मोदी-योगी सरकार में एक बात तो हुई है। ‘भक्त’ कहने से कुछ लोग नाराज हो जाते हैं, इसलिए इस भाषा में कहें कि जो इन सरकारों के आंख मूंदकर कट्टर समर्थक हैं, उनका इतना खौफ है कि दूसरे लोग सरकारी कामकाज पर कोई टिप्पणी नहीं करते या कुछ कहते भी हैं, तो इतना घुमा-फिराकर कि आपको उसके मतलब समझने होंगे। बनारस के एक पंडित जी ने इसी भाषा में बात की और एक तरह से यह रोचक भी है। उन्होंने युद्धिष्ठिर और राजा जनक का उदाहरण देते हुए कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो ‘राजनीतिक स्थितप्रज्ञ’ और ‘राजनीतिक विदेह’ हैं- मतलब, उनका ध्यान सिर्फ अपनी चुनावी राजनीति पर रहता है, देश में होने वाली दुर्घटनाओं बल्कि आपदाओं, त्रासदियों से वह विचलित नहीं होते। ऐसी हालत में उनसे यह उम्मीद करना बेकार ही है कि उत्तर प्रदेश की जमीनी हालत उन्हें परेशान करती होगी।
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गैरसरकारी ही नहीं, सरकारी रिपोर्टों में भी यूपी रसातल में जा रहा है लेकिन उनके लिए यह चिंता का विषय इसलिए नहीं है कि कथित मुख्यधारा की मीडिया के सर्वे रिपोर्ट में भी बीजेपी सरकार बनने के ही आंकड़े पेश किए जा रहे हैं। भले ही बीजेपी की नजर में यह टिप्पणी किसी विघ्नसंतोषी की हो, पर है बिल्कुल सटीक कि चुनावी चश्मे के शीशे का रंग भगवा हो, तो उसे जहालत दिखेगी भी कैसे?
चुनावी आचार संहिता लगने ही वाली है और उसके बाद वोटिंग की तिथियां भी सिर पर होंगी, फिर भी कितने लोग उन आंकड़ों को याद रखेंगे और उन्हें याद रखते हुए इस आधार पर वोटिंग करेंगे, इसका कयास लगाना उचित नहीं है। पर यूपी को लेकर चिंता तो सबकी होनी चाहिए। केंद्र और प्रदेश- दोनों जगह बीजेपी की सरकार है, फिर भी नीति आयोग ने बहुआयामी गरीबी सूचकांक रिपोर्ट में यूपी को गरीब राज्यों में सिर्फ बिहार और झारखंड से ही ऊपर बताया है। उत्तर प्रदेश में 38 फीसदी आबादी गरीब है, मतलब यूपी में करीब 9 करोड़ से अधिक आबादी गरीबी में रह रही है। यही हाल स्वास्थ्य व्यवस्था का है।
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अभी नवंबर में जारी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 की रिपोर्ट के इस अंश पर तो राज्य सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है कि वर्ष 2015-16 में जहां लिंगानुपात 995 था, वहीं 2020-21 में यह बढ़कर 1,017 हो गया है। लेकिन इसी रिपोर्ट में महिलाओं और उनसे जन्मे बच्चों के कुपोषण की स्थिति पर सरकार चुप रहना ही बेहतर समझती है। ऐसे में, अंतरराष्ट्रीय फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट में सीनियर रिसर्च फेलो पूर्णिमा मेनन की इस बात पर कोई क्यों तवज्जो देगा कि उत्तर प्रदेश के साथ बिहार भी उच्चस्तरीय जन्म दर-उच्चस्तरीय कुपोषण वाले राज्य हैं और इन्हें इन दोनों पैमानों में राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचने के लिए खासी मशक्कत करनी होगी।
दरअसल, आंकड़े की जरा-सी तह में जाते ही योगी आदित्यनाथ सरकार की पोल खुलने लगती है। योगी सरकार का दावा है कि केंद्र की 44 योजनाओं में यूपी नंबर वन है। इनमें शौचालय निर्माण भी है। अभी 20 सितंबर को अपनी सरकार का रिपोर्ट कार्ड पेश करते हुए ही योगी ने दावा किया कि ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत रिकॉर्ड 2.61 करोड़ शौचालयों का निर्माण करते हुए यूपी देश में नंबर 1 पर है। लेकिन योगी इस बात का जवाब देने से तो रहे कि लेकिन स्वच्छ सर्वेक्षण, 2021 के अनुसार, सफाई के मामले में उत्तर प्रदेश अब भी छठे स्थान पर है। दोनों ‘उपलब्धियां’ मेल क्यों नहीं खा रही हैं, यह तो हमें-आपको ही समझना होगा।
खुद योगी अपने भाषणों में कह रहे हैं कि 2017 के पहले तक प्रधानमंत्री आवास योजना में उत्तर प्रदेश का देश में 27वां स्थान था। भ्रष्टाचार खत्म होने और पारदर्शिता के चलते हम आज नंबर 1 हैं। लेकिन इसके आंकड़े कितनी फर्जी हैं, इसका एक उदाहरण खुद योगी के गृह जनपद गोरखपुर का ही है। पीएम आवास योजना में सर्वे करने वाली फर्म ने 12,200 अपात्रों की फर्जी डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट बना दी। इसके बाद सर्वे कंपनी कंसलटेंट संस्था मेसर्स सरयू बाबू इंजीनियरिंग प्राइवेट लिमिटेड को राज्य नगरीय विकास अभिकरण (सूडा) ने डिबार कर दिया। इसके साथ ही शासन ने 30 लाख का जुर्माना भी लगाया है। इस मामले में कंपनी के 8 कर्मचारियों को न सिर्फ बर्खास्त किया जा चुका है, बल्कि विभिन्न थानों में मुकदमा भी दर्ज है। लेकिन इस पर आगे की कार्रवाई को लेकर कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है।
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राज्य सरकार का दावा है कि 2015-16 में स्वच्छ ईंधन का इस्तेमाल करने वाले परिवार का प्रतिशत 32.7 था जो अब 49.5 हो गया है। इसके लिए उज्ज्वला योजना के तहत बांटे गए गैस सिलिंडर के आंकड़ों का सहारा लिया जा रहा है। रसोई गैस के दाम पिछले दो साल के दौरान जिस तरह लगातार बढ़ते गए हैं, उसमें निम्न मध्यवर्ग और मध्य-मध्यवर्गों तक का हाल किसी से छिपा नहीं है, तो उज्जवला लाभर्थियों का हाल तो समझा जा सकता है। यह आम अनुभव है इसलिए आंकड़ों की असलियत खुद ही समझी जा सकती है। फिर भी, राष्ट्रीय परिवार कल्याण सर्वेक्षण का आंकड़ा तो सरकार को भी जरूर देखना चाहिए। रिपोर्ट के मुताबिक, यूपी स्वच्छ ईंधन उपयोग करने वाले राज्यों की श्रेणी में फिसड्डी है। यूपी में सिर्फ 36.2 फीसदी आबादी स्वच्छ इंर्धन का उपयोग कर रही है जो राष्ट्रीय औसत 43 प्रतिशत से काफी कम है।
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चीफ सेक्रेट्री (होम) अवनीश कुमार अवस्थी का दावा है कि ‘प्रदेश में क्राइम कंट्रोल में है। 137 अपराधी मुठभेड़ में मारे गए, 37 हजार से अधिक को गैंगेस्टर और रासुका में निरुद्ध किया गया।’ सरकार में चार साल पूरा होने पर रिपोर्ट कार्ड पेश करते हुए भी योगी ने कहा था कि प्रदेश में अपराध के आंकड़ों में कमी आई है। डकैती में 65 फीसदी, हत्या में 19 फीसदी, बलात्कार में 45 फीसदी की कमी आई है। लेकिन उसके बाद बीते 27 जुलाई को लोकसभा में पूछे गए सवाल के जवाब में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने बताया था कि ‘हिरासत में मौत मामले में यूपी नंबर एक है। पिछले तीन साल में 1,318 लोगों की पुलिस और न्यायिक हिरासत में मौत हुई है।’
वैसे भी, मीडिया में आई खबरों और सुर्खियों से ही अंदाजा हो जाता है कि प्रदेश के लगभग किसी भी शहर में हत्याओं का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा। योगी के अपने शहर- गोरखपुर में ही 21 से 28 नवंबर के बीच सात हत्याएं हो गईं। कानपुर के व्यापारी मनीष गुप्ता की गोरखपुर की पुलिस ने ही पीट-पीटकर हत्या कर दी थी जिसकी सीबीआई जांच चल रही है। डॉ. कफील खान से तो योगी और उनकी पुलिस का ‘खास प्रेम’ है। डॉ. खान पर न तो भ्रष्टाचार का और न ही शांति भंग करने का कोई प्रमाण प्रशासन के पास है, फिर भी उन्हें जेल से अंदर-बाहर करना पड़ता है और नौकरी दोबारा पाने के उनके सारे प्रयास अब तक विफल ही रहे हैं।
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कोरोना काल में लोगों ने हर क्षेत्र में ही महसूस कर लिया कि सरकार किस तरह चल रही है। गंगा में लाशें बहीं और सरकार इसे भी डिफेन्ड करने में लग गई। डबल इंजन की सरकार के बावजूद उस वक्त तो स्वास्थ्य और शिक्षा की स्थिति खुद ही वेन्टिलेटर पर पहुंच चुकी थी।
फिर भी, यह हाल क्यों है, इस बारे में पूछने पर गोरखपुर यूनिवर्सिटी में सैन्य विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. हर्ष कुमार सिन्हा छूटते ही कहते हैं, ‘सिविल सोसाइटी कमजोर हुई है। एकेडमिक क्षेत्र में पिछड़ेपन को लेकर कोई स्टडी नहीं हो रही है। ऐसे में, बिना पूरी सच्चाई जाने सरकारी मशीनरी ही विकास को लेकर योजनाएं बना रही हैं और उन्हें ही लागू किया जा रहा है। बुंदेलखंड में पानी का मुद्दा हो या फिर ‘एक जिला, एक उत्पाद’-जैसी योजनाएं अच्छी तो हैं लेकिन हकीकत में लागू कितनी हो रही हैं, यह बताने वाला कोई नहीं दिख रहा है। गोरखपुर और वाराणसी में मेट्रो दौड़ाना जरूरी है या फिर सेहत, शिक्षा पर खर्च करना, इस पर न तो सोसाइटी की तरफ से सवाल है, न ही विपक्ष की तरफ से।’ वह यह भी जोड़ते हैं कि ‘मीडिया मुद्दों पर पैरोकार की भूमिका के बजाए सरकारी योजनाओं के प्रचारक के रूप में दिख रहा है। वहीं, सरकारें मुद्दों की प्राथमिकता को लेकर भटकी दिख रही है।’ प्रो. सिन्हा कहते हैं कि ‘यूपी और बिहार से सर्वाधिक ब्यूरोक्रेट आते हैं। फिर भी, सिस्टम बेपटरी है।’
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भारत-नेपाल सीमा पर आठ जिलों में शिक्षा, स्वास्थ्य के साथ मानव तस्करी के खिलाफ 22 वर्षों से काम कर रहे मानव सेवा संस्थान के निदेशक राजेश मणि एक अन्य बात कहते हैं, ‘पिछले कुछ वर्षों में प्राथमिक शिक्षा पर बेहतर काम होने के बाद भी स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों और बीच में पढ़ाई छोड़ने वालों की संख्या काफी अधिक है। नेपाल सीमा से लगे आठ जिलों में ऐसे बच्चों को लेकर संस्था द्वारा स्कूल संचालित किया जाता है जहां 30 से 50 बच्चे शिक्षा लेते हैं। इसे अच्छा संकेत नहीं कह सकते हैं।’ मणि का मानना है कि ‘कुशीनगर देश के सबसे गरीब जिलों में शुमार है। यहां केरल जैसी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं आने में तीन दशक का समय लगेगा।’
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साहित्यकार और लेखक देवेन्द्र आर्य का कहना है कि ‘जनता द्वारा चुनी सरकारों ने वही किया जो उसके प्रमोटर पूंजीपतियों ने चाहा या अल्पसंख्यक, दलित और महिलाओं को पांवों की जूती मानने वाले नागपुरिया आकाओं ने निर्देशित किया। जनतंत्र में जन आकांक्षा को महत्व नहीं देने का नतीजा शिक्षा, सेहत, सामाजिक संरचना, औद्योगिक विकास समेत सभी क्षेत्रों में पिछड़ेपन के रूप में दिख रहा है।’
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