कुछ बातें ध्यान में रखने वाली हैं। सितंबर में महाराष्ट्र की मंडियों में 50 फीसदी से अधिक प्याज आया। पिछले साल इसी महीने की तुलना में इस साल यह 53.17 प्रतिशत अधिक था। तब, बाजार में इसके दाम क्यों बढ़ते चले गए और अब भी थमने का नाम नहीं ले रहे। जाने-माने कृषि नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने अभी हाल में अपने कॉलम में लिखा है कि यह पुराना तरीका है। अगर आपूर्ति में 4 फीसद की भी गिरावट हो, तो दाम 400 फीसद तक बढ़ जाते हैं। दरअसल, व्यापारी कम कीमतों पर माल लेते हैं, बाजार में कमी खुद पैदा करते हैं और फिर, महंगे दाम पर इसे बेचकर मुनाफा कमाते हैं।
सरकार कुछ ठोस करने की जगह आंकड़ों की बाजीगरी में लगी है लेकिन खुद ही बेपर्दा भी हो जा रही है। एक सरकारी बयान में कहा गया कि पांच साल पहले प्याज का औसत मूल्य 25.87 रुपये प्रति किलोग्राम था। पिछले साल औसत दाम 55.60 रुपये प्रति किलाग्राम था। बयान में माना गया कि ‘इस तरह पिछले पांच साल के औसत की तुलना में कीमतें 100 प्रतिशत तक बढ़ गईं।’ अब सरकार ने व्यापारियों के लिए इसके भंडारण की सीमा तय कर दी है।
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वैसे, सब्जियों के दाम ऊपर-नीचे होते रहते हैं। लेकिन इस वक्त तो सबके दाम आसमान पर हैं, चाहे जिसके भी नाम ले लें- मूली, गाजर, हरी मिर्च, भिंडी, फूलगोभी, बंदगोभी, बैंगन, परवल। अगस्त की तुलना में सितंबर में अंडे, मछली और मुर्गे की कीमतों में भी 17.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। सप्लाई चेन अब भी बाधित होना इसका कारण बताया जा रहा है। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र से मांग की तुलना में सप्लाई कम है।
लेकिन लगता है, सरकार की इस बात में न तो रुचि है और न इच्छा शक्ति कि कीमतों पर लगाम लगाने के उपाय किए जाएं। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें पिछले वर्षों के दौरान जिस तरह बढ़ती ही गई हैं, उसका उदाहरण सामने ही है। अब तो मीडिया में इसके रेट देखने की उत्सुकता-जरूरत भी लोग नहीं समझते। सरकार का ध्यान टैक्स के तौर पर अधिक-से-अधिक पैसे उगाहना है। कोविड-19 के प्रकोप के दौरान निजी अस्पतालों ने जांच, पीपीई, यहां तक कि ऑक्सीजन और ब्लड के लिए मनमानी कीमतें वसूलीं लेकिन इन पर कार्रवाई हुई हो, इसका अनुभव कम-से-कम आम लोगों को तो नहीं ही है।
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ऐसा भी नहीं है कि लोग कीमतों में बढ़ोतरी का दर्द महसूस नहीं कर रहे। देश के हर घर में इस पर चर्चा तो हो ही रही है। बिहार चुनावों के दौरान यह मुद्दा बना हुआ है। सोलन में गृहणी ललिता ने कहा कि लॉकडाउन की शुरुआत में तो आलू-प्याज 15 से 20 रुपये प्रति किलो तक मिल गए। लेकिन अब ललिता आलू 60 रुपये और प्याज 80 रुपये प्रति किलो तक खरीद रही हैं। सरसों तेल पहले 110 रुपये में मिल रहा था, अब उसकी कीमत 150 रुपये हो गई है। इसी तरह रिफाइंड की कीमत में 25 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो गई है। लेकिन यह जानना भी जरूरी है कि इन्हीं चीजों के दाम ऑनलाइन शॉपिंग में अपेक्षाककृत कम हैं। तो क्या कालाबाजारी के शिकार सिर्फ वे आम लोग हो रहे हैं जो बाजार जाकर नगद खरीद रहे हैं?
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कुछ भी हो, इन सबका असर आम विक्रेताओं पर हो रहा है। दिल्ली में फल बेचने वाले शाहिद का कहना है कि उसकी दैनिक बिक्री पांच गुना तक कम हो गई है। लॉकडाउन के दौरान सामान्य सामान की खरीद-बिक्री में सांप्रदायिक विभाजन की खबरें खूब आई थीं। उस वक्त अफवाह फैल गई थी और कुछ वीडियो वायरल हुई थे कि मुसलमान गंदा कर सामान बेच रहे हैं ताकि कोरोना की बीमारी अधिक-से-अधिक फैले। लगता है, वह दौर अब भी खत्म नहीं हुआ है। किराने की छोटी-सी दुकान चलाने वाले एक व्यक्ति ने कहा भीः भाई साहब, 70 साल की उम्र में मैंने ऐसी परेशानी कभी नहीं उठाई। लोग सामान खरीदते वक्त धर्म पूछते हैं।
जीवन रक्षक और रूटीन- दोनों तरह की दवाओं के दाम भी उसी गति से बढ़ रहे हैं। इसका सबसे अधिक असर अधिक उम्र वाले लोगों पर पड़ रहा है। ऐसे लोगों के मासिक बिलों में 25 से 30 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो गई है।
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लेकिन ऐसा नहीं है कि सरकार इस पर अंकुश नहीं लगा सकती है। इसे आंखें खेलने वाले एक उदाहरण से समझें। दैनिक ट्रिब्यून की एक खबर के अनुसार, पंजाब में फरीदकोट की रेड क्रॉस सोसाइटी ने 90 दवाओं की सूची जारी की है। ये दवाएं वह इनके न्यूनतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) से 5 से 10 गुना कम कीमत पर लोगों को उपलब्ध करा रही है। अखबार ने सोसाइटी के अधिकारियों का यह बयान भी उद्धृत किया है कि ‘वास्तविक मूल्य और एमआरपी में भारी अंतर है, इसलिए हमने विभिन्न बीमारियों के लिए आम तौर पर उपयोग की जाने वाली 93 दवाओं को लोगों को सस्ती दरों पर उपलब्ध कराने का फैसला किया है।’
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अखबार ने बताया है कि एंटिबायटिक ओजोन-ओज का एमआरपी 120 रुपये दवा पर छपा है, मगर रेड क्रॉस की दुकान पर यह 26 रुपये में उपलब्ध है। दर्द दूर करने वाली दवाओं- पायरोक्सिजेन-डीटी और एएसपी सैशे की एमआरपी 71 और 90 रुपये छपी है, पर ये दोनों यहां 7 और 18 रुपये में मिल रही हैं। इसी तरह एसिडिटी होने पर दी जाने वाली रैबिबैक-डीएसआर की कीमत 110 रुपये छपी है, लेकिन यह यहां 16 रुपये में मिल रही है। रेड क्रॉस सोसाइटी के सचिव सुभाष चंदर का कहना है कि ‘हम कोई घाटा सहकर या डिस्काउंट के आधार पर इन्हें नहीं बेच रहे हैं। दवाओं और सर्जिकल सामान की वास्तविक कीमतों की तुलना में एमआरपी दस गुना तक हैं।’ अगर यह बात सही है, तो क्या ऐसा देश भर में नहीं किया जा सकता?
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असल में, पेंच कई है। रसायन मंत्रालय का नियम है कि दवाओं के उत्पादन खर्च की तुलना में एमआरपी 50 से 100 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकते। लेकिन बाबा फरीद यूनिवर्सिटी ऑफ हेल्थ साइसेंस के उपकुलपति डॉ. राज बहादुर का कहना है कि कई जानी-मानी फार्मास्युटिकल कंपनियां 500 से 1,000 प्रतिशत अधिक पर अपने उत्पाद बेचती हैं। अपनी आमदनी की तुलना में अपने और अपने परिवार के लोगों पर अधिक खर्च करने की वजह से हर साल देश में 5.5 करोड़ से अधिक लोग गरीबी में धकेल दिए जाते हैं। देश में सरकार हेल्थकेयर पर जीडीपी का 1.3 प्रतिशत से भी कम खर्च करती है। सोचा ही जा सकता है कि इस हाल में कोविड के दौर में लोगों ने क्या-क्या भोगा होगा? (कृष्ण सिंह, राम शिरोमणि शुक्ल और ए जे प्रबल की रिपोर्टों पर आधारित)
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