हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था में 5 से 6 हजार करोड़ का योगदान देने वाली और 10 लाख से अधिक लोगों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर रोजगार देने वाली सेब बागवानी इस वर्ष गंभीर संकट में है। प्रकृति की मार ऐसी पड़ी है कि फसल का उत्पादन आधा रह गया है। सेब की जो पैदावार हुई भी है उसकी गुणवत्ता बेहद खराब है। नतीजे में न रेट मिल रहे हैं और न खरीदार। लिहाजा, बागवानों की अडानी की कंपनी पर निर्भरता और मुश्किल का सबब बन गई है। छोटे और सीमांत किसानों के हालात तो और बदतर हैं। बड़े बागवानों की स्थिति भी ठीक नहीं है।
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मौसम ने ऐसा कहर बरपाया है कि 4 दिन पहले तक 2022 के 3.36 करोड़ पेटी सेब के मुकाबले इस वर्ष महज 1.34 करोड़ पेटी सेब मंडी में पहुंचा है। सेब सीजन खत्म होने के करीब है। सिर्फ पैदावार समस्या नहीं है। जो सेब पैदा भी हुआ है उसमें 20-40 फीसदी सेब सी ग्रेड में तब्दील हो गया है। जिसका न बाजार है और न खरीददार। हिमाचल प्रदेश की सेब मार्केट का सबसे बड़ा खिलाड़ी अडानी ग्रुप भी यह सेब नहीं ले रहा है। लिहाजा, हालात और खराब हैं। छोटे और सीमांत किसानों की स्थिति तो भयावह है। हिमाचल प्रदेश के कुल सेब का 80 फीसदी उत्पादन शिमला जिले में होता है।
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शिमला जिले के मशोबरा के पास साढौरा गांव के तकरीबन 2 बीघे के किसान बालकृष्ण की जुबां से निकले शब्दों पर पहले तो यकीन नहीं हुआ। बालकृष्ण अपना खेत दिखाते हुए कहते हैं कि जितना नुकसान इस वर्ष हुआ है इतना तो कभी नहीं हुआ। बालकृष्ण के 2 बीघे के खेत में तकरीबन 70-80 पेड़ सेब के हैं। पिछले वर्ष तकरीबन 40 हजार रुपये का सेब बेचा था। करीब 50-60 पेटी सेब हर वर्ष निकल आता था। इस वर्ष एक रुपये का भी सेब वह नहीं बेच पाए। पैदावार सिफर है। यही नहीं उन्होंने दिखाया कि मौसम की मार से सेब के कई पेड़ भी सूख रहे थे। पत्ते झड़ चुके थे। सबसे भयावह यह कि उनके खेत की जमीन भी भारी बारिश से धंस चुकी है। मतलब भविष्य की संभावनाएं भी खत्म हो चुकी हैं। हालांकि, उन्हें इस बात का संतोष था कि बागवानी विभाग के लोग आए थे और कह कर गए हैं कि तकरीबन 1 लाख रुपये का मुआवजा उन्हें मिल जाएगा।
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हिमाचल में इस बार यह सिर्फ बालकृष्ण की कहानी नहीं है। तकरीबन 5 बीघा खेत में सेब बागवानी करने वाले रोहड़ू के कोलछा गांव के रहने वाले मेघराज का कहना है कि हर वर्ष करीब 3 लाख का सेब बेच लेते थे। इस बार उम्मीद है कि सिर्फ 40-50 हजार का ही सेब होगा। हर वर्ष करीब 400 पेटी निकलने वाला सेब इस बार बमुश्किल 100 पेटी ही होगा। मेघराज हर वर्ष 100-150 क्रेट सेब अडानी एग्रो फ्रेश को बेचते थे, लेकिन इस वर्ष अडानी की कंपनी ने उनका अधिकतर सेब छोटा और खराब क्वालिटी के नाम पर लेने से मना कर दिया और बाजार में कोई रेट मिल नहीं रहा। रोहड़ू के ही 10-15 बीघे के सेब बागवान रवि का कहना है कि अडानी एग्रोफ्रेश कई तरह के खेल करती है। जैसे इस बार उसने शर्तों के साथ 3 बार में प्रीमियम सेब के रेट अधिकतम 110 रुपये प्रति किलो घोषित किए हैं। रवि कहते हैं कि यदि रेट 110 रुपये है तो अडानी कभी भी 70-80 रुपये प्रति किलो से ज्यादा नहीं देता। ऐसा वह क्वालिटी के नाम पर करता है। क्वालिटी भी कई तरह से चेक की जाती है। पहले तो सेब का कलर और साइज चेक होता है। फिर चेक किया जाता है कि सेब ढीला है या सख्त। यदि सेब ढीला है तो वह रिजेक्ट कर देते हैं या फिर बाजार भाव से बेहद कम रेट में लेते हैं। रवि कहते हैं कि अडानी एग्रोफ्रेश बागवानों की मजबूरी भी बन गया है। वहां रेट बेशक कम मिलते हैं, लेकिन बागवान इसलिए चला जाता है कि पैसा तुरंत उसके खाते में आ जाता है। लेकिन एक दूसरे बागवान की कहानी ने पैसा तुरंत खाते में आने की बात को भी झुठला दिया। करीब 8-10 बीघा में बागवानी करने वाले रोहड़ू के सरन गांव के किसान भीमसेन कहते हैं कि उनका पिछले वर्ष का करीब 2 लाख रुपये अडानी एग्रोफ्रेश के पास बकाया है।
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भीमसेन एक और बात बताते हैं कि अडानी की कंपनी ज्यादा हाईट में पैदा होने वाला सेब ही अधिक लेती है। क्योंकि ज्यादा हाईट में पैदा होने वाला सेब सख्त और उसका कलर अच्छा होता है। वह कहते हैं कि इस बार सेब छोटा और क्वालिटी खराब होने के कारण अडानी एग्रोफ्रेश नहीं खरीद रही। भीमसेन भी कहते हैं अडानी की कंपनी मजबूरी का फायदा उठाती है। वह बाजार भाव से कम रेट में सेब लेती है, लेकिन पैसा तुरंत मिलने के फेर में किसान वहां सेब लेकर चले जाते हैं। भीमसेन बताते हैं कि हर वर्ष होने वाला करीब 1000 पेटी सेब इस बार 120 पेटी ही निकला है। रेट भी पहले 80-90 रुपये प्रति किलो मिल जाता था, लेकिन इस बार 30-40 रुपये प्रति किलो ही मिला है। रोहड़ू के ही करीब 2 बीघे के सेब बागवान राजकुमार कहते हैं कि उनके खेत में करीब 100 पेड़ सेब के हैं।
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इस वर्ष फसल आधी है। 40-50 पेटी सेब ही निकलने की उम्मीद है। राजकुमार कहते हैं कि उनके सेब का साइज छोटा होने के कारण वह अडानी एग्रोफ्रेश के पास गए ही नहीं। उन्हें पता है कि अडानी की कंपनी उनका सेब लेगी नहीं। इन किसानों का कहना है कि दिल्ली की आजादपुर मंडी सेब ले जाने की उन्हें बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। यदि सेब आजादपुर मंडी ले जाने के बाद भी तुरंत नहीं बिका तो उसके खराब होने की आशंका रहती है। लिहाजा, अडानी एग्रोफ्रेश चाहे जिस भाव ले, उनकी मजबूरी बन जाती है।
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