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यूक्रेन में फंसे भारतीयों की सुध लेने वाला कोई था ही नहीं, कीव में दूतावास बंद हो चुका था और अधिकारी नदारद थे

फंसे भारतीयों के लिए सारी समस्या तो यूक्रेन के अंदर है। वहां से निकलने की कोशिश कर रहे भारतीयों को भारी कठिनाई और हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। हिंसा का कारण शायद मौजूदा हालात में भारत का रुख है जो बता रहा है कि भारतीय केवल अच्छे समय के दोस्त हैं।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 
यूक्रेन में भारत के राजदूत का तबादला पिछले साल नवंबर में हंगरी के लिए कर दिया गया था। तब से हालांकि वही यूक्रेन का काम देख रहे थे, लेकिन दिलचसपी कम थी। फरवरी में नया राजदूत नियुक्त हुआ नहीं। और फिर रूसी हमले के बाद तो पूरा दूतावास ही कीव छोड़कर यूक्रेन के पश्चिमी बॉर्डर के नजदीकी शहर लीव चला गया था। ऐसे में युद्धक्षेत्र में फंसे भारतीय छात्रों की सुध लेने वाला कोई नहीं था।

इक्कीस साल के मेडिकल छात्र नवीन केजी के पिता आहत हैं। दुर्भाग्य से नवीन पहले भारतीय हैं जिनकी जान यूक्रेन पर हुए रूसी हमले में चली गई। पिता कहते हैं, भारतीय दूतावास से किसी भी व्यक्ति ने खारकीव में फंसे भारतीय छात्रों से मुलाकात नहीं की। चिंता की बात है कि अब भी खारकीव में हजारों भारतीय छात्र फंसे हैं।

यूक्रेन में भारतीय दूतावास के बारे में यह खुलासा चौंकाने वाला है। भारतीय दूतावास ने कीव से काम समेटकर पश्चिमी सीमा के पास लवीव को अपना ठिकाना बनाया है ताकि ‘सीमा पार कराने में’ भारतीयों की मदद कर सके। वैसे, भारतीय दूतावास ने एडवाइजरी जारी करने के अलावा कुछ भी नहीं किया है। दूतावास के लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर किसी से भेंट-मुलाकात नहीं की है और उन्हें यह भी अंदाजा नहीं कि 15 फरवरी के बाद कितने भारतीयों ने यूक्रेन छोड़ दिया।

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हैरानी है कि पश्चिमी खुफिया एजेंसियां लगातार आगाह कर रही थीं कि रूस तो यूक्रेन पर हमला करेगा ही, फिर भी भारतीय राजदूत पार्थ सतपथी समेत पूरा दूतावास हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। जहां तमाम पश्चिमी देशों ने संघर्ष शुरू होने से हफ्तों पहले अपने नागरिकों को निकाल लिया, भारत ने हमले से चार दिन पहले 20 फरवरी को एडवाइजरी जारी कर अपने छात्रों और नागरिकों को यूक्रेन छोड़ने को कहा। इसका नतीजा है कि अब भी हजारों भारतीय छात्र जिनमें ज्यादातर खारकीव में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं, वहां फंसे हुए हैं। छात्रों को रेलवे स्टेशनों और सीमाओं पर जाने की सलाह देने के अलावा सतपथी और उनके मिशन के कर्मचारी यूक्रेन में कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे।

इस सप्ताह तीन ‘अर्जेंट’ एडवाइजरी जारी कर लोगों को खारकीव के स्थानीय रेलवे स्टेशनों से क्रमशः 11, 12 और 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित जगहों पर पहुंचने को कहा गया। दूतावास ने अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ते हुए कहा कि ‘लगातार बिगड़ते हालात को देखते हुए लोगों को तत्काल खारकीव छोड़कर जल्द से जल्द पेसोचिन, बाबे और बेजलुडोव्का के लिए रवाना हो जाना चाहिए।’ लोग वहां कैसे पहुंचेंगे, यह उन्हीं पर छोड़ दिया गया।

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ऐसा लगता है कि जब से सतपथी का तबादला हंगरी में राजदूत के तौर पर किया गया, उन्होंने यूक्रेन के कामकाज में दिलचस्पी लेना छोड़ दिया। हालांकि यह रूटीन था और आम तौर पर नया व्यक्ति फरवरी में कार्यभार संभालता है लेकिन वहां तो इसी बीच तनाव गहराने लगा था। सवाल तो विदेश मंत्रालय और विदेश मंत्री पर भी है।

यह भी समझ से परे है कि फंसे भारतीयों को युद्ध क्षेत्र से बाहर निकालने के मिशन का नाम ‘ऑपरेशन गंगा’ क्यों रखा गया? शायद प्रधानमंत्री अपने निर्वाचन क्षेत्र और ‘शिवरात्रि’ के शुभ अवसर से प्रेरित थे। प्रधानमंत्री ने अपने चार मंत्रियों को यूक्रेन नहीं बल्कि यूरोप भेजने का फैसला किया। ज्योतिरादित्य सिंधिया रोमानिया और मोल्दोवा में, किरन रिजिजू स्लोवाकिया में, पूर्व राजनयिक और अब मंत्री हरदीप पुरी हंगरी में और जनरल (सेवानिवृत्त) वी. के. सिंह पोलैंड पहुंच चुके हैं ताकि यूक्रेन से वहां आने वाले भारतीयों को वापस ला सकें। लेकिन यह साफ नहीं है कि तिरंगे सौंपने और फोटो खिंचवाने के अलावा वे क्या भूमिका निभाएंगे।

यह भी साफ नहीं है कि विदेश मंत्रालय में चार मंत्रियों की विशेषज्ञता का इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया। विदेश मंत्री एस. जयशंकर शायद फोन पर सारा काम कर रहे हैं। पता नहीं कि इस दौरान तीन राज्यमंत्री क्या कर रहे थे। उनमें से कम-से-कम एक, मीनाक्षी लेखी के बारे में पता है कि उन्होंने ‘सद्गुरु’ जग्गी वासुदेव से भेंट की और जाहिर तौर पर उनसे मिट्टी संरक्षण के गुर सीखे।

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फंसे भारतीयों के लिए सारी समस्या तो यूक्रेन के अंदर है। वहां से निकलने की कोशिश कर रहे भारतीयों को भारी कठिनाई, भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। हिंसा का संभवत: कारण इस सैन्य संघर्ष में अपनाया गया भारत का रुख है जो बता रहा है कि भारतीय केवल अच्छे समय के दोस्त हैं।

भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस की निंदा करने के प्रस्ताव पर मतदान से परहेज किया। संयुक्त राष्ट्र आम सभा की आपात बैठक बुलाने के प्रस्ताव पर भी भारत वोट से दूर रहा। फिर इसके बाद आम सभा की बैठक में भी भारत ने वोटिंग नहीं की जब रूसी आक्रमण की निंदा करने वाले एक यूक्रेनी प्रस्ताव को 141 के मुकाबले 5 मतों से मंजूर किया गया। 35 देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया।

रूस, अमेरिका, जर्मनी में भारत के राजदूत रह चुके रोनेन सेन कहते हैं कि भारत ने वही किया जो उसके हित में सबसे अच्छा था और इसमें कोई बुराई नहीं क्योंकि हर देश अपने हितों को देखकर फैसला करता है। हालांकि रूस की आक्रामकता की निंदा नहीं करने का संदेश यूक्रेन में गलत गया है। राष्ट्रपति पुतिन द्वारा परमाणु शक्ति के इस्तेमाल की धमकी के बावजूद भारत ने रूस की आलोचना करने की जगह वोटिंग से अलग रहने का फैसला किया जिससे यूक्रेन के लोग निराश हुए।

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संदेह नहीं कि सोवियत संघ के समय से ही रूस भारत का भरोसेमंद साथी रहा है। सैन्य, सुरक्षा, ऊर्जा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी और अंतरिक्ष के रणनीतिक और प्रमुख क्षेत्रों में रूस पर भारत की निर्भरता भी काफी ज्यादा है। हाल के दशकों में अमेरिका के साथ भारत के संबंध भी तेजी से बढ़े हैं। लेकिन भारत की फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ और जापान के साथ भी गहरी रणनीतिक भागीदारी है और ये सभी रूस की कार्रवाई का कड़ा विरोध करते हैं। ऐसे में यह पतली रस्सी पर चलने जैसी बाजीगरी है।

चिंता की बात है कि 600 से अधिक भारतीय छात्र उत्तर-पूर्वी यूक्रेन के शहर सुमी में फंसे हैं। नागपुर के विराज वाल्दे ने 2 मार्च को देर रात पीटीआई को बताया कि रूसी सीमा के पास सुमी स्टेट यूनिवर्सिटी से एक भी भारतीय छात्र को तब तक निकाला नहीं जा सका था। उन्होंने कहा कि ‘छात्र डरे हुए हैं। खाने, पीने के पानी की आपूर्ति खत्म हो रही है। बैंकों और एटीएम में नकदी खत्म हो रही है’। सीमावर्ती क्षेत्रों या निकास बिंदुओं पर उनकी मदद करने के लिए कोई भी व्यक्ति नहीं है। कड़ाके की ठंड में छात्र कई दिनों से वहां मदद का इंतजार कर रहे हैं। दूसरी ओर, चार मंत्री और विदेश मंत्रालय के अधिकारी फूलों के साथ उनके स्वागत का इंतजार कर रहे हैं!

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यूक्रेन में भारतीय मिशन का प्रदर्शन जैसा निराशाजनक रहा है, वह पहले की ऐसी ही स्थितियों, खास तौर पर 2014 से पहले, से एकदम अलग है। वैसे, छह महीने पहले भी जब तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया था, राजदूत रुद्रेंद्र टंडन और उनकी टीम वहां फंसे एक-एक भारतीय को वापस ले आई थी।

2011 में लीबिया में भारत की राजदूत एम. मनिमेकलाई यूरोपीय हवाई हमलों के बीच वहां फंसे भारतीयों को निकालने के लिए युद्ध क्षेत्र सिरते तक खुद गई थीं। उन्होंने सुनिश्चित किया कि 16,000 भारतीयों को वहां से सुरक्षित निकाला जाए। यमन, लेबनान और इराक में हमारे राजदूतों ने जिस तरह भारतीयों को निकाला, वह अनुकरण करने के योग्य हैं। 1990 में कुवैत से 1.7 लाख भारतीयों को बिना किसी हो-हंगामे के निकाला गया था और तब एयर इंडिया ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई थी। ये सभी ऑपरेशन पीआर इवेंट की तर्ज पर हाइलाइट नहीं किए गए। वापस आने वालों को न तो गुलाब के फूल दिए गए और न ही वहां मौजूद मंत्री-अधिकारियों के साथ फोटो खिंचाए गए। सबसे बड़ी बात, इतने बड़े-बड़े ऑपरेशन में भी किसी भारतीय की जान नहीं गई। ऐसा नहीं कि पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों और रूस के बीच की आक्रामकता कहीं जाने वाली है। यह रहेगी और आगे भी भारतीय कूटनीतिक काबिलियत का इम्तेहान लेती रहेगी।

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