छत्तीसगढ़ के बस्तर को नक्सली समस्या के पर्याय के तौर पर देखा जाता रहा है, क्योंकि यहां के बड़े हिस्से में किसी दौर में नक्सलियों के हुक्म को मानना लोगों की मजबूरी हुआ करता था, लेकिन अब स्थितियां बदलने लगी हैं। लोगों में एक तरफ नक्सलियों का खौफ कम हो रहा है तो दूसरी ओर जिंदगी भी तेजी से बदल रही है। रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं तो शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी बदलाव नजर आने लगा है।
अब से कोई लगभग एक दशक पहले वर्ष 2013 में झीरम घाटी में हुए नरसंहार को लोग भूल नहीं पाए हैं, क्योंकि तत्कालीन कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल सहित 33 लोगों को नक्सलियों ने मौत के घाट उतार दिया था। यह संभवत देश का सबसे बड़ी राजनीतिक हत्याकांड था एक दशक पहले का दौर और अब का दौर अब लोगों में काफी बदला नजर आता है।
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बदलते बस्तर की गवाही यहां शुरू हुई कॉफी की खेती दे रही है। यहां के लगभग 22 एकड़ क्षेत्र में इसकी शुरुआत हुई थी मगर धीरे-धीरे यह पांच हजार से ज्यादा एकड़ में फैल चुकी है। इस काम से लगभग 50 गांव के 22 हजार से ज्यादा लोग जुड़े हुए हैं। यह इस बात का संकेत है कि यहां के लोग रोजगार के विकल्पों पर काम कर रहे हैं और सुरक्षाबलों की तैनाती ने आदिवासियों में विश्वास भी बढ़ाया है। अब तो यहां की कॉफी को नई पहचान देने के लिए बड़े शहरों मे बस्तर कैफे की तरफ कदम बढ़ाए जा रहे हैं।
इसी तरह पुलिस विभाग ने बस्तर फाइटर के जरिए युवाओं को रोजगार से जोड़ने की कवायद की गई है। आरक्षक के तौर पर भर्ती के करने की इस प्रक्रिया में युवक ही नहीं युवतियां भी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। पुलिस विभाग द्वारा इन फाइटरों को ट्रेनिंग दी जा रही है। इस तरह यहां का युवा भी नक्सलवाद के खिलाफ अपने को लड़ने के लिए मैदान में उतार रहा है।
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मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कहना है कि, बीते तीन साल में लोगों में डर का भाव खत्म हुआ है, अब सुदूर वनांचल में डाक्टर जाकर इलाज कर रहे हैं, शिक्षा के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ है। बंद स्कूल फिर शुरू हुए हैं। पहले सुरक्षा बलों के कैंप का विरोध हुआ करता था अब बीजापुर में नौ और सुकमा में आठ कैंप संचालित हैं। वह भी हार्डकोर एरिया में। पहले न तो कोई नक्सल प्रभावित क्षेत्र की बेटियां लेता था और न ही देता था, अब स्थिति बदली है।
कोरोना काल के दौर में जरूर नक्सलियों ने इस इलाके में अपना नेटवर्क बढ़ाने की कोशिश की। लॉकडाउन के दौरान जहां स्कूल, कॉलेज और छात्रावास या आश्रम पूरी तरह बंद थे। ऐसे में नक्सलियों ने छात्र-छात्राओं से संपर्क किया और अपने संगठन से जुड़ने की कोशिश की। माओवादियों ने तो कई बार बच्चों को भी अपने काम के लिए ढाल बनाया। इसे रोकने के लिए सुरक्षा बलों ने प्रयास किए और उन्होंने माओवादियों की साजिशों को कामयाब नहीं होने दिया।
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बस्तर जिला एक तरफ जहां नक्सल प्रभावित है, वहीं इस इलाके के लोगों की जिंदगी वनोपज पर निर्भर करती है। राज्य सरकार ने 61 लघु वनोपज के लिए समर्थन मूल्य का निर्धारण किया है और इसकी खरीदी भी हो रही है। इसके पीछे मकसद यही है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार मिल सके और वे गलत रास्ते पर भी न भटके। इसके अलावा गोबर खरीदी की योजना ने यहां के पशुपालकों को पशुपालन के लिए प्रोत्साहित किया है।
बस्तर के लोग बताते हैं कि यहां गोपालन की परंपरा नहीं रही है, मगर अब यहां लोग डेयरी उद्यमिता की तरफ बढ़ रहे हैं। यहां के कुरुसनार के अर्जुन बघेल बताते हैं कि उन्होंने इंग्लैंड की चर्चित प्रजाति क्रास एचएफ गाय एक लाख 40 हजार रुपये में खरीदी है, इसमें 92 हजार अनुदान मिला है। इसी तरह किसानों को जमीन का मालिक बनाने के लिए पट्टे दिए गए हैं।
एक तरफ जहां आय बढ़ाने के अवसर मुहैया कराए जा रहे हैं तो दूसरी ओर नई पीढ़ी की जिंदगी को संवारने के प्रयास हो रहे हैं। बेहतर शिक्षा मिले इसके लिए स्कूली शिक्षा में सुधार लाया जा रहा है, तो खेल जगत में अपनी धाक जमाने के लिए अवसर मुहैया कराए जा रहे हैं। यही कारण है कि अबूझमाड़ के ओरछा के राकेश वर्दा ने मलखंब में हैंडस्टैंड का नया विश्व कीर्तिमान बनाया है। इसके अलावा बालिकाओं में हॉकी सहित अन्य खेलों की तरफ रुझान बढ़ रहा है। कई बालिकाएं तो नेशनल स्तर पर हॉकी खेल चुकी हैं।
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ऐसा नहीं है कि माओवादियों ने बदलाव के हमराही लोगों को अपने रास्ते से अलग करने की कोशिशें न की हों, मगर यहां के लोगों में लड़ने का जज्बा भी गजब का है। बीजापुर के कुटरु गांव की सरपंच रीता मंडावी के पति घनश्याम की हत्या कर दी, क्योंकि यह पति-पत्नी सरकारी योजनाओं को जनता के बीच पहुंचाने का काम कर रहे थे। इसके बाद भी रीता मंडावी ने अपने इरादे नहीं छोड़े। पति को खोने के बाद उनकी ²ढ इच्छाशक्ति पहले से कहीं ज्यादा प्रबल है और वे अपने अभियान में जुटी हुई हैं।
(आईएएनएस के इनपुट के साथ)
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