पूरे असम में डर का माहौल है। और हो भी क्यों नहीं? सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि आगामी 31 अगस्त को असम में एनआरसी का प्रकाशन होगा और अब इसकी तारीख नहीं बढ़ाई जाएगी। पिछले साल 30 जुलाई को एनआरसी के अंतिम ड्राफ्ट के प्रकाशन के समय 40 लाख लोगों के नाम सूची में शामिल नहीं हुए थे। इनमें से 36 लाख लोगों ने फिर दावा किया है। इससे पहले 26 जून, 2019 को एक लाख लोगों के नाम ड्राफ्ट से काटे गए। केवल कागज के आधार पर नाम दर्ज किए जाने की शर्त रखी गई है इसलिए आशंका है कि लाखों लोगों के नाम शामिल नहीं हो पाएंगे। जो लोग एनआरसी की वजह से झूल रहे हैं, उन्हें पता नहीं है कि 1 सितंबर के बाद उनके साथ क्या होने वाला है। उनका नाम छूट गया, तो वे कुछ करने लायक रहेंगे या नहीं।
सरकारी अफसर भी अनौपचारिक बातचीत में कहते हैं कि कम-से-कम 15 लाख लोगों के नाम सूची में शामिल नहीं होंगे और उनकी नागरिकता खत्म हो जाएगी। फिर भी, ऐसे नागरिकता विहीन लोगों के साथ क्या सलूक किया जाएगा, इसे लेकर राज्य और केंद्र की बीजेपी सरकारों ने अब तक कोई कारगर योजना नहीं बनाई है। नियमतः ऐसे लोगों को उनकी संपत्ति, मत देने आदि के अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा और उन्हें डिटेन्शन कैंपों में रखना होगा। इस तरह के कैंप अलग से नहीं बनाए गए हैं। जिला जेलों के अंदर ही एक खास एरिया को डिटेन्शन कैंप मान लिया गया है।
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लोकसभा में अभी 16 जुलाई को सरकार की तरफ से जो जवाब दिया गया है, उसके अनुसार 1 लाख 17 हजार 164 लोग अब तक विदेशी घोषित किए जा चुके हैं। इसमें अभी एनरसीआ प्रक्रिया वाले लोगों की संख्या शामिल नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी में आदेश दिया कि इस तरह विदेशी या संदिग्ध नागरिकता घोषित किसी व्यक्ति को तीन साल से अधिक समय तक डिटेन्शन कैंप में नहीं रखा जा सकता। फिर भी, एनसीआर प्रक्रिया में 15 लाख की नागरिकता संदेहास्पद हो जाती है, तो उन्हें कैंपों में रखना होगा।
सरकार संसद में भले करीब सवा लाख विदेशियों की पहचान की बात कर रही हो, जमीनी स्थिति जानना दिलचस्प है। अभी फरवरी माह में राज्य सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट को बताया गया कि 938 लोग ही डिटेन्शन कैंपों में हैं। इनमें से 823 लोग विदेशी हैं जबकि बाकी बचे 105 लोग संदिग्ध (डी) वोटर हैं। पहचाने गए करीब 75 हजार लोगों का कोई अता-पता नहीं है।
सरकारी अफसर यह भी कह रहे हैं कि डी वोटरों की संख्या अगर इतनी अधिक बढ़ गई, तो उन्हें कैंपों में रखने की समस्या के साथ यह दिक्कत भी होगी कि अभी पर्याप्त संख्या में विदेशी ट्रिब्यूनलों का गठन भी नहीं हो पाया है। असम में कहने को तो 100 विदेशी ट्रिब्यूनल हैं लेकिन वस्तुतः इनमें से 70 ही काम कर रहे हैं। राज्य सरकार ने ऐसे 1,000 ट्रिब्यूनल गठित करने का प्रस्ताव केंद्र को भेजा था। केंद्र ने 400 ट्रिब्यूनल के गठन को मंजूरी दी है और सितंबर में 200 ट्रिब्यूनल के गठन की बात कही गई है।
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नागरिकता से वंचित होने वालों को वर्षों अपनी नागरिकता साबित करने की कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ सकती है। गृह मंत्री अमित शाह जिस तरह बार-बार मुस्लिम शरणार्थियों की तुलना दीमक से करते हैं, उससे समझा जा सकता है कि अफसरों पर भारी दवाब है कि वे अधिक-से-अधिक मुसलमानों को संदिग्ध नागरिकता वाली सूची में रखें। ड्राफ्ट एनआरसी में 15 लाख मुसलमानों के नाम शामिल नहीं किए गए हैं।
पूरी प्रक्रिया के दौरान प्रशासन का रुख अधिक से अधिक मुसलमानों को नागरिकता से वंचित करने का रहा है। वैसे, इन सब कारणों से भय और आशंका का माहौल सिर्फ मुसलमानों में ही नहीं है। बिहार और उत्तर प्रदेश- जैसे राज्यों से आकर असम में बसे लोग भी नागरिकता से वंचित होने की आशंका का सामना कर रहे हैं। एनआरसी ड्राफ्ट में नाम नहीं आने पर पचास से भी अधिक लोग खुदकुशी कर चुके हैं। ग्रामीण इलाकों में कई पीढ़ियों से रह रहे लोग अपनी जमीन कौड़ियों के भाव बेचकर पलायन भी कर चुके हैं।
एनआरसी के प्रकाशन के बाद जिन लोगों की नागरिकता छीन ली जाएगी, उनको विदेशी ट्रिब्यूनल, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक अपनी नागरिकता साबित करने की कानूनी लड़ाई कई सालों तक लड़नी पड़ेगी। हो सकता है, कुछ लाख लोग इस तरह अपनी नागरिकता साबित करने में सफल भी हो जाएं लेकिन अधिकतर लोगों को नागरिकता विहीन जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
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स्पष्ट है कि नागरिकता से वंचित होने वालों को लंबी और कठिन कानूनी प्रक्रिया का सामना करना पड़ेगा और आर्थिक रूप से कमजोर लोग सीधे डिटेन्शन कैंप में बंदी बनकर जीने के लिए मजबूर किए जाएंगे। ऊंची अदालतों तक जाने का खर्च गरीब तबके के लोग उठा नहीं पाएंगे।
मानवाधिकार कार्यकर्ताशेख सालिक को आशंका हैः एनआरसी के प्रकाशन के बाद विश्वका सबसे बड़ा मानवीय संकट असम में पैदा होने वाला है। यहां नागरिकता से वंचित होने वाले लोगों की तादाद दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में सबसे ज्यादा हो जाएगी। म्यांमार में नागरिकता विहीन रोहिंग्यालोगों की तादाद दस लाख है। कोटे डी आइवर में 7 लाख, थाईलैंडमें 5 लाख और सीरिया में 3.6 लाख नागरिकताविहीन लोग हैं। नागरिकता खत्महोने का अर्थहै पहचान, अधिकार और जीविका से पूरी तरह वंचित होना।
सामाजिक कार्यकर्ताअनूप शर्माका कहना हैः एनआरसी की पूरी प्रक्रिया ही दोषपूर्णरही है। किसी व्यक्तिको विदेशी साबित करने का काम प्रशासन को खुद ही करना चाहिए था। एनआरसी प्रक्रिया में हर व्यक्तिपर ही जिम्मेदारी थोप दी गई किवे अपनी नागरिकता को कुछ निर्धारित कागजों को पेश कर साबित करें। अखबारी विज्ञापनों को छोड़कर कोई जागरूकता पैदा करने का प्रयास नहीं किया गया। ग्रामीण इलाकों में जमीन के दस्तावेजों को संभालकर रखने वाले कम लोग ही होते हैं। इसी तरह निरक्षर लोगों के पास शैक्षणिक प्रमाणपत्र होने का सवाल ही नहीं पैदा होता। हर साल आने वाली बाढ़ से उजड़ने वाले लोग अपने पुराने दस्तावेजों को गंवा चुके हैं। ऐसे तमाम भारतीय नागरिकता रखने वाले लोग हैं जो सरकारी सनक के चलते नागरिकता से वंचित होने वाले हैं।
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