ममता बनर्जी के अभेद्य गढ़ समझे जाने वाले पश्चिम बंगाल में बीजेपी की सेंध पूरे देश में सुर्खियां बन रही हैं। <b>डॉ. मुकुलिका बनर्जी </b>अपनी आने वाली पुस्तक<b> ‘कल्टिवेटिंग डेमोक्रेसी’</b> के लिए रिसर्च के सिलसिले में करीब दो दशकों से पश्चिम बंगाल आती रही हैं और उन्होंने 23 मई को लोकसभा चुनावों के परिणाम आने से पहले ही ममता के गढ़ में लगने जा रही सेंध को महसूस कर लिया था। पश्चिम बंगाल में जो हुआ, क्यों हुआ और वहां आगे क्या हो सकता है, इस विषय पर <b>एस एन एम आब्दी </b>ने उनसे विस्तार से बातचीत की। पेश है बातचीत के अंशः
जब आपको पता चला कि भाजपा ने बंगाल की 42 में से 18 सीटें जीत ली हैं, तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी?
मुझे कोई हैरत नहीं हुई। मैंने इस साल अप्रैल में भी अपने रिसर्च के सिलसिले में खास तौर पर दो गांवों में कुछ समय बिताया था। इसके अलावा मैंने कोलकाता से लेकर सिलिगुड़ीमतक की यात्रामकी थी। तभी मुझे महसूस हो गया था कि बीजेपी चुनाव में अच्छा करने जा रही है।
बीजेपी के इस चुनावी प्रदर्शन को आप कैसे देखती हैं?
पिछले चार दशकों से भी अधिक समय से पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा हावी रही है। सबसे पहले कांग्रेस, फिर वामपंथियों ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इस पर अमल किया और उनके बाद तृणमूल कांग्रेस ने। पिछले पंचायत चुनाव के दौरान पूरे राज्य से लोग इस तरह की शिकायत कर रहे थे कि उन्हें वोट नहीं देने दिया गया। इस तरह कई सीटें निर्विरोध भरी गईं। ऐसे माहौल में बीजेपी का प्रवेश एक स्वागत योग्य घटना है, खास तौर पर इसलिए कि वह यहां नई खिलाड़ी है। बीजेपी की चतुर रणनीति नबो बोर्श (नया साल) पर हनुमान पूजा के अवसर के इस्तेमाल की थी, जिससे राज्य के हर गांव में पड़ोसियों के साथ मिलकर एक साझा अभिप्राय के बहाने युवाओं के बीच पैठ बनाई जा सके।
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पूजा के साथ ही ‘जय श्रीराम’ लिखा भगवा झंडा आया जिसका सीधा संबंध मोदी से था। ये झंडे हर जगह उपलब्ध थे और लोगों ने इसे अपने घरों और मोटर साइकिलों पर लगाया। इस तरह हनुमान पूजा बीजेपी के लिए नए सदस्यों को जोड़ने और अपने आधार को मजबूत बनाने का एक सशक्त माध्यम बना। इस तरह से पू जा करने का तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता विरोध भी नहीं कर सके।
इसकी जमीनी तैयारी काफी पहले से की जा रही थी और धीरे-धीरे जगह-जगह हनुमान की मूर्ति नजर आने लगी। हनुमान की पहचान एक बलशाली और राम भक्त के रूप में है और शायद बीजेपी का मकसद भी इतना ही था। इस तरह कह सकते हैं कि 2019 के चुनाव के लिए जमीनी तैयारी काफी पहले शुरू हो चुकी थी। पुराने वामपंथी दलों और तृणमूल के बीच तनाव से तंग आ चुके युवाओं ने बाहें फैलाकर बीजेपी को स्वीकार किया। इन युवाओं के हौसले को बुलंद रखने के लिए उनके फोन पर रोजाना व्हाट्सएप संदेश भेजे जा रहे थे। कई युवाओं ने मुझसे इस तरह की बातें कहीं, ‘पहली बार भारत ने पाकिस्तान में घुसकर हमला किया है’, ‘भारत को 2014 के बाद ही दूसरे देशों ने गंभीरता से लेना शुरू किया है’, ‘ममता केवल मुस्लिमों के लिए काम करती हैं’... वगैरह-वगैरह।
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बंगाल में बड़ी हस्तियां जनमत को दिशा देने में बड़ी भूमिका निभाती हैं। बीजेपी न तो कवि शंखो घोष जैसे बुद्धिजीवि, सौमित्र चटर्जी जैसे अभिनेता, रुद्र प्रसाद सेनगुप्त जैसे नाटककार और न ही सौरव गांगुली जैसे किसी क्रिकेटर को अपने पाले में कर सकी। अमित शाह की सभा में कोई भी बुद्धिजीवी नहीं था। आपको क्या लगता है अब क्या ये लोग बीजेपी के साथ होंगे या फिर वे हिंदू दक्षिणपंथियों का मुकाबला करेंगे?
बंगाल में हैरत में डालने वाली बातें हुई हैं। हिंदू महासभा का जन्म बंगाल में हुआ और इसमें नामचीन लोगों की कमी नहीं थी और तबके बंगाल में भारत के सबसे खराब हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए। यहां तक कि बंगाल के ‘भद्रलोक’ समाज में भी इस्लामोफोबिया गहरे पैठा हुआ है। इसलिए ये केवल वक्त की बात है जब इस तरह की भावना का खुले तौर पर इजहार होने लगे। फिर भी, अगर कोलकाता की बात करें तो यहां शैक्षिक अनुसंधान, संगीत और कला की समृद्ध परंपरा है जो स्पष्ट तौर पर उदार है और किसी भी तरह की बहुसंख्यक राजनीति के खिलाफ है। लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि वाम मोर्चे के लंबे शासनकाल के दौरान सीपीएम और इसके कार्ड होल्डरों ने शैक्षिक संस्थानों को अपने कब्जे में ले लिया था और विश्वविद्यालयों में ये बड़ी संख्या में थे जिस कारण कोलकाता के बेहतरीन विश्वविद्यालयों की विश्वसनीयता में जबर्दस्त गिरावट आई। हजारों मेधावी छात्रों ने पढ़ाई के लिए दिल्ली और विदेशों का रुख किया।
2019 के चुनाव प्रचार के दौरान कोलकाता और शेष बंगाल का यह अंतर स्पष्ट रूप से दिखा। जहां शिक्षित बंगाली समाज ने स्पष्ट कर दिया कि उसे बीजेपी का शाकाहार और ‘जय श्रीराम’ का जयकारा लगाना मंजूर नहीं, वहीं गांवों की स्थिति एकदम अलग रही। ऐसे लोग, जिनकी जेब मछली या मांस खाने की इजाजत नहीं देती, के लिए शाकाहार कोई मुद्दा ही नहीं था। वहां बड़ी संख्या में बेरोजगार युवक हैं जिनके पास नए झंडे और नए नारे के लिए वक्त की कोई कमी नहीं। इसलिए, जहां कोलकाता में जनमत तैयार करने में सांस्कृतिक हस्तियों की बड़ी भूमिका हो सकती है, राज्य के बाकी हिस्सों तक अपने उदार और प्रगितशील विचारों को ले जाने में उन्हें काफी पापड़ बेलने पड़ेंगे। यहां तक कि शांति निकेतन में, जिसे तमाम सांस्कृतिक हस्तियों ने अपना दूसरा घर बना रखा है, वहां भी हनुमान पूजा और बीजेपी की धूम है। यहां के ऑटो रिक्शा चालकों में ये काफी लोकप्रिय हैं।
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जिस तरह से बंगाल में हिंदू वोट बीजेपी के लिए एकजुट हो गया, क्या बंगाल में 27 फीसदी आबादी वाला मुस्लिम समुदाय असम की एआईडीयूएफ की तर्ज पर यहां भी अपनी अलग पार्टी बना सकता है?
यह कहना मुश्किल है। मेरी जिन मुस्लिमों से मुलाकात हुई, उनकी पसंद तृणमूल है, इसलिए शायद उन्हें अलग पार्टी बनाने की जरूरत महसूस नहीं हो। इसके अलावा बड़ा सवाल यह भी है कि उसका नेता कहां से आएगा? दशकों से बंगाल में राजनीतिक दल में गिनती के मुस्लिम रहे हैं। लेकिन यह अकल्पनीय भी नहीं है। हमें इतिहास को याद रखना चाहिए। बंगाल ने राजनीतिक दलों के विरोध में धार्मिक तौर पर एकजुट होते देखा है।
क्या आपको लगता है कि बंगाल और असम में बीजेपी के उदय और इसके साथ मुस्लिम विरोधी भावनाओं के कारण भारत और बांग्लादेश के रिश्तों में तल्खी आ सकती है?
पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती जिलों में बीजेपी का उदय गौर करने वाली बात है। अगर असम की तरह ही बंगाल में भी एनआरसी को मुद्दा बनाया गया तो ऐसा संभव है। वाम मोर्चे ने अपने शासन के दौरान हमेशा इस बात का ख्याल रखा कि हिंदू-मुसलमानों के किसी भी मुद्दे का सांप्रदायिकरण न हो। 34 साल के वाम शासन की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है। लेकिन जैसा हम लोगों ने देखा है, यह एक संवेदनशील मुद्दा है और धार्मिक तनाव न हों, इसके प्रयास लगातार करने पड़ेंगे।
पश्चिम बंगाल में भारत के दूसरे राज्यों की तरह ही रोजगार समेत तमाम तरह की गंभीर समस्याएं हैं। ऐसे हालात में घुसपैठियों के खिलाफ भावनाएं जल्दी घर कर सकती हैं। इसके अलावा बीजेपी ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उसका ध्यान 2021 में होने वाले विधानसभा चुनाव पर है। ‘उन्नीशे हाफ, इक्कीशे साफ’ का स्लोगन यहां अभी से लोकप्रिय हो रहा है।
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