यूपी और बिहार में कोरोना से मरने वाले लोगों की संख्या भले ही बढ़ती रहे, चमकी और एक्यूट इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) पर नियंत्रण की पूरी ‘चाक-चौबंद’ व्यवस्था की गई है। दरअसल, यूपी और बिहार के अस्पतालों में सिर्फ कोरोना की जांच हो रही है, इन्सेफेलाइटिस की नहीं। दोनों ही राज्य सरकारों ने इस बार इनके आंकड़ों की इस तरह सेंसरशिप करने के निर्देश दिए हैं कि इमेज प्रभावित नहीं हो।
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बिहार में कोविड-19 से 19 मई तक 10 लोगों की मौत हुई जबकि मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज अस्पताल (एसकेएमसीएच) में एईएस से पांच बच्चों की मौत हो चुकी है और 17 अन्य बच्चे यहां भर्ती हैं। चमकी, यानी झटके के लक्षण वाला मस्तिष्क ज्वर बिहार में एईएस का स्थानीय नाम से जाना जाता है। लेकिन नीतीश सरकार ने इसे ही सरकारी नाम देकर इसे एईएस से अलग कर दिया है। सरकार की ताजा गाइडलाइन तो यही बताती है। लेकिन कहते हैं न कि आप किसी बात को छिपाने की जितनी कोशिश करेंगे, वह किसी-न-किसी तरह सामने आ ही जाएगी। इस रोग के साथ वही हो रहा है।।
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बिहार में इन बुखारों को तीन श्रेणियों में बांटा गया है। जापानी इनसेफलाइटिस (जेई), एईएस और चमकी बुखार। अब अस्पतालों में पूछने पर चमकी बुखार के बारे में कोई आंकड़ा एकीकृत नहीं बताया जा रहा बल्कि सिर्फ एईएस का ही डाटा इस नाम पर दिया जा रहा है। बिहार के सीनियर फिजिशियन डॉ दिवाकर तेजस्वी कहते हैं, “लगातार झटके (चमकी) के साथ बुखार तीनों ही स्थिति में होता है। चाहे वह जेई हो, विशुद्ध चमकी हो या एईएस। जेई वायरस से ब्रेन में सूजन हो जाता है और इसमें सिरदर्द के साथ बुखार आता है। इसमें भी चमकी-जैसे लक्षण से मौत होती है। दूसरी तरफ, लगातार झटके के कारण बुखार और इन दोनों के कारण शक्ति-हृास से बच्चे हार जाते हैं। एईएस इसमें थोड़ा आगे है, यानी यह ऐसे बहुत सारे लक्षणों का समूह है। सिरदर्द, चमकी, ब्रेन में सूजन, बुखार आदि कई कारण एईएस में होते हैं। एईएस के एक कारण में जेई या चमकी बुखार हो सकता है।” यानी, चमकी बुखार तीनों में है तो सिर्फ एईएस को अलग करने की वजह? यहीं आंकड़ों का खेल हो रहा है।
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मुजफ्फरपुर में इस तरह के दिमागी बुखार से सैकड़ों बच्चों की मौत का सिलसिला दशकों पुराना है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने मुजफ्फरपुर के एसकेएमसीएच में 100 बेड का पीडिएट्रिक्स इंटेंसिव केयर यूनिट (पीकू) बनाने की घोषणा 6 साल पहले ही की थी। लेकिन हुआ कुछ नहीं। पिछले साल जब सैकड़ों बच्चों की मौत की खबरों से सरकार की फजीहत होने लगी, तो डॉक्टर हर्षवर्धन ने इसके जल्द शुरू होने की घोषणा की। वह बन गया, तो इस बार 27 मार्च से ही रोगी आने लगे और नेताओं को उसके औपचारिक उद्घाटन का मौका ही नहीं मिला। इसके पीछे वजह भी है।
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दो साल पहले तक इसके लिए लीची और उमस भरी गर्मी को दोषी बताया जा रहा था। लीची इस बार मई के तीसरे हफ्ते बाजार आई है, तब तक एक दर्जन बच्चे अस्पताल पहुंच चुके थे। मुंबई के भाभा परमाणु केंद्र, पुणे के राष्ट्रीय अंगूर अनुसंधान केंद्र और मुजफ्फरपुर के केंद्रीय लीची अनुसंधान केंद्र के नए शोध के आधार पर लीची अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉक्टर विशाल नाथ कहते हैं कि “एईएस या चमकी बुखार का लीची से कोई संबंध नहीं है। उलटा, यह शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है और पांच साल का एक बच्चा दो किलो तक लीची एक दिन में पचा सकता है।”
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पिछले साल बिहार सरकार ने काल के गाल में समाए बच्चों के परिवारों के बैकग्राउंड का सर्वेक्षण करवाया था। उसमें पाया गया था कि गरीब परिवारों के कुपोषित बच्चे ही चमकी बुखार के शिकार बने थे। मौत की वजह देर से अस्पताल पहुंचना और अस्पताल में विशेष व्यवस्था की कमी भी पाई गई थी। एसकेएमसीएच के पेडियाट्रिक डिपार्टमेंट के अध्यक्ष गोपाल शंकर साहनी कहते हैं, “यह सही है कि ऐसे लक्षणों वाले बच्चे गरीब परिवारों के रहते हैं लेकिन उससे भी ज्यादा यह महत्वपूर्ण है कि लोग बच्चे को बुरी अवस्था हो जाने पर लाते हैं। इस साल भी ऐसे ही बच्चों की मौत हो रही जो हालत बिगड़ने पर अस्पताल लाए गए।”
वैसे, वेक्टर जनित रोग नियंत्रण कार्यक्रम के तहत राज्यभर के चुनिंदा शिशु रोग विशेषज्ञों और न्यूरो एक्सपर्ट के निर्देशन में तैयार एसओपी में इसके लिए टीकाकरण के साथ-साथ कुपोषण से बचाव अपनाने पर जोर दिया गया। लेकिन इस बार कोविड-19 की वजह से इन दोनों पर काम नहीं हो पा रहा है। इसलिए मौतों का सिलसिला तेजी से आगे बढ़े, तो आश्चर्य नहीं।
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वहीं उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में प्रशासन की सेंसरशिप से इन्सेफेलाइटिस पीड़ित ‘गायब’ हो गए हैं। मेडिकल कॉलेज में बच्चों का 430 बेड का हाईटेक वार्ड लगभग वीरान ही पड़ा है, जो भर्ती हैं भी, उन्हें एईएस या अन्य श्रेणी में सूचीबद्ध कर इलाज किया जा रहा है।
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इन्सेफेलाइटिस की जागरूकता को लेकर डोर-टु-डोर ‘दस्तक’ अभियान और टीकाकरण कार्यक्रम हर साल चलता रहा है। योगी सरकार इन्हीं दो कार्यक्रमों को इन्सेफेलाइटिस नियंत्रण में सबसे प्रभावी हथियार बताती रही है। इसीलिए प्रशासन जनवरी से ही बचाव को लेकर तैयारी शुरू कर देता है। इन्सेफेलाइटिस को लेकर लंबे समय से काम कर रहे डॉ संजय कुमार बताते हैं कि इस पर प्रभावी अंकुश को लेकर ये दोनों अभियान कारगर साबित हुए हैं। लेकिन इस बार दस्तक अभियान कोरोना की भेंट चढ़ गया। इन्सेफेलाइटिस टीकाकरण का भी यही हाल है। कोरोना के खौफ में लोग भी बच्चों को लेकर अस्पतालों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं।
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इन्सेफेलाइटिस उन्मूलन अभियान के चीफ कैंपेनर डॉ आरएन सिंह का कहना है कि कोरोना को लेकर सैनिटाइजेशन हुआ है। लेकिन इन्सेफेलाइटिस के वाहक सुअरबाड़ों को शिफ्ट करने, शौचालय निर्माण के साथ ही इंडिया मार्का हैंडपंप की मरम्मत, मच्छरों से निजात और बोरिंग को लेकर संजीदगी नहीं दिखी है। पिछले दो सालों में 80 हजार से एक लाख बच्चों को इन्सेफेलाइटिस का टीका लगता है लेकिन इसबार 20 हजार बच्चों को भी टीका नहीं लग सका है।
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