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एफसीआई को कर्ज का धीमा जहर और ‘मितरों’ को किराए की गारंटी, कमाल का है मोदी मंत्र

भारतीय खाद्य निगम दशकों से गरीब लोगों को सस्ता अनाज पहुंचाने का काम पीडीएस के माध्यम से कर रहा है। इसमें सरकार उसे सब्सिडी देती रही है। लेकिन अब एफसीआई कर्ज के जाल में फंस गया है और सरकार उसे उबारने के बारे में सोच भी नहीं रही।

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फोटो : Getty Images Pacific Press

कोरोना ने दुनिया भर की आंखें खोली हैं। भारत और भारतीयों को भी बहुत कुछ ज्यादा स्पष्टता से दिखने लगा है। जिस कांग्रेस के शासन को कोस-कोसकर बीजेपी सत्ता तक पहुंची है, कोरोना काल में उसी की नीतियां और कार्यक्रम काम आए। लॉकडाउन से सबसे ज्यादा प्रभावित गरीब-मजदूर वर्ग हुआ। तब केवल दो योजनाएं ऐसी थी, जिससे इन्हें राहत मिली। मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना) और पीडीएस (सावर्जनिक वितरण प्रणाली)। मनरेगा के तहत प्रवासी मजदूरों को काम देकर उन तक कुछ पैसा पहुंचाया गया। वहीं, पीडीएस के तहत गरीबों को राशन पहुंचाकर उन्हें भुखमरी से बचाया गया। पीडीएस के तहत बांटा गया यह अनाज भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के जरिये पहुंचा। लेकिन लोगों की जान बचाने वाली एफसीआई खुद धीमी मौत मर रही है और इसका बंदोबस्त मोदी सरकार ने ही किया है जिसकी नीतियां ‘मितरों’ के भले की लगती हैं।

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महामारी के इस काल में साबित हो गया कि मनरेगा एक कार्यक्रम न होकर ऐसा नेटवर्क है जिससे सीधी मदद पहुंचाई जा सकती है। गरीब-गुरबों की मदद के लिए अपनी पीठ ठोकने वाले मोदी को तो याद ही होगा कि 2015 में संसद में उन्होंने कैसे “कसीदे” पढ़े थेः ‘मेरी राजनीतिक सूझबूझ कहती है कि मनरेगा को कभी बंद मत करो। यह आपकी विफलताओं का स्मारक है और मैं गाजे- बाजे के साथ इस स्मारक का ढोल पीटता रहूंगा।’ मोदी अपनी लगभग हर जनसभा में कहते रहे हैं कि सरकार ने 80 करोड़ लोगों तक मुफ्त राशन पहुंचाया। राशन उपलब्ध कराने में भूमिका एफसीआई की रही लेकिन शायद ही कभी उसे सराहा हो बल्कि उनकी सरकार ने एफसीआई को कमजोर ही किया और ऐसा लगता है कि इसे खत्म ही कर देने का इरादा है।

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आंकड़े बताते हैं किअप्रैल से सितंबर, 2020 तक एफसीआई ने विभिन्न योजनाओं के तहत 197.89 करोड़ टन अनाज बांटा जबकि इससे पहले 2019-20 में 271.88 करोड़ टन बांटा था। ध्यान देने की बात है कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत अप्रैल से सितंबर के बीच 72.37 लाख टन अनाज बांटा गया जबकि इसके अलावा जिन लोगों के पास राशन कार्ड नहीं था, उन्हें लगभग 2.571 लाख टन राशन दिया गया। यहां-वहां फंसे प्रवासियों को 1.82 लाख टन राशन दिया गया।

सरकार की घोषणा के मुताबिक, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत नवंबर तक राशन बांटा जाएगा लेकिन विश्व बैंक सहित कई संगठन कह रहे हैं कि भारत में भुखमरी बढ़ने वाली है तो सरकार फिर योजना की अवधि मार्च, 2021 तक बढ़ाने वाली है। सीधा-सा अर्थ है कि एफसीआई पर अनाज वितरण का बोझ बढ़ेगा। यही वजह है कि एफसीआई इस खरीफ सीजन में अधिक अनाज खरीद रही है।

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यह फैसला एफसीआई पर भारी पड़ रहा है। एफसीआई की खराब माली हालात के लिए मोदी सरकार ही जिम्मेवार है। सरकार ने पिछले चार साल में एफसीआई की सब्सिडी लगातार कम की और उसे कर्ज लेने को बाध्य किया जा रहा है। एफसीआई पीडीएस के तहत अनाज सरकार द्वारा तय कीमत पर सप्लाई करती है जबकि वह खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर करती है। ढुलाई, भंडारण और डिपो तक पहुंचाने पर अलग खर्च होता है। खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण प्रणाली विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक, 2017-18 में एफसीआई के लिए 1 किलो चावल की लागत 32.80 रुपये थी जबकि बांटा 3 रुपये किलो की दर पर। इसी तरह गेहूं की लागत 22.97 रुपये आई जबकि पीडीएस के तहत 2 रुपये किलो की दर से बेचा गया। मतलब, चावल पर लगभग 90.9 फीसदी और गेहूं पर 91.3 फीसदी सब्सिडी।

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एफसीआई के वित्त विभाग के आंकड़े बताते हैं कि 31 मार्च, 2020 तक उस पर 3,27,865.28 करोड़ रुपये का कर्ज था जो 30 सितंबर, 2020 तक बढ़कर 3,79,962 करोड़ हो चुका है। पिछले 6 माह के दौरान 52 हजार करोड़ रुपये और बढ़ गया है। यानी मोदी गरीबों को राशन देने का श्रेय तो ले रहे हैं लेकिन खामियाजा भुगत रही है एफसीआई। कर्ज का यह पैसा कहां से आ रहा है, यह भी जानना जरूरी है। एफसीआई को सबसे अधिक कर्ज राष्ट्रीय लघु बचत कोष (एनएसएसएफ) से मिल रहा है। राष्ट्रीय लघु बचत कोष का मतलब है कि जनता जो पैसा स्मॉल सेविंग्स अकाउंट में जमा करती है। एफसीआई को जब तक सरकार सब्सिडी जारी नहीं करेगी, वह पैसा लौटा नहीं पाएगी। अगर एफसीआई पैसा नहीं लौटाएगी तो नुकसान लघु बचत कोष को होगा जिसका मतलब है कि जनता के पैसे पर कभी भी खतरा मंडरा सकता है। एफसीआई के रिकॉर्ड के मुताबिक, 30 सितंबर, 2020 तक उस पर राष्ट्रीय लघु बचत कोष की बकाया 2,93,199 करोड़ हो चुका है। पहले एफसीआई इससे कर्ज नहीं लेता था। 2014- 15 में भी एफसीआई पर 91,353 करोड़ रुपये का कर्ज था लेकिन यह कर्ज कैश क्रेडिट लिमिट, बॉण्ड और बैंकों से लिया गया था। 2016-17 में सबसे पहले 70 हजार करोड़ का कर्ज राष्ट्रीय लघु बचत कोष से लिया गया जो लगातार बढ़ रहा है।

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एमएसपी का मतलब नहीं रह जाएगा

एफसीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि एमएसपी को खत्म नहीं किया जाएगा लेकिन इसे अर्थहीन बना दिया जाएगा। सरकारी खरीद में मुश्किलें पैदा की जाएंगी। संभव है कि कुछ बड़ी कंपनियां कुछ समय के लिए किसानों से एमएसपी से अधिक भाव पर उपज खरीदें, ताकि किसान का ध्यान एमएसपी से हटजाए। वह उदाहरण देते हैं कि कुछ साल पहले जिओ टेलीकॉम ने पहले मुफ्त और फिर सस्ती दर पर लोगों को डाटा सर्विस दी, अब उसकी कीमत बढ़ा दी है।

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पीडीएस में डीबीटी

जहां तक पीडीएस की बात है, सरकार ने इसका भी इंतजाम किया हुआ है। सरकार ने 2015-16 में तीन केंद्र शासित क्षेत्रों को चुना जहां पीडीएस के तहत राशन की बजाय प्रत्यक्ष नगद हस्तांतरण किया जाता है, यानी इन क्षेत्रों में गरीबों को राशन के बदले नगद दिया जाता है। इन क्षेत्रों में जहां 2015-16 में 59.31 करोड़ रुपये की नगद सब्सिडी जारी की गई, वहीं 2019-20 में 178.13 करोड़ रुपये की। स्कीम की खामी यह है कि गरीब को नगद तो सब्सिडी के बराबर मिलता है लेकिन इससे जब बाजार में राशन खरीदने जाता है तो उसे सामान बहुत कम मिलता है। एफसीआई अधिकारी कहते हैं कि बाजार भाव और एफसीआई की दर में बड़े अंतर के कारण योजना सफल नहीं हुई। अगर सफल हो गई होती तो सरकार पीडीएस बंद कर चुकी होती और इसके साथ ही एमएसपी पर खरीद भी। वह अंदेशा जताते हैं कि सरकार इन तीनों क्षेत्रों के पायलट प्रोजेक्ट को सफल बताकर पूरे देश में डीबीटी लागू कर सकती है। उसके बाद सरकार एमएसपी पर खरीद रोक देगी और एफसीआई को भी बंद कर देगी।

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निजी क्षेत्र को फायदा

एक ओर एफसीआई कर्ज में घिरती जा रही है, वहीं एक निजी कंपनी खाद्यान्न के स्टोरेज व ट्रांसपोर्टेशन में तेजी से बढ़ रही है। यह कंपनी है अडानी पोर्ट एंड लॉजिस्टिक्स (एएएलएल)। एएएलएल की वेबसाइट बताती है कि वह एफसीआई के लिए पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र और बंगाल में 5.75 लाख टन खाद्यान्न को हैंडल करती है। इसके अलावा गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश में 4 लाख टन हैडलिंग क्षमता बढ़ाई जा रही है जबकि मध्य प्रदेश में 3 लाख टन खाद्यान्न हैंडल कर रही है। कंपनी ने खाद्यान्न की ढुलाई के लिए सात रैक खरीदे हैं। हर रैक में 50 वैगन हैं। कंपनी के स्टोरेज, ढुलाई का खर्च एफसीआई उठाती है। दिलचस्प है कि कंपनी जब गोदाम बनाने के लिए एफसीआई से करार करती है, तभी 10 साल तक तय किराया देने का समझौता हो जाता है। कुछ मामलों में ये समझौते 30 साल के लिए किए गए। मतलब है कि बेशक एफसीआई के पास इतना अनाज न हो कि इन कंपनियों के पास भेज सके, फिर भी उसे किराया देना पड़ेगा।

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इस स्कीम को पीपीपी के तहत निजी उद्यमी गारंटी स्कीम नाम दिया गया है। इस स्कीम में अब तक 143.63 लाख टन भंडारण क्षमता का निर्माण हो चुका है। जबकि एफसीआई की भंडारण क्षमता 753.56 लाख टन (29 फरवरी 2020) है। यानी कि लगभग 20 फीसदी भंडारण निजी कंपनियों के पास है। कुछ सालों से एफसीआई अपनी भंडारण क्षमता कम ही बढ़ा रही है बल्कि गारंटी स्कीम के तहत निजी कंपनियों से समझौते अधिक कर रही है। लोकसभा और राज्यसभा में 13 मार्च को खाद्य, उपभोक्ता मामले और जन वितरण मंत्रालय की स्थायी समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि अब एफसीआई पीपीपी मॉडल पर अपना फोकस बढ़ा रही है क्योंकि एफसीआई द्वारा अनाज गोदामों के निर्माण में कई दिक्कतें आ रही हैं। साफ है, एफसीआई की धीमे जहर से जान लेकर निजी क्षेत्र में जान फूंकने की तैयारी है।

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