वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को पिछली नरेंद्र मोदी सरकार से विरासत में पस्त और छिन्न-भिन्न अर्थव्यवस्था मिली है। वह पिछले वित्त मंत्री की तरह इसके लिए कांग्रेस को कोस भी नहीं सकती हैं। मंत्री का पद भार संभालते ही उन्हें आधिकारिक सबसे खराब दो खबरें मिलीं। पहली, बेरोजगारी पिछले 45 सालों के चरम पर है। दूसरी, पिछली जनवरी-मार्च तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर पिछले पांच सालों के सबसे कम स्तर 5.8 फीसदी पर पहुंच गई। इनके संकेत अरसे से मिलने शुरू हो गए थे, लेकिन लोकसभा चुनावों के दबाव में मोदी सरकार इन खबरों को नकारती रही। फिलवक्त विश्व की सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्था का तमगा भारत से छिन गया है जो पिछली मोदी सरकार का तकिया कलाम था।
नए वित्त मंत्री को जुलाई के पहले हफ्ते में वर्ष 2019-20 का बजट पेश करना है। उन्हें अपनी पार्टी के संकल्प पत्र के सामाजिक- आर्थिक कल्याण के कई कार्यक्रमों और निवेश के भारी भरकम वादों के लिए अतिरिक्त आर्थिक संसाधनों का इंतजाम करना है। आगामी बजट से हर वर्ग, क्षेत्र और उद्योग को भारी अपेक्षाएं हैं। पूरी अर्थव्यवस्था क्रय शक्ति के अभाव से जूझ रही है। विकराल संकटों और समस्याओं से उबरने के लिए बजट में सार्थक और कारगर उपाय करना अब अनिवार्य हो गया है।
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केंद्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) की ताजा रिपोर्ट से जाहिर है कि रोजगार के मामले में पिछली मोदी सरकार पूरी तरह विफल रही है। शुरू से बेरोजगारी के आंकड़ों को दबाने के लिए मोदी सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। मोदी को उम्मीद थी कि वादे के मुताबिक आर्थिक नीतियों और कार्यक्रमों से वह हर साल दो करोड़ रोजगार का सृजन कर पाएंगे। इस आत्मविश्वास के चलते सरकार ने शहरी क्षेत्रों में तिमाही श्रम बल सर्वेक्षण और शहरीऔर ग्रामीण क्षेत्रों के सालाना श्रम बल सर्वेक्षण शरू करने की धमाकेदार घोषणा की। पुरानी व्यवस्था को यह कह कर खारिज कर दिया कि उससे आंकड़े और वस्तु स्थिति का पता देर से चलता है। नतीजा हुआ उल्टा। बेरोजगारी बेकाबू हो गई और श्रम ब्यूरो के सर्वेक्षणों पर अघोषित रोक लगा दीगई।
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सर्वेक्षण कार्यालय की सालाना रिपोर्ट भी लोकसभा चुनाव के चलते मोदी सरकार दबा कर बैठ गई जिसे दिसंबर 2018 में आना था। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार बेरोजगारी का निदान मोदी सरकार-2 की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शामिल है। पर इसके लिए मोदी सरकार-2 पहल कैसे और कहां से करेगी, इस पर सबकी निगाहें टिकना लाजिमी हैं। वह इसके लिए मुद्रा योजना पर ही विश्वास करेगी या तत्काल रोजगार बढ़ाने के लिए श्रम प्रधान उद्योग, जैसे टेक्सटाइल, कंस्ट्रक्शन, चमड़ा या कृषि क्षेत्र पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करेगी।
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पिछली मोदी सरकार यह दावा लगातार करती रही है कि उसने किसानों और खेती के लिए सर्वाधिक काम किया। पर पिछले पांच सालों में खेती का सर्वाधिक नुकसान हुआ है। कृषि विकास दर औसत रूप से पिछले दस सालों के न्यूनतम पर आ गई। पिछली यानी जनवरी-मार्च में वास्तविक कृषि विकास दर नकारात्मक (-0.13) हो गई। ग्रामीण अर्थव्यवस्था मूलतः कृषि पर टिकी हुई है। कृषि उत्पाद कीमतों में गिरावट और सिंचाई और भंडारण की कमी से किसानों को भारी आर्थिक नुकसान हुआ है।
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एक रिपोर्ट के अनुसार 2019 में ही बाजार में कीमत न मिलने के कारण किसानों को 45 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है। ग्रामीण मजदूरी वृद्धि दर 2013-15 में 11.8 फीसदी थी जो 2016-18 के बीच गिर कर 0.45 फीसदी रह गई है। नीति आयोग ने भी माना है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी के बाद भी किसानों को कम दाम में फसल बेचनी पड़ रही हैं। पांच सालों में कृषि निर्यात घटा है और कृषि आयात में वृद्धि हुई है, जिसका असर किसानों की आय पर पड़ा है। नई वित्त मंत्री बजट में 2022 तक किसानों की आय को दो गुना करने के लिए क्या कारगर और त्वरित उपाय करती हैं, इस पर सभी की निगाहें रहेंगी।
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आर्थिक विकास दर गिरने में गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं के संकट को एक बड़ा कारण सरकार ने बताया है। कर्ज न मिलने से उपभोग मांग में कमी आई है। कारोबारियों और उपभोक्ताओं को गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं से कर्ज लेना ज्यादा सुगम लगता है। पिछले साल सबसे बड़ी गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनी आईएल एंड एफ एस की करीब एक लाख करोड़ रुपये की हेराफेरी का अन्य क्षेत्रों पर भीअसर पड़ा है। मार्च 2019 तक देश की गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं पर बैंकों, म्यूचुअल फंडों और बीमा कंपनियों का 17 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। इनमें सर्वाधिक कर्ज तकरीबन 44 फीसदी सार्वजनिक बैंकों ने दिया हुआ है। पर यह कंपनियां नकदी के संकट से गुजर रही हैं। यदि यह संकट बैंकों, म्यूचुअल फंडों आदि को अपनी चपेट में लेता है, तो वित्त मंत्री को अर्थव्यवस्था पटरी पर लाने की मुश्किलें बेहिसाब बढ़ेंगी। वित्त मंत्री को रिजर्व बैंक पर विशेष उपाय के लिए तेज दबाव बनाना होगा।
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पिछले पांच सालों से केंद्र सरकार सार्वजनिक बैंकों के पूंजीकरण के लिए तकरीबन 2 लाख करोड़ रुपये लगा चुकी है, लेकिन बैंकों की हालत में कोई विशेष सुधार नहीं आया है। पिछले वित्त साल में ही बैंकों में हुई धोखाधड़ी से 71500 करोड़ रुपये फंस गए, जो असाधारण है। बैंकों का परिचालन घाटा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। इन सब कारणों से बैंक ज्यादा कर्ज देने की स्थिति में नहीं हैं। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए मजबूत बैंकों का होना बहुत जरूरी है। इस सब लिहाज से वित्त मंत्री की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।
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निर्मला वाणिज्यनमंत्री भी रही हैं, लेकिन निर्यात बढ़ाने में उन्हें तनिक भी सफलता नहीं मिली थी। 2014 में सकल घरेलू उत्पाद में निर्यातों का योगदान 25.4 फीसदी था, जो 2018-19 में घट कर 19.7 फीसदी ही रह गया। अब अमेरिका ने तरजीही देश की सुविधा भारत की खत्म कर दी है, इससे भी निर्यात संकट बढ़ा है। भारतीय टेक्सटाइल, चमड़ा, जवाहरात आदि उद्योग बढ़ती वैश्विक प्रतिस्पर्धा से पिछड़ते जा रहे हैं। निर्यात में वृद्धि न होने का रोजगार अवसरों पर प्रतिकूल असर पड़ा है। निर्यातों के प्रोत्साहन के लिए वित्त मंत्री को बजट में विशेष उपाय करने पड़ेंगे।
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पर्याप्त मांग वृद्धि न होने के कारण पिछले पांच सालों से निजी निवेश गिरा है। उसके कारण सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में सकल स्थायी पूंजी निर्माण में गिरावट आई है। 2015 में सकल घरेलू उत्पाद अनुपात में सकल स्थायी पूंजी निर्माण 30.1 फीसदी था जो 2018-19 में गिर कर 28.9 रह गया है। निजी निवेश के प्रोत्साहन के लिए वित्त मंत्री क्या उपाय बजट में करती हैं, इस पर भी विकास की चाल निर्भर करेगी।
आय कर और कॉरपोरेट टैक्स में राहत देने का मोदी सरकार का आश्वासन पुराना है। अंतरिम बजट पेश करते समय तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने आय कर और कॉरपोरेट टैक्स में राहत देने का भरोसा दिया था। क्रय शक्ति और निवेश बढ़ाने के लिए करों में राहत देना जरूरी है। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए वित्त मंत्री बजट में क्या उपाय करती हैं, इसके लिए 5 जुलाई तक सब्र करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इस दिन बजट पेश किया जाएगा।
(लेखक अमर उजाला में कार्यकारी संपादक रहे हैं।)
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