हर किसी को पता था कि ऐसा ही होगा, और बहुत ही बुरी खबर के लिए हर कोई तैयार भी था। अंतत: वह आंकड़े सामने आ गए हैं जिससे पता चलता है कि जी-20 देशों में इस समय भारत की अर्थव्यवस्था सबसे खराब हालत में पहुंच चुकी है। देश की जीडीपी में 23.9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। यह गिरावट अप्रैल से जून की तिमाही में हुई है। हो सकता है वित्त मंत्री इसे एक्ट ऑफ गॉड यानी इसमें ऊपर वाले का हाथ बता दें, लेकिन सरकार के पास इस बात का क्या जवाब है कि विश्व के सभी कोरोना संक्रमित मरीजों में से 28 फीसदी अकेले भारत में हैं। मतलब साफ है कि लॉकडाउन कोरोना का संक्रमण रोकने में नाकाम रहा और अर्थव्यवस्था का भट्टा बैठ गया।
सोमवार को ही सेंसेक्स ने 839 अंकों का गोता खाया, निवेशकों को लाखों करोड़ देखते-देखते स्वाहा हो गए, इसी बीच बुरी खबर आ गई कि देश की अर्थव्यस्था उलटी दिशा में चल पड़ी है और इसे वापस सही रास्ते पर आने की संभावना न सिर्फ गौण बल्कि दूर भी है। यानी अब केंद्र सरकार, राज्यों को उका जीएसटी बकाया नहीं देगी, वित्तीय लक्ष्यों को सरकार पहले ही लांघ चुकी है, और वित्तीय घाटा 8.21 लाख करोड़ को हो गया है जो कि मौजूदा वित्त वर्ष के लिए तय लक्ष्य से 103.1 फीसदी अधिक है।
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प्रधानमंत्री मोदी द्वारा घोषित और वित्त मंत्री द्वारा 5 धारावाहिक किस्तों में पेश कथित 20 लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज हवा में उड़ चुका है। अर्थव्यवस्था गर्क में पहुंच चुकी है और भले ही अगले तीन महीने में इसमें कुछ सुधार नजर आए क्योंकि लॉकडाउन उ
लिया गया है, लेकिन सरकार के पास ईंधन ही नहीं बचा है कि वह देश की आर्थिक गाड़ी को चला सके। हो सकता है जीडीपी के आंकड़े आने वाले दिनों में सुधरते दिखें लेकिन आने वाली तिमाहियों में आम नागरिकों की मुसीबतों और दिक्कतें और बढ़ने की आशंका है क्योंकि इस हादसे का असर हर किसी पर पड़ेगा।
इस हादसे के लिए वित्त मंत्री भगवान को जिम्मेदार ठहराती हैं, एक तरह से वह इस दुर्व्यवस्था की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही हैं। राजनीतिक तौर पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का तर्क और रुख समझा जा सकता है, लेकिन उन्हें यह तो जवाब देना ही पड़ेगा कि आखिर पिछले वित्त वर्ष 2019-20 की चौथी तिमाही में विकास दर गिरकर 3.09 फीसदी क्यों पहुंची थी जो बीती 44 तिमाहियों का सबसे निचला स्तर है।
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हो सकता है सरकार इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में विकास दर में हुए खून-खच्चर का कारण कोरोना को ही बता देगी, लेकिन समस्या तो यह है कि एक तरफ जब सरकार की आमदनी यानी राजस्व संग्रह गिर रहा है तो सरकारी खर्च में इजाफा हुआ है। अब हम ऐसे दोराहे पर खड़े हैं जहां या तो सरकार को विशाल वित्तीय घाटे का सामना करना पड़ेगा या फिर सरकारी खर्च में जबरदस्त कमी करनी पड़ेगी। और हो सकता है कि सरकार ये दोनों ही काम करे। और ऐसे में एक और बुरी खबर यह है कि आरबीआई के पास इतनी गुंजाइश ही नहीं बची है कि वह सरकार को कुछ राहत दे सके।
ऐसे में इन आंकड़ों को एक परिप्रेक्ष्य में रखना अहम हो जाता है। चालू वित्त वर्ष के लिए सरकार ने कुल वित्तीय घाटे का अनुमान 8 लाख करोड़ रुपये का लगाया था, लेकिन अब यह बढ़कर 13 लाख करोड़ रुपए तक जा सकता है, यानी 5 लाख करोड़ रुपये अधिक है। इसका मतलब होगा कि सरकारी योजनाओं के लिए कम पैसा- और ऐसा केंद्र के साथ राज्यों में भी होगा। एक तरफ जब निजी या व्यक्तिगत उपभोग गिर रहा है, ऐसे में सरकार भी खर्च में कटौती करेगी तो इससे मंदी में और इजाफा होगा। संक्षेप में कहें तो हालात बदतर ही होने वाले हैं।
तो सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या कोरोना संकट को बेहतर तरीके से संभाला जा सकता था? जवाब है हां, बशर्ते सरकार ने अर्थव्यवस्था को रसातल में जानबूझकर नहीं फिसलने दिया होता, क्योंकि उसे पता था कि ऐसा ही होगा। वैसे भी बीते 6 साल के दौरान अर्थव्यवस्था की सहन क्षमता सरकार के के के बाद एक ऊलजलूल फैसले के चलते कमजोर हो गई है। ये फैसले आज भले इतिहास हो गए हों लेकिन तथ्य यह है कि करोड़ों भारतीय परिवारों के पास खुद को संभालने के लिए कोई बचत नहीं रही है।
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सरकार ने जब देश में पूर्ण लॉकडाउन लगाया तो एक भ्रम पैदा कर दिया कि महामारी पर सरकार का नियंत्रण है, लेकिन तथ्य यह है कि सरकार अपनी खाल बचाने के लिए समय की दुगाड़ कर रही थी। इसे एक तरह से सड़क पर लाठी पीटना भी कह सकते हैं। लॉकडाउन और अनलॉक मीडिया के लिए महान जुमले हो सकते हैं, लेकिन जब एक एक दिन में 78,761 लोग तक कोरोना पॉजिटिव पाए जा रहे हैं तो ऐसे में अर्थव्यवस्था को अनलॉक कैसे कर सकते हैं। हकीकत तो यह है कि सरकार को पता नहीं था कि ऐसे हालात में क्या किया जाए। और यही स्थिति अब भी है।
तो अह आगे क्या होगा? आने वाले महीनों में सबसे बड़ा संकट जो हो सकता है वह यह है कि सरकारें (केंद्री और राज्य दोनों) अपने कर्मचारियों को वेतन भुगतान करने में चूक जाएं। राज्यों की समस्या तो बदतर है क्योंकि जीएसटी संग्रह में कमी केंद्र सरकार से ज्यादा राज्यों को प्रभावित करती है। पीएम किसान निधि और मनरेगा के भुगतान में देरी आने वाले महीनों में एक और गंभीर समस्या हो सकती है क्योंकि यह जमीनी स्तर पर खपत को प्रभावित करेगा।
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इससे भी बड़ी समस्या अब सामने आएगी क्योंकि आरबीआई का लोन मोरेटोरियम यानी कर्ज भुगतान की समयसीमा अब समाप्त हो रही है और लोगों को इस अवधि के ब्याज पर ब्याज चुकाना है। कर्ज को नए सिरे तय करना एक विकल्प है लेकिन इससे सिर्फ उपभोक्ता खर्त में कमी ही आएगी। ऐसे में आमने वालसे दिनों में एनपीए यानी ऐसे कर्ज जिनका भुगतान नहीं हो पाता है, उनमें भारी वृद्धि देखने को मिल सकती है। हो सकता है कि आर्थिक गतिविधियों में सुधार को ध्यान में रखते हुए मार्च 2021 तक 12.5 से 15 फीसदी के बीच हो सकता है।
इससो कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप इसे कैसे देखते हैं या आपके पास मौजूदा आर्थिक हालात को लेकर क्या दृष्टिकोण है, लेकिन दिशाहीन नीतियों और महामारी के संयोजन ने अर्थव्यवस्था को गर्त में पहुंचा दिया है। अल्पावधि में तो हमारे सामने मुसीबतों का पहाड़ टूटने वाला है, हां लंबी अवधि में कुछ सुधार की उम्मीद है। लेकिन, जैसा कि डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था, दीर्घावधि में हम सभी को एक दिन खत्म हो जाना है।
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