उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी 20 फीसदी मानी जाती है। पर यूपी की 100 से अधिक ऐसी विधानसभा सीटें हैं जहां मुसलमानों के वोट को निर्णायक माना जाता है। लगभग 150 सीटें ऐसी हैं जहां माना जाता है कि मुसलमान पलड़े का वजन तय करते हैं। इस तरह की स्थितियां होने के बावजूद यूपी में मुस्लिम पहचान की राजनीति या ‘मुस्लिम’ राजनीतिक दल कभी लोकप्रिय नहीं हुए।
उत्तर प्रदेश की चुनावी चर्चा में मुसलमानों की चिंताएं आम तौर पर कम ही हैं। न सिर्फ राजनीतिक पार्टियां बल्कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ नेता और लोग भी चुप हैं, अन्यथा वे धर्मांधता के ध्रुवीकरण में और मदद ही करेंगे। निश्चित तौर पर यह इस बात का संकेत है कि राज्य में ‘धर्मनिरपेक्ष शक्तियां’ किस तरह कमजोर हैं। क्या यह चुप्पी ‘मुस्लिम दक्षिणपंथियों’ को राज्य में जगह बनाने का अवसर नहीं दे रही है?
कश्मीर तक में मुसलमानों को इतिहास के गड़े मुरदों से उठाए गए सवालों के जवाब नहीं देने होते। लेकिन यूपी में मुसलमानों को बाबर, औरंगजेब और जिन्ना के कामों के जवाब शुरू से देने होते हैं। किंडरगार्टेन स्तर पर मुस्लिम बच्चों को ‘बाबर की औलाद’ और ‘पाकिस्तानी’ जैसी व्यंग्योक्तियां झेलनी पड़ती हैं। अगर खिलाड़ी या अम्पायर मुसलमान हों और बहुमत की भीड़ की अपेक्षाओं पर वे खरे नहीं उतरे, तो क्रिकेट मैच सांप्रदायिक उन्माद पैदा कर सकते हैं। गायों को इधर से उधर ले जाने पर लिंचिंग हो जाना और उनके कपड़े, उनकी दाढ़ी और गोल मुस्लिम टोपी पर सवाल उठाना आम बात है। फिर भी, कोई भी कट्टरपंथी मुस्लिम राजनीतिक पार्टी यहां जड़ें नहीं जमा पाई हैं।
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पिछले साल जून में असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने यूपी में 100 सीटों पर चुनाव लड़ने की मंशा जताई थी। लेकिन बंगाल की तरह यूपी के मुसलमानों ने ओवैसी से दूरी बनाकर रखी है। ओवैसी को मुसलमानों का एक वर्ग भले ही पसंद करता हो, लेकिन जब वोटिंग की बात आती है, तो समाजवादी पार्टी, कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल और आम आदमी पार्टी उनकी प्राथमिकता रहती हैं। भले ही ये ‘धर्मनिरपेक्ष’ दल उनकी वास्तविक चिंताओं को नकारते रहे हों और इस वजह से उनमें गहरा असतोष हो, उनके दूसरी जगह जाने के कोई चिह्न नहीं हैं।
ऐसा नहीं है कि उनकी नाराजगी को भुनाने की राजनीतिज्ञों ने कोशिश नहीं की है और मुसलमानों को ‘अपनी पार्टी’ को वोट करने के अवसर नहीं मिले हैं। 1952 के बाद से ही इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी, पीस पार्टी, परचम पार्टी, राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल और हाल की एआईएमआईएम- जैसी मुस्लिम नाम वाली पार्टियां अपना भाग्य यहां आजमाती रही हैं। लेकिन जिस तरह एआईएमआईएम ने तेलंगाना और आंध्र प्रदेश, पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कश्मीर और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने केरल में सफलता पाईं, किसी ने भी उत्तर प्रदेश में अपनी छाप नहीं छोड़ी।
लेकिन यह कोई आश्चर्य नहीं है। पूरी दुनिया में अल्पसंख्यक सत्ता में हिस्सेदारी की ख्वाहिश रखते हैं। समावेश करने वाली और धर्मनिरपेक्ष पार्टियों से वे कम-से-कम कुछ आशाएं रखते हैं। दूसरी बात, आबादी के दूसरे वर्गों की तरह अशिक्षित और गरीब मुसलमान राजनीतिक तौर पर अनजान या अशिक्षित नहीं हैं। वे अपने वोट का महत्व जानते हैं, मुद्दों को लेकर मुखर रहते हैं और चुनावों में उन्होंने सब दिन सतर्क होकर मतदान किया हुआ है। बड़े राजनीतिक ध्रुवीकरण की एक-दो घटनाओं को छोड़ दें, तो यूपी में मुसलमानों ने आम तौर पर राज्य के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को मजबूत ही किया है।
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मुसलमान क्या चाहते हैं और उन्हें क्या मिला है? एक ऐसे राज्य में जहां जवाहर लाल नेहरू ने एक दफा ‘सेफ सीट’ की जगह सांप्रदायिक तौर पर आवेश भरे चुनाव क्षेत्र से लड़ना चुना, हमारे समय के राजनीतिज्ञ मुसलमानों को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर बोलकर बहुसंख्यकों का गुस्सा झेलने को लेकर भयभीत हैं।
विधानसभा और संसद में अपने प्रतिनिधित्व को लेकर शिकायतें करना मुसलमानों ने छोड़ दिया है। लेकिन आप सड़क पर किसी मुसलमान से बात करें, तो वह अनगिनत घटनाएं सुना देगा जब धर्मनिरपेक्ष पार्टियां उनके साथ खड़े होने में विफल रहीं। अलीगढ़ दंगे (1980), संभल दंगे (1978), मुरादाबाद दंगे (1980), हाशिमपुरा नरसंहार (1987), मलियाना हत्याएं (1987) और मुजफ्फरनगर दंगे (2013)- जैसी प्रमुख सांप्रदायिक हिंसा तब हुईं जब धर्मनिरपेक्ष पार्टियां शासन में थीं। फिर भी तमाम निराशा और हताशा के बावजूद मुसलमान धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के साथ खड़े रहे।
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लेकिन पार्टियों के चुनावी घोषणा पत्रों में भी मुस्लिम मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। विधानसभा और संसद में मुस्लिम प्रतिनिधित्व तेजी से कम हुआ है। चुनावों में कम ही मुसलमान प्रत्याशी के तौर पर उतारे जाते हैं। बिना मुस्लिम समर्थन के ढह जाने वाली समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल मुसलमानों से चुप रहने और उनके रास्ते में डाल दिए गए टुकड़ों से संतुष्ट हो जाने को कह रहे हैं। और तो छोड़िए, पिछले आठ साल के दौरान एक भी उदाहरण सामने नहीं है जब जयंत चौधरी, मायावती या अखिलेश यादव-जैसे नेताओं ने अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ अत्याचारों के मुद्दों को उठाया हो। मुसलमानों के पास मुस्लिम प्रतिनिधित्व और सत्ता में हिस्सेदारी-जैसे मूल मुद्दों की अनदेखी करने और धर्मनिरपेक्ष तथा जाति-आधारित राजनीति करने वाली पार्टियों को वोट देते रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
इस बार भी यूपी में मुसलमानों के लिए कोई विकल्प नहीं (टीना- देयर इज नो ऑल्टरनेटिव) वाली हालत है। लेकिन उन्हें कब तक ऐसा ही माना जाता रहेगा? समुदाय के धैर्य की परीक्षा कब तक ली जाती रहेगी? ये वैसे सवाल हैं जिनके जवाब की जरूरत है।
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