइकिल से ही घर को निकल पड़े। हाथरस जिले में राहत कैंप में रुके थे, तभी अचानक बेहोश हो गए। मौके पर ही उनकी मौत हो गई।
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इसी तरह अलीगढ़ में चाय बेचने वाले संजय नाम के व्यक्ति की मौत के बाद परिवार वालों ने आरोप लगाया कि लॉकडाउन के चलते उन्हें उचित इलाज नहीं मिल सका। संजय की पांच लड़कियों ने ही पिता को कंधा दिया। गोरखपुर के रामगढ़ ताल इलाके की पुलिस पर पिछले दिनों हनुमान मंदिर के पुजारी कोईल दास उर्फ टिकोरी दास (75) की निर्मम पिटाई का आरोप लगा। मंदिर में पूजा करने आए पुजारी की पुलिस से बहस हो गई थी।
पुजारी की पत्नी सुखदेई का आरोप है कि पुलिस ने वीडियो बना रहे एक युवक को पकड़ा था। पुजारी ने जैसे ही कुछ पूछना चाहा, पुलिस वालों ने पिटाई शुरू कर दी जिससे तबीयत बिगड़ गई और बाद में उनकी मौत हो गई। बीजेपी विधायक डॉ. राधामोहनदास अग्रवाल से लेकर एसपी जिलाध्यक्ष राम नगीना साहनी ने मामले की जांच की बात कही लेकिन लॉकडाउन में जांच की मांग फाइलों में दफन हो गई।
लॉकडाउन में तमाम ऐसे लोग भी हैं जिन्हें मौत के बाद भी परिवार का साथ नहीं मिल पाया। संतकबीर नगर के आलोक सूरत में नौकरी करते हैं। पिछले दिनों पिता की मृत्यु हो गई। सूचना के बाद भी मुखाग्नि देने भी नहीं आ सके। पट्टीदारों ने अंतिम संस्कार किया। पिछले दिनों गोरखपुर के बासुदेव सिन्हा (92) की मौत के चंद मिनट बाद ही दिल की मरीज पत्नी शांति की भी मौत हो गई। कोई बताने वाला भी नहीं है, लॉक डाउन में उन्हें इलाज मिला या नहीं।
इसी तरह वाराणसी में मजदूर संतोष जायसवाल की जिला अस्पताल में मौत के बाद कोई कंधा देने वाला नहीं मिला। कुछ स्थानीय जागरूक लोगों की मदद से शव घाट पर पहुंचा, जहां पत्नी गुड़िया ने पति को मुखाग्नि दी।
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“इस स्थिति में कोई बेटा शायद ही बात करे, लेकिन मैं करूंगा। मैं भी लॉकडाउन के पक्ष में हूं लेकिन मेरे पिता की जान सिस्टम के शटडाउन ने ले ली।”
5 अप्रैल को देश के ज्यादातर लोग जब प्रधानमंत्री के आह्वान पर अपने घरों के बाहर दीये जलाने की तैयारी में थे, मेरी जिंदगी अंधेरे में चली गई। मेरे पूरे परिवार की जिंदगी का दीया बुझ गया। मेरे पापा अब स्वर्गीय नवल किशोर प्रसाद हो गए तो यह लॉकडाउन के कारण ठप पड़े मेडिकल सिस्टम का इकलौता दोष है। मैं पटना में था। घर में मां थीं। दिव्यांग बड़ा भाई था। पांच साल से ज्यादा हो गए, जब पापा बुरी तरह बीमार थे। एक प्रतिशत भी उम्मीद नहीं बताते थे डॉक्टर उनके बचने की, मगर बच गए क्योंकि प्राइवेट अस्पताल ने पैसे लेकर ही सही, अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। यह भी कह सकते हैं कि तब हमारी किस्मत थी और आज बदकिस्मती।
5 अप्रैल की सुबह पापा ने गैस की परेशानी बताई। चिकित्सकों का जो नंबर सार्वजनिक तौर पर प्रचारित था, उनमें से एक पर कॉल किया। डॉक्टर ने कहीं दिखाने जाने की स्थिति नहीं बताई। गैस की दवा बताई। खाकर थोड़ा आराम हुआ। सोए तो फिर जागे ही नहीं। शाम में नहीं सोते थे, लेकिन जब शाम तक नहीं जागे तो हिलाया गया, मगर कुछ पता नहीं चल रहा था। मेरा भाई बोल नहीं सकता, मगर किसी तरह आसपास के लोगों को इशारा किया।
सारे जानते हैं कि हमारे घर से कोई निकला नहीं और न कोई कहीं से आया, इसलिए कोरोना के हल्ले के बावजूद कुछ पड़ोसी आए। डॉक्टर के पास ले जाने की चर्चा चलती रही, कॉल किया जाता रहा, लेकिन किसी अस्पताल, किसी डॉक्टर ने सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी। जाने का साधन भी खोजा गया, लेकिन नहीं मिला। कुछ देर बाद ही पापा का शरीर ठंडा पड़ने लगा, तब सभी ने खुद ही यह मान लिया कि वह नहीं रहे।
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पापा का नहीं रहना क्या होता है, यह सभी नहीं समझ सकते। मैं किसी गांव में नहीं, राजधानी पटना में था। मेरे पापा भी किसी गांव में नहीं, बल्कि जमुई शहर में थे। जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक के दफ्तर से कुछ ही दूरी पर। मगर, इतनी व्यवस्था नहीं हो सकी कि उन्हें कोई डॉक्टर देखे। मैं पटना में छटपटाकर रह गया। जितने भी संपर्क थे, हर किसी को कॉल किया, लेकिन किसी ने यह भरोसा नहीं दिलाया कि कोई डॉक्टर को ला सकता है या किसी अस्पताल में पहुंचा सकता है।
वैसे, पटना के पीएमसीएच की खबर भी ऐसी ही पढ़ी तो भरोसा नहीं था। भरोसा नहीं हो रहा था कि गर्भ में बच्चा उलटा होने की अल्ट्रासाउंड के लिए किसी गर्भवती को पीएमसीएच तीन दिन से दौड़ा रहा है। हार्ट अटैक के दिन ही इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान पहुंचे बुजुर्ग का ऑपरेशन डॉक्टर के नहीं आने के कारण पांच दिन टल गया। थैलीसीमिया पीड़ित बच्चे को इस लॉकडाउन में पूर्णिया से खून चढ़ाने के लिए तीसरी बार बुलाया गया। या, टीबी के मरीज को पैसा नहीं होने के कारण दवा ब्रेक करनी पड़ी और पीएमसीएच में वह दवा ही नहीं थी।
किस्मत ने इन खबरों पर कुछ ही मिनट में ऐसा भरोसा दिलाया कि जिंदगी भर याद रहेगा। किसी तरह रात में ही प्राइवेट कार लेकर चला तो सुबह जमुई पहुंचा। यहां से शव को मुंगेर के गंगाघाट पर ले जाने के लिए भी दिन भर मशक्कत करनी पड़ी। पिता की अंतिम यात्रा में शामिल होने वक्त भी यह बात आपके सामने इसलिए रख रहा हूं, क्योंकि लॉकडाउन के नाम पर पूरा मेडिकल सिस्टम ठप करने वाली व्यवस्था का प्रतिकार भी जरूरी है।
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दिल्ली में लोकनायक जयप्रकाश (एलएनजेपी) अस्पताल को कोविड-19 के रोगियों के लिए ही पूरी तरह समर्पित कर दिया गया है। लेकिन यहां की नर्सों को क्वारंटाइन की वे सुविधाएं अप्रैल में पहले हफ्ते तक नहीं दी गई हैं जो किसी भी हेल्थवर्कर के लिए इन हालात में जरूरी है। हां, यहां के डाॅक्टरों को क्वारंटाइन अवधि के लिए जरूर ही ललित होटल में जाकर रहने को कहा गया है।
इस अस्पताल में 1,300 नर्सिंग ऑफिसर हैं। इस समय जो व्यवस्था बनाई गई है, उसके मुताबिक, अस्पताल की नर्सों को14 दिनों की शिफ्ट की ड्यूटी पर तैनात किया गया है। इसके बाद इन नर्सों को 14 दिनों की क्वारंटाइन अवधि में रहना होगा। अभी अस्पताल में ड्यूटी कर रही नर्सें इसी परिसर में दंत अस्पताल के हाॅल में रह रही हैं। यहां एक सेक्शन में एक साथ 30 बेड लगा दिए गए हैं। यहां सिर्फ दो बाथरूम हैं और अलग से कोई चेन्जिंग रूम नहीं है। यह भवन अभी बनकर तैयार ही हुआ है और इसका एक फ्लोर खुला हुआ है। इसमें शिफ्ट वाली नर्सें किसी तरह रहती हैं।
नर्सें इस वक्त अपना नाम नहीं बताना चाहतीं लेकिन उनकी व्यथा-कथा जानने लायक तो है ही कि वे किन स्थितियों में काम कर रही हैंः कई दफा नौ-नौ लोग एक कमरे में रहती हैं और हमें एक ही बाथरूम शेयर करना होता है। यह किस तरह की क्वारंटाइन सुविधा है? दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि कोविड-19 के खिलाफ डाॅक्टर्स सामने से लड़ रहे हैं। तो, हमारे बारे में क्या? क्या हम सामने से नहीं लड़ रहे हैं? अगर लड़ रहे हैं, तो हमारे साथ भेदभाव क्यों? दिल्ली सरकार ने डाॅक्टरों को रहने के लिए ललित होटल उपलब्ध कराया है, लेकिन उसने नर्सों की अनदेखी कर दी है, जबकि नर्सें 24-24 घंटे की ड्यूटी कर रही हैं और उन्हें उचित ढंग के सुरक्षा कपड़े या अन्य सुविधाएं भी मुहैया नहीं कराई गई हैं।
दिल्ली राज्य अस्पताल नर्स यूनियन की महासचिव जीमाॅल शाजी के अनुसार, अभी ड्यूटी कर रहीं 120 नर्सों की 14 दिनों की शिफ्ट 10 अप्रैल को पूरी हो जाएगी। नर्सें जानना चाह रही हैं कि तब, वे किस तरह अपने आपको क्वारंटाइन करेंगी। आखिरकार, उन्हें अपने घर ही लौटना होगा और वैसे में, उनके घर वालों को भी इस बीमारी से संक्रमण का खतरा रहेगा। इस तरह की आशंका की वजह भी है। नर्सों के पहले बैच की शिफ्ट 1 अप्रैल को समाप्त हुई और उनमें से कई को अपने घर जाना ही पड़ा। उनमें से 10 ही अस्पताल परिसर में रह रही हैं।
यूनियन सदस्यों ने इस बारे में चिकित्सा निदेशक जेसी पासे को भी लिखा है, लेकिन अभी तक तो कोई कदम उठाया नहीं गया है। इस संवदादाता ने निदेशक से बात करनी चाही, पर उन्होंने कहा कि वह मीडिया से अलग से कोई बात नहीं करेंगे; जो भी बात कहनी है, वह मेडिकल बुलेटिन में बता दी जाएगी।
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“मेरे पिता कोरोना वायरस से संक्रमित नहीं थे, फिर भी उनकी जान चली गई। मैं बचाने के लिए यहां से वहां परेशान होता रहा, पर सबकुछ होने के बावजूद नहीं बचा सका।”
यह कहानी है भोपाल पुलिस के एक जवान की। इस जवान के पिता राजभवन से सेवानिवृत्ति कर्मचारी थे जो गैस प्रभावितों के लिए बनाए भोपाल मेमोरियल अस्पताल में भर्ती थे। सरकार ने इस अस्पताल में कोरोना वायरस से पीड़ित मरीजों के लिए आइसोलेशन वार्ड बनाने का निर्णय लिया था। इसके कारण यहां भर्ती करीब 80 मरीजों को जबरन दूसरे अस्पतालों में भेज दिया, तो कुछ को छुट्टी दे दी गई। इन्हीं में इस जवान के पिता भी थे। उन्हें हमीदिया अस्पताल भेजा गया। यह राज्य के प्रमुख अस्पतालों में से एक है।
दरअसल, 80 साल के कालूराम घुंघराले गंभीर बीमारियों से जूझ रहे थे। वह 27 फरवरी, 2020 को भोपाल के गैस पीड़ित मेमोरियल अस्पताल में भर्ती हुए थे। 24 मार्च को यह कहकर उन्हें वहां से हमीदिया अस्पताल भेज दिया गया कि कोरोना वायरस का खतरा बढ़ रहा है, इसलिए इस अस्पताल में आइसोलेशन वार्ड बनाने के निर्देश हैं। आनन-फानन में कालूराम को परिजनों ने हमीदिया में भर्तीकराया, डाॅक्टरों ने ठीक से इलाज नहीं किया और 28 मार्च को उन्होंने दम तोड़ दिया। इसी तरह, गैस पीड़ित अस्पताल से हमीदिया अस्पताल भेजी गई एक अन्य महिला के साथ भी ऐसा ही हुआ।
कोरोना की वजह से गैस पीड़ित अस्पताल से 80 मरीजों को शिफ्ट किया गया। ये सभी दर-दर की ठोंकरे खा रहे हैं। तीन मरीज- तुलसी बाई, मुन्नी बी और रामश्री बाई भर्ती हैं। तीनों वेंटिलेटर पर हैं। इनके परिजनों का कहना है कि हालत गंभीर है, पर डाॅक्टर इन्हें ठीक से नहीं देख रहे हैं। डाॅक्टरों का कहना है कि वे कोरोना संक्रमित मरीजों को पहले देखेंगे।
गांवों की हालत तो और खराब है। मध्य प्रदेश में बड़वानी जिले की सेमलेट पंचायत के भादल गांव के पवन सोलंकी बताते हैं कि उनके गांव से 60 किलोमीटर दूर पाटी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र है। वहां जाने के लिए नर्मदा नदी को नाव से पार करना पड़ता है। कई मरीज वहां से बिना इलाज कराए वापस आ गए हैं। अस्पताल में कोरोना संक्रमित एक भी मरीज नहीं है। फिर भी कहा जाता है कि तुम क्यों आ गए, तुम्हें पता नहीं, अभी कोरोना के मरीजों को पहले देखना है। तुम साधारण मरीज हो।
पवन सोलंकी बताता है कि सरकारी अस्पताल में इलाज नहीं मिलने से ग्रामीण परेशान हैं। वे लोग क्षेत्रके एक बंगाली डाॅक्टर के पास इलाज करवा रहे हैं। वह झोलाछाप है। वह मनमानी फीस वसूलता है। यही हाल बैतूल जिला मुख्यालय पर मौजूद जिला अस्पताल का है। यहां तो नाकेबंदी कर दी गई है। ग्रामीणों को अस्पताल तक नहीं पहुंचने दिया जा रहा है। रास्ते में पुलिस रोककर खुद ही चेक करने लगती है कि बुखार है या नहीं।
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