क्या नरेंद्र मोदी किसानों की खेती लागत पर पचास फीसदी मुनाफे की बात अब से भी सुनिश्चित करेंगे जिसकी बात वह 2014 में केन्द्र की सत्ता में आने से पहले करते थे! या वह उसे उसकी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिलाने को कानूनी जामा पहनाने की पहल करेंगे जिसकी वकालत गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए करते रहे! यह चिंता है भदोही-इलाहाबाद फोर लेन के एक ढाबे पर बैठे उन युवाओं की जो कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के बाद आपस में बतिया रहे थे। बातचीत के और भी रंग हैं।
तो क्या इस वापसी का चुनावों पर, आपके वोट पर असर पड़ेगा? सीधा जवाब था- नहीं! क्यों? बोले- सरकार ने इतने दिन हठधर्मिता दिखाकर न सिर्फ अपनी मंशा जाहिर कर दी बल्कि लखीमपुर से यह भी बता दिया कि वह कितनी दूर तक जा सकती है। फूलपुर के रामकुमार मौर्य का कहना था- ‘अब यह समर्थक भी समझने लगे हैं कि चुनाव की बेला में मोदी जी कुछ भी कर सकते हैं।’ उनकी और साथियों की बातों से इतना तो साफ था कि भाजपा के वैसे समर्थक हों न हों लेकिन नरेन्द्र मोदी के प्रति उनका थोड़ा झुकाव है जहां अब मोहभंग की स्थिति है। ऐसे में बड़ा और स्वाभाविक सवाल है कि कृषि कानूनों की वापसी के फैसले की अप्रत्याशित घोषणा का उत्तर प्रदेश के चुनावों या कह लें कि अगले कुछ महीनों में होने वाले कई राज्यों के चुनावों में क्या कुछ असर पड़ेगा? फ़िलहाल बात यूपी की।
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इसे पूर्वांचल से आने वाले भाजपा के एक बड़े नेता और विधायक की बात से समझते हैं। वह इसे निहायत अदूरदर्शी कदम मानते हैं। कहते हैं- ‘यही था तो आंदोलन शुरू होने के दो-तीन महीने के अंदर करना था। तब यह वाकई किसान हितैषी होता और किसान हमसे इतनी दूर न जाते।’ कहते हैं कि ‘अवसर तो उस वक्त भी था जब सुप्रीम कोर्ट बार-बार मौका दे रहा था। तब वापस कर खुद को किसानों का हितैषी दिखाया जा सकता था।’ वह सतपाल मलिक की बातें भी याद दिलाते हैं और यहां तक कह जाते हैं कि ‘जिस मुद्दे पर आपने अपने 15 साल पुराने सहयोगी अकाली दल को दांव पर लगा दिया, उस मुद्दे पर अब अमरिंदर ने क्या दिखा दिया कि अचानक रोलबैक पर उतर आए?’
प्रतिक्रियाओं से साफ है कि फैसले से केन्द्र सरकार ने न सिर्फ साख खोई बल्कि योगी सरकार के लिए नई चुनौती भी खड़ी कर दी है। सच तो यह है कि पश्चिम की वह जमात जो फिर भी मन से मोदी के साथ थी, अब वह भी पूछ रही है कि ‘तो क्या सरकार गलत थी?’ पूरब और अवध का छोटी जोत वाला किसान भी, जो कह रहा था कि उसे न तो इन कानूनों से कोई वास्ता है न किसान आंदोलन से, उसके मन में भी यह स्वाभाविक सवाल उठने लगा है कि कहीं तो कुछ था जो गलत था।
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वैसे, पश्चिम के किसानों और डेढ़ सौ के करीब विधानसभा सीटों को प्रभावित करने वाले इस इलाके के बारे में बरेली के राजेश गंगवार की टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि अभी तक लखीमपुर से लेकर मुरादाबाद और बिजनौर-बदायूं से लेकर उरई-जालौन तक दो धाराएं बह रही थीं। एक धारा कह रही थी कि तीनों कृषि कानून किसान विरोधी हैं, दूसरी इसे किसानों का असल हितैषी बता रही थी। इस ऐलान के बाद तो अब ‘दोनों धाराएं’ एक हो गई हैं और कह रही हैं कि किसान नहीं, सरकार गलत थी। ऐसे में जिस बात को प्रधानमंत्री मोदी ‘बड़ा दिल दिखा गए’ कहकर प्रचारित किया जा रहा है, वह किसानों को कहीं पहले से भी ज्यादा बड़ा मुद्दा दे देने जैसा तो नहीं!
लखनऊ में राकेश टिकैत की पंचायत का नजारा देखने आए शाहजहांपुर के प्रशांत मिश्रा की नाराजगी अनायास नहीं है कि जिस लखीमपुर ने किसान आंदोलन के नाम पर इतना कुछ देखा-झेला और उसे बारबार उसके ही गलत होने का अहसास कराया जाता रहा, उस लखीमपुर को कोई क्या जवाब देगा और कैसे संतुष्ट करेगा। मतलब, यूपी में पूरब से पश्चिम और अवध से लेकर बुंदेलखंड तक किसान आंदोलन और कृषि कानूनों को लेकर अगर कोई नई राय दिखती है तो यही कि कम-से-कम देश की राजनीति की धुरी बनने वाले इस विशाल राज्य में तो कानूनों की वापसी का कोई असर फिलहाल चुनाव में नहीं पड़ने जा रहा। हां, यह जरूर है कि महंगाई और किसान इस बार यूपी में बड़ा नहीं बल्कि बहुत बड़ा मुद्दा बनने जा रहे हैं।
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ऐसे हालात में बाजी कमजोर पड़ती देख हिन्दू- मुस्लिम वाला पुराना आजमाया नुस्खा इस बार कितना असर करता है, यह चुनाव इस बात का भी परीक्षण कर देंगे। गौर करना होगा कि आय दोगुनी करने से लेकर खाते में पैसा आने और तेल के दाम तक नरेन्द्र मोदी को बार-बार झूठा साबित करने वाला विपक्ष 11 से ज़्यादा महीने तक कृषि बिलों की तारीफ और अब इनकी वापसी और माफी को मोदी के एक और बड़े झूठ के तौर पर प्रचारित करने में कोई चूक नहीं करेगा। राकेश टिकैत के साथ ही प्रियंका गांधी और अखिलेश यादव सहित कई नेताओं के ताजा बयानों के संकेत तो ऐसे ही हैं। इंतजार यह भी रहेगा कि कानून वापसी और माफी को अगर मास्टर स्ट्रोक नहीं बना पाए नरेन्द्र मोदी तो क्या बहुत जल्द ही एमएसपी पर गारंटी और तेल के मूल्य में एक और कटौती जैसा कोई मजबूरी भरा नया कदम उठाकर वह इसे मास्टर स्ट्रोक में तब्दील करने का एक और दांव नहीं खेल जाएंगे! अतीत के सबक हैं कि दांव तो कुछ और भी चले जा सकते हैं!
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