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गिने गए वोट और डाले गए वोटों में अंतर पर चुनाव आयोग की खामोशी चिंता का विषय - पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त कुरैशी

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी ने कई रिपोर्ट्स में लोकसभा चुनाव के आंकड़ों में विसंगतियों पर चुनाव आयोग की चुप्पी ‘गैर-जिम्मेदाराना’ कहा है। उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग इतने गंभीर मामले पर चुप नहीं रह सकता।

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Getty Images Hindustan Times

इस साल हुए लोकसभा चुनाव में डाले गए वोट और गिने गए वोटों के बीच में जो अंतर सामने आ रहा है उस पर चुनाव आयोग से स्पष्टीकरण की मांग लगातार बढ़ती जा रही है और आयोग इस पर अभी तक खामोश है। यह गंभीर चिंता का विषय है। यह बात देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने इसी सप्ताह एक न्यूज चैनल से बातचीत में कही। उनका कहना था कि वास्तविक समय में जमा किए गए डेटा में किसी भी तरह की विसंगति की कोई संभावना नहीं होती है। लेकिन अगर चुनाव आयोग द्वारा अपलोड किए गए डेटा में अभी भी खामियां और विसंगतियां दिखाई देती हैं, तो संदेह को दूर करना आयोग का कर्तव्य और जिम्मेदारी है।

एस वाई कुरैशी इसी सप्ताह नई दिल्ली में एडीआर (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) द्वारा जारी एक रिपोर्ट के बारे में पूछे गए सवाल का जवाब दे रहे थे। रिपोर्ट के मुताबिक चुनाव आयोग की वेबसाइट पर अपलोड किए गए डेटा से मिलान करने पर एडीआर ने 538 लोकसभा क्षेत्रों में विसंगतियां पाईं। 362 सीटों पर गिने गए वोट डाले गए वोटों से कम थे जबकि 176 लोकसभा सीटों पर गिने गए वोट डाले गए वोटों से ज़्यादा थे।

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इसके अलावा दो अन्य स्वतंत्र जांचकर्ताओं ने भी आंकड़ों का मिलान किया और वे भी इस निष्कर्ष पर पहुंचे। चार संसदीय क्षेत्रों में, जो सबसे छोटे हैं, आंकड़े बिल्कुल मेल खाते हैं। वे हैं अमरेली, अत्तिंगल, लक्षद्वीप, दादरा नगर हवेली और दमन दीव।

एडीआर ने अपनी रिपोर्ट 29 जुलाई को जारी की थी, जबकि एक सप्ताह पहले 22 जुलाई को एक अन्य संगठन वोट फॉर डेमोक्रेसी (महाराष्ट्र) ने भी एक रिपोर्ट जारी की थी। इसमें आरोप लगाया था कि सात चरण के मतदान के दूसरे चरण में मतदान में वृद्धि के परिणामस्वरूप "एनडीए/बीजेपी के लिए कई राज्यों में फायदा हुआ। इस रिपोर्ट में ब्योरा भी दिया गया और दावा किया गया कि बीजेपी ने दूसरे चरण के मतदान के दौरान पश्चिम बंगाल में 3, उत्तर प्रदेश में 8, मध्य प्रदेश में 6, छत्तीसगढ़ में 3, त्रिपुरा और जम्मू-कश्मीर में 1-1, कर्नाटक में 12, राजस्थान में 10 और असम में 4 सीटें हासिल कीं। 

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रिपोर्ट में बताया गया कि, "ऐसा रुझान पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, राजस्थान जैसे राज्यों सहित मतदान के अन्य 6 चरणों में नहीं देखा गया।" रिपोर्ट के मुताबिक "दूसरे चरण में, केरल का उदाहरण अनूठा है, क्योंकि इस चरण में बीजेपी को एक सीट मिली, दूसरी सीट पर दूसरे स्थान पर रही और राज्य की कुल 20 सीटों में से 14 पर तीसरे स्थान पर रही।" इससे भी अधिक सनसनीखेज बात यह है कि रिपोर्ट में दावा किया गया है कि, "करीब 5 करोड़ वोटों की बढ़ोतरी ने बीजेपी/एनडीए को कम से कम 76 सीटें हासिल करने में मदद की है, जो ऐसी बढ़ोतरी के अभाव में उसे खोनी पड़ सकती थी।"

स्वतंत्र पत्रकार पूनम अग्रवाल ने 2019 में भी मतों की गिनती में विसंगतियों को उठाया था। इसके बाद एडीआर द्वारा सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी, जो अभी भी लंबित है और इस पर अभी सुनवाई होनी है। एडीआर द्वारा इस सप्ताह आयोजित मीडिया ब्रीफिंग में पूनम अग्रवाल ने याद दिलाया कि चुनाव आयोग ने उनकी रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए वेबसाइट से डेटा वापस ले लिया था। उन्होंने बताया कि हालांकि, उसी साल सितंबर में चुनाव आयोग ने नतीजों का विस्तृत निर्वाचन क्षेत्रवार विश्लेषण अपलोड किया था, जिसमें डेटा मेल खाता था और कोई विसंगति नहीं दिखाई दी थी। उन्होंने कहा कि 2024 में भी, सितंबर-अक्टूबर तक, चुनाव आयोग एक विस्तृत विश्लेषण के साथ सामने आएगा और उन्होंने कहा कि उन्हें कोई संदेह नहीं है कि डेटा फिर से मेल खाएगा।

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एडीआर की ओर से बोलते हुए प्रोफेसर जगदीप छोकर ने जोर देकर कहा कि एडीआर को इस बात का विश्लेषण करने में कोई दिलचस्पी नहीं है कि किस सीट पर कौन जीता और कौन हारा। इसकी दिलचस्पी पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने में है और उम्मीद है कि चुनाव आयोग अपने आंकड़ों में अंतर को स्पष्ट करेगा।

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त कुरैशी इस बात से सहमत हैं। उन्होंने बताया कि देश में कमर्शियल बैंकों की हज़ारों शाखाओं में हर दिन में खातों का मिलान किया जाता है और एक रुपये का अंतर भी गिना जाता है। चुनावी प्रक्रिया में भी एक वोट का भी अंतर नहीं हो सकता और चुनाव आयोग की ज़िम्मेदारी है कि वह इस बारे में स्थिति स्पष्ट करे। वह चुप नहीं रह सकता।

हालांकि, चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर दावा किया है कि वह उम्मीदवारों और उनके एजेंटों के अलावा किसी और के साथ मतदान प्रतिशत के आंकड़े साझा करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य नहीं है। हलफनामे में दावा किया गया है कि मतदान प्रतिशत के आंकड़ों का खुलासा करने से मतदाताओं में भ्रम की स्थिति पैदा होगी और इसका फायदा करीबी मुकाबले वाले चुनावों में निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा उठाया जा सकता है।

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मतदान प्रक्रिया को समझाते हुए कुरैशी ऐसे बहानों पर कटाक्ष करते हैं। उनका कहना है कि हर मतदान केंद्र पर हर वोट को वास्तविक समय में दर्ज किया जाता है और एक रजिस्टर बनाए रखा जाता है। किसी भी समय, पीठासीन अधिकारी को केवल अंतिम पंक्ति को देखना होगा और यह बताना होगा कि तब तक कितने वोट डाले गए थे। वे बताते हैं कि जानकारी मिलने में किसी भी तरह की देरी की कोई वजह नहीं है।

मतदान का समय समाप्त होने पर भी कतार में 50 या 100 मतदाता हो सकते हैं और नियमों के अनुसार जब तक सभी मतदाता अपना वोट नहीं डाल देते तब तक मतदान बंद नहीं किया जा सकता। साथ ही, मतदान समाप्त होने तक कोई भी मतदान केंद्र बंद नहीं किया जा सकता है और उम्मीदवारों के मतदान एजेंटों को उनके हस्ताक्षर लेने के बाद ही मतदान किए गए मतों की संख्या के साथ फॉर्म 17 सी नहीं सौंपा जाता है। इसके बाद ईवीएम और वीवीपैट आदि को ‘तीन बार’ सील किया जाता है और सिक्यूरिटी प्रेस में छपा एक यूनीक नंबर उन पर लगाया जाता है।

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यही कारण है कि मतदान का अंतिम आंकड़ा चुनाव आयोग को अगली सुबह ही उपलब्ध हो जाता है। कुरैशी कहते हैं कि आंकड़े जारी करने में किसी भी तरह की देरी का सवाल ही नहीं उठता। हालांकि, इस साल चुनाव आयोग ने मतदान के पहले चरण से संबंधित डेटा साझा करने में 11 दिन लगा दिए। कुरैशी ने सुप्रीम कोर्ट पर भी उतनी ही तीखी टिप्पणी की और आश्चर्य जताया कि पिछले पांच सालों से सुप्रीम कोर्ट एडीआर की याचिका पर सुनवाई क्यों नहीं कर पाया। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में चुनावी प्रक्रिया से ज्यादा महत्वपूर्ण क्या हो सकता है।

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