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सवर्ण आरक्षण: पूर्व मुख्य न्यायाधीश और कानूनविद मानते हैं कि लागू नहीं हो पाएगा 10 फीसदी काेटे का कानून

मोदी सरकार ने सरकारी नौकरियों और उच्चशिक्षण संस्थानों में ऐसे तबके को 10 फीसदी आरक्षण दिया है जो पहले से ही अपनीसंख्या से कहीं अधिक सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में मौजूद है। मोदीसरकार का यह कदम संविधान निर्माताओं के उस लक्ष्य को पराजित करता है जिसकीउन्होंने कल्पना की थी।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन का कहना है कि, “सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में सवर्णों के कमजोर तबके को 10 फीसदी आरक्षण देने के लिए किया गया संविधान संशोधन लागू करने में कई तरह की दिक्कतें आएंगी।”

बालाकृष्णन का मानना है कि मोदी सरकार द्वारा संविधान में 124वां संशोधन दरअसल संविधान के अनुच्छेद 15(4) और अनुच्छेद 16(4) के खिलाफ है। उनके मुताबिक संविधान का अनुच्छेद साफ बताता है कि सरकार देश के नागरिकों में धर्म, जाति, वंश, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेद या पक्षपात नहीं कर सकती।

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उन्होंने स्पष्ट किया कि, “लेकिन, संविधान का अनुच्छेद 15(4) इसका एक अपवाद भी है। इसके मुताबिक ऊपर दी गई व्यवस्था के बावजूद सरकार को किसी भी सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर पिछड़े तबके की प्रगति और विकास के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार है। नए संविधान संशोधन के लिए सामाजिक और शैक्षणिक शब्द ही दिक्कत खड़ी करेंगे। जरूरी नहीं है कि आर्थिक रूप से कमजोर कोई तबका सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर पिछड़ा हो।”

इसी तरह अनुच्छेद 16 में भी सरकारी रोजगार में समान अवसर देने की बात कही गई है। बालाकृष्णन ने बताया कि, “अनुच्छेद 16(4) में कहा गयाहै कि सरकार किसी भी ऐसे पिछड़े तबके को नियुक्तियों में आरक्षण दे सकती है, जिनका सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। लेकिन इसमें भी सिर्फ पिछड़े तबके की बात की गई है और वह भी ऐसे जिनका प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं है।“

पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने बताया कि जब इस संशोधन की समीक्षा होगी तो पहला सवाल यही उठेगा कि क्या पिछड़े तबके का सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व है। और अगर नहीं है, तो सवर्णों से पहले उन्हें आरक्षण क्यों नहीं दिया जाना चाहिए।

वहीं सुप्रीम कोर्ट की नेशनल ज्यूडिशियल एकेडमी के पूर्व प्रमुख मोहन गोपाल का कहना है कि, “इस संविधान संशोधन की संवैधानिकता का फैसला सुप्रीम कोर्ट करेगा। यह एक प्रतिगामी या पक्षपात करने वाला कदम है।” उन्होंने कहा कि, “यह कदम ऐतिहासिक तौर पर चतुरवर्ण पद्धति में हाशिए पर धकेल दिए गए समूहों को सशक्त समर्थ बनाने के संविधान के मूल लक्ष्यों से गद्दारी है। आरक्षण का मकसद सरकारी प्रतिनिधित्व के वास्तविक लोकतंत्र में सामाजिक अनुपात को सुनिश्चित करना है। लेकिन ऐसे तबके के लिए 10 फीसदी आरक्षित कर देना जो पहले कहीं अधिक मौजूद है संविधान निर्माताओं और लेखकों के सामाजिक क्रांति के लक्ष्य को पराजित करता है।”

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मोहन गोपाल का कहना है कि, “इस कानून का बनना एक लक्ष्मण रेखा को लांघने जैसा है। यह कानून संविधान के उस मूल चरित्र को बदलता है जो हाशिए पर धकेल दिए गए तबके के उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए एक हथियार का काम करता है ताकि सिर्फ एक छोटे वर्ण के हाथों में सत्ता सीमित न होकर रह जाए।”

देखें तो गरीबी खत्म करने के लिए लाई गयी आवासीय, शिक्षा या जलापूर्ति की योजनाएं जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करतीं। मोहन गोपाल का मानना है कि गरीब सवर्णों को अपने सामाजिक तंत्र के कारण पहले से ही इन सभी योजनाओं का भरपूर लाभ मिल रहा है, और अब इस कानून से उन्हें एक ऐसी व्यवस्था से दोचार होना पड़ेगा जिसका उन्होंने कभी सामना नहीं किया।

उन्होंने कहा कि गरीबी निवारण की योजना में बिना किसी वैज्ञानिक या सामाजिक तर्क के जाति का आधार बनाना खतरनाक है और इससे समाज का ध्रुवीकरण होगा। उनका कहना है कि इस किस्म की किसी भी योजना का लाभ बिना किसी जातिगत भेदभाव के सभी गरीबों को मिलना चाहिए। उनके मुताबिक गरीबी निवारण को संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 से नहीं मिलाना चाहिए क्योंकि ये दोनों अनुच्छेद सामाजिक पूर्वाग्रह और बहिष्करण को रोकने की व्यवस्था देते हैं।

दरअसल हमें यह समझना होगा कि जब सरकार कहती है कि 8 लाख रुपए सालाना कमाने वाले सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थानों में 10 फीसदी आरक्षण मिलेगा तो इसका अर्थ हुआ कि 65,000 रुपए महीना कमाने वाला व्यक्ति इस व्यवस्था के लिए पात्र होगा। बालाकृष्णन अंत में कहते हैं कि, “इसका अर्थ यह भी हुआ कि अब देश के 80-85 फीसदी लोग आरक्षण के हकदार हो गए। अगर इसको व्यवहारिक बनाना होता तो सालाना आमदनी की सीमा 5 लाख रुपए होती। तो इतना तो तय है कि कोई न कोई इसे बदलेगा जरूर।”

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