राष्ट्रीय आर्थिक अनुसंधान परिषद (एनसीएईआर) महानिदेशक पूनम गुप्ता और नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया के अगस्त में लिखे गए एक संयुक्त रिसर्च पेपर में सलाह दी गई है कि भारतीय स्टेट बैंक को छोड़कर सभी सरकारी बैंकों का निजीकरण कर दिया जाना चाहिए। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) बुलेटिन में प्रकाशित एक अन्य पेपर में कहा गया है कि एकबारगी ही सभी बैंकों का निजीकरण न करो। इसने चुने गए सरकारी बैंकों के क्रमिक निजीकरण का समर्थन किया है। गुप्ता और पनगढ़िया का तर्क है कि सरकारी बैंकों की मौजूदगी में निजी बैंकों को नीचा दिखाने की संभावना है, राजनीतिक लाभों के लिए ऋण प्रवाह के राजनीतिकरण की संभावना हो सकती है और सरकारी बैंकों को नियमित मुक्त करने से सार्वजनिक राजकोष का ज्यादा नुकसान होगा।
दोनों पेपरों के बीच एक अन्य उल्लेखनीय अंतर है। गुप्ता और पनगढ़िया ने सरकारी बैंकों में कोई विशेषता नहीं पाई। आरबीआई बुलेटिन के पेपर का निष्कर्ष है कि निजी बैंक अधिक लाभकारी और दक्ष हैं जबकि सरकारी बैंक अधिक समावेशी हैं और उन्हें अर्थव्यवस्था में अब भी प्रमुख भूमिका निभानी है। विश्लेषकों ने जब मीडिया में इस पर बवेला मचाया और, गलती से, इस नतीजे पर पहुंचे कि आरबीआई पेपर निजीकरण का विरोध कर रहा है, तो आरबीआई ने आश्चर्यजनक ढंग से यह रुख अख्तियार किया कि यह विचार शोधकर्ताओं का है और यह आरबीआई के विचारों को प्रदर्शित नहीं करता।
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सच्चाई यह है कि दोनों ही पेपर ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में अक्षमताओं, कम लाभ और एनपीए को बताते हुए निजीकरण का समर्थन किया। गुप्ता और पनगढ़िया ने एसबीआई को छोड़कर सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंकों के एक ही साथ निजीकरण की वकालत की जबकि आरबीआई शोधकर्ताओं ने पहले सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के क्रमिक निजीकरण का समर्थन किया।
सरकारी बैंकों के निजीकरण का इरादा 2020 में सामने आया। और 2021-22 के केन्द्रीय बजट में केन्द्रीय वित मंत्री निर्मला सीतारमण ने बिना नाम लिए दो सरकारी बैंकों के विनिवेश की घोषणा की। जून में खबरें थीं कि नीति आयोग ने निजीकरण के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के चार बैंकों के नाम चुने हैं। लेकिन तब से यह प्रक्रिया आगे बढ़ी नहीं लगती है। इस साल 18 जुलाई को वित्त मंत्री ने सरकारी स्वामित्व वाले बैंकों के निजीकरण की प्रतिबद्धता को पूरा करने की बात फिर की। तब भी इस दिशा में कदम बढ़ता नहीं दिख रहा।
सरकार ने उन चार बैंकों के नाम नहीं बताए हैं, नीति आयोग ने जिनके निजीकरण के सुझाव दिए हैं। पर जिन्हें लेकर मीडिया रिपोर्टो में कयास हैं, उनमें से बैंक ऑफ इंडिया में 50,000, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया में 33,000, इंडियन ओवरसीज बैंक में 26,000 और बैंक ऑफ महाराष्ट्र में 13,000 कर्मचारी हैं। ये बैंक यूनियनों की तरफ से बताए गए अनुमान हैं। बैंक ऑफ बड़ौदा के चीफ इकोनॉमिस्ट मदन सबनवीस इस सिलसिले में इस बात की ओर ध्यान दिलाते हैं कि जब सार्वजनिक क्षेत्र के तीन बैंकों का मर्जर हुआ, तो किसी की नौकरी नहीं गई। लेकिन जब निजी क्षेत्र किसी को लेगा, तो नौकरियां कम की जाएंगी। आप एयर इंडिया को ही देख लो जहां वीआरएस दिया जा रहा है।
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सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों के तुलनात्मक तौर पर कम लाभ को उनके निजीकरण का कारण बताया गया है और इसके कारण ये बताए गए हैंः अधिक प्रशासनिक खर्च, अधिक कर्मचारी और एनपीए का बढ़ता जाना। इन सबसे ऊपर सरकार का यह विचार कि सरकार को बैंकिंग समेत किसी भी तरह के बिजनेस में नहीं होना चाहिए। बताया गया है कि सरकार के मातहत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को हिन्दी पखवाड़ा, विजिलेंस पखवाड़ा, स्वच्छ भारत पखवाड़ा आदि-जैसे विभिन्न कार्यक्रमों में सरकार को अपनी पूंजी, लोग और समय को समय-समय पर लगाना पड़ता है।
निजीकरण का विरोध करने वाले लोग यह सवाल पूछ रहे हैं कि अगर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक जीरो-बैलेंस वाली प्रधानमंत्री जन धन योजना, सुरक्षा बीमा योजना आदि-जैसी स्कीमों को चलाएंगे, तो क्या वे न्यूनतम खर्च पर विभिन्न स्कॉलरशिप और सब्सिडी का भुगतान कर पाएंगे? सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की अधिकांश ग्रामीण शाखाएं अपने लाभ में बहुत थोड़ी भागीदारी कर पाती हैं। जब उनका निजीकरण कर दिया जाएगा, तब वे शाखाएं क्या बची रह पाएंगी? अगर नहीं, तो क्या ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग की स्थिति बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पहले वाली स्थिति में नहीं पहुंच जाएगी? अगर सभी बैंक निजी हो जाएंगे, तो कृषि-जैसे प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में सस्ते ऋण का क्या होगा? अधिक लाभ कमाने के नाम पर क्या सामाजिक कल्याण, समावेशी कर्ज और प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को ऋण की प्रतिबद्धता खत्म हो जाएगी?
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यह भी तर्क दिया जा रहा कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की पासबुक, एटीएम कार्ड, नगद निकासी, नॉमिनेशन, चेक बुक समेत अन्य सेवाओं के चार्ज और बैंक फीस बढ़ जाएगी। यह भी आशंका है कि स्थानांतरण, पर्क्स, जबरिया रिटायरमेंट और इस किस्म के कदमों की वजह से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के 10 लाख से अधिक कर्मचारी प्रभावित होंगे। माना जाता है कि निजी बैंकों के कर्मचारियों की संख्या सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों की तुलना में वस्तुतः कम है। सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों के खिलाफ नई तकनीक को तेजी से स्वीकार करने के मामले में उनकी अक्षमता की बात भी उद्धृत की जाती है।
गुप्ता और पनगढ़िया का मानना है कि निजीकरण के लिए वैसे बैंकों को चुनना चाहिए जिनकी संपत्ति और इक्वविटी पर सबसे अधिक रिटर्न हों और पिछले पांच साल में जिनका सबसे कम एनपीए हो। अर्थशास्त्री अजय अभ्ययंकर यह कहते हुए इसे हास्यास्पद बताते हैं कि ऐसे बैंक तो ‘सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों में सर्वोत्तम हैं। अगर आप नौकरियों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में मदद करने वाले सबसे अच्छे और सबसे अधिक लाभकारी बैंक को बेचते हैं, तो आपका इरादा निश्चित ही संदेहास्पद है।’
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बैंक ऑफ बड़ौदा के चीफ इकोनॉमिस्ट सबनवीस महसूस करते हैं कि असली सवाल तो यह है कि बैंकों को चलाना सरकार के लिए अर्थव्यवस्था के खयाल से कितना महत्वपूर्ण है। उनका कहना है कि ‘यह ऐसा सवाल है जिसका उत्तर सरकार ही दे सकती है क्योंकि वही सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की मालिक है। प्रधानमंत्री के जन धन खाते के मामले में निजी बैंक कहीं दृश्य में नहीं हैं।’
अर्थशास्त्री डॉ. एम. गोविंद राव छोटे और मध्यम श्रेणी के उद्योगों को वित्तीय मदद देने में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की भूमिका की ओर इशारा करते हैं। उनका कहना है कि देश की दृष्टि से यह कितना महत्वपूर्ण है? अर्थशास्त्री अजय अभ्यंकर बताते हैं कि ‘2008 में वैश्विक वित्तीय संकट में भारत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और बीमा कंपनियों की वजह से बचा रहा। वे अंतरराष्ट्रीय बाजार के काल्पनिक उन्माद में नहीं बन गए। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने वित्तीय स्थायित्व और समझदारी को सुनिश्चित किया।’
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