जैसा कि हम सभी जानते हैं कि देश की राजधानी दिल्ली में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनावों का अपना एक विशेष महत्त्व होता है। यह न सिर्फ दिल्ली विश्वविद्यालय और उसके छात्रों के लिए ही महत्वपूर्ण होता है, बल्कि इसके माध्यम से देश की भावी राजनीति की दिशा और दशा का भी आकलन किया जाता है। ऐसे में देश की मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां भी अपने-अपने छात्र संगठनों के साथ मैदान में है और उसे अपनी प्रतिष्ठा का विषय मान रही हैं।
बीते 4-5 सितंबर को डूसू नामांकन की प्रक्रिया सम्पन्न हुई। प्रमुख संगठनों सहित कई दलों के उम्मीदवारों ने अपनी उम्मीदवारी पेश की है। बीजेपी की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) और कांग्रेस की छात्र इकाई नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया (एनएसयूआई) ने भी अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी, लेकिन सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस बार वाम दल समर्थित आइसा और आम आदमी पार्टी की छात्र इकाई सीवाईएसएस गठबंधन कर चुनावी मैदान में है। ऐसे में जहां पिछले वर्ष चुनाव मुख्यतः एबीवीपी और एनएसयूआई के बीच लड़ा गया था, वहीं इस बार दोनों ही दलों के लिए ये गठबंधन एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। यहां पर एबीवीपी और एनएसयूआई से असहमत छात्रों को एकजुट होने का एक बेहतरीन अवसर मिल सकता है, लेकिन यह गठबंधन कितना कारगर है यह तो चुनाव बाद ही पता चलेगा।
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उम्मीदवारों पर गौर किया जाए तो इस बार भी पुरानी परंपरा का पालन किया गया है। दिल्ली-एनसीआर की आर्थिक और राजनैतिक रूप से सशक्त जातियों - जाट और गुर्जर - का ही बोलबाला रहा है। एबीवीपी ने जहां 4 पदों में से 2 पर गुर्जर प्रत्याशी तो एक पद पर जाट प्रत्याशी उतारा है, वहीं दूसरी ओर एनएसयूआई ने 2 पदों पर जाट तो एक पद पर यादव प्रत्याशी उतारा है। एक ओर जहां एबीवीपी ने उपाध्यक्ष पद पर पूर्वांचल से आने वाले राजपूत बिरादरी के छात्र को प्रत्याशी बनाकर पूर्वांचल और सवर्णों की राजनीति को साधने की कोशिश की है, वहीं दूसरी ओर एनएसयूआई ने उपाध्यक्ष पद पर ही अनुसूचित जाति से आने वाली सामान्य परिवार की छात्रा को प्रत्याशी बनाकर मुकाबले को और कड़ा और रोचक बना दिया है।
जहां तक एबीवीपी के उम्मीदवारों की वर्तमान अकादमिक स्थिति पर गौर किया जाए तो एक रोचक तथ्य सामने आता है। इस संगठन के सभी चारों उम्मीदवार 'बौद्ध विषय' से एमए कर रहे हैं! इसकी मुख्य वजह यह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में इस विषय में बिना किसी हाई मेरिट और कॉम्पटीशन के आसानी से दाख़िला मिल जाता है। वहीं इस मामले में एनएसयूआई और आइसा-सीवाईएसएस गठबंधन के उम्मीदवार अधिक विश्वसनीय और मजबूत दिखाई देते हैं और विधि, विज्ञान, वाणिज्य एवं कला के अन्य प्रतिष्ठित एवं हाई मेरिट वाले विषयों और विभागों से संबंध रखते हैं।
इस चुनावी नूराकुश्ती में दावों और वादों की भी एक लंबी फेहरिस्त है। यह बात अलग है कि ये सिर्फ चुनावी दौर तक के लिए ही सीमित समझे जाते हैं! छात्र हितों का शोर और उनके मुद्दों को उठाने वालों की संख्या भी कुछ कम नहीं है! हर संगठन के अपने-अपने दावे हैं और अपने-अपने वादे। प्रमुख संगठनों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर घोषणा-पत्र जारी किये हैं। सुरक्षित कैम्पस, रियायती दरों पर मेट्रो और एसी बस पास, 24x7 लाइब्रेरी, सभी को हॉस्टल और सस्ती कैंटीन की सुविधा इत्यादि प्रमुख चुनावी मुद्दे हैं। यह बात अलग है कि ये मुद्दे कई वर्ष पुराने हैं जो आज तक पूरे नहीं हुए और मुद्दे बनकर ही रह गए! हर बार इन मुद्दों का चुनाव में 'राम-मंदिर' और 'धारा 370' की तरह हथियार-के रूप में प्रयोग किया जाता रहा और विश्वविद्यालय के सभी आशावान छात्र 'ईश्वर भक्त' और 'देशभक्त' की तरह छले जाते रहे!
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ऐसे में जहां एनएसयूआई 10 रुपये में पौष्टिक भोजन से युक्त थाली परोसने की बात कर रही है, वहीं एबीवीपी 'भारत प्रथम तथा भेदभावरहित समाज' का भावनात्मक नारा देकर लुभाने की कोशिश कर रही है जिससे किसी भी गरीब छात्र का पेट नहीं भरना है! आइसा-सीवाईएसएस गठबंधन के प्रमुख मुद्दों में गुंडागर्दी, भय और हिंसा से मुक्त परिसर बनाना है। इसका शिकार वह (आइसा) खुद ही कुछ दिन पहले हो चुकी है। आइसा ने तस्वीर जारी कर अपनी महिला कार्यकर्ता पर एबीवीपी द्वारा मारपीट और गुंडागर्दी करने आरोप लगाया था। रूम-रेंट कंट्रोल, प्रत्येक कॉलेज में सेनेटरी पैड वेंडिंग मशीन लगाना और मोदी सरकार और यूजीसी द्वारा कॉलेजों को स्वायत्तता देने की मुहिम का विरोध करना गठबंधन के प्रमुख मुद्दे हैं।
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ऐसे में समझने वाली बात यह है कि पिछले 4 वर्षों से केंद्र में बीजेपी और राज्य में आम आदमी पार्टी की सरकार होने के बावजूद भी 'मेट्रो और बस-पास, रूम-रेंट कंट्रोल, हॉस्टल, 24x7 लाइब्रेरी, सीसीटीवी कैमरा और गुंडागर्दी से मुक्त सुरक्षित कैंपस की व्यवस्था न हो पाने के लिए जिम्मेदार कौन है?
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ऐसे में एनएसयूआई से अधिक जवाबदेही एबीवीपी और सीवाईएसएस की बनती है। फिर भी यह देखना दिलचस्प होगा कि दिल्ली विश्वविद्यालय में उच्च मेरिट से दाखिला पाने वाले छात्र जिन्हें देश का प्रतिभाशाली युवा समझा है, वह क्या फ़ैसला लेता है! क्या वह जाति, क्षेत्र, धर्म, लिंग, अर्थबल या बाहुबल के विरुद्ध वोट कर विश्वसनीयता के स्तर पर छात्र हितों और मुद्दों के लिए संघर्ष करने वाले संगठनों को साथ देने का काम करेगा? या फिर पारंपरिक ढंग से चली आ रही राजनीति के साथ खड़ा होगा? एक पढ़े-लिखे, जागरुक और राष्ट्र-निर्माण में योगदान देने का दावा करने वाले और लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले नवयुवक और लिए यह जरूरी है कि वह इन सबके बारे में सोचे, विचार करे और फैसला करे।
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