इस साल फरवरी के आखिरी हफ्ते में 'टी सिटी ऑफ इंडिया' कहलाने वाले असम के डिब्रूगढ़ शहर में ऐसी दहशत फैली कि कई बस्ती के लोगों को अपना सामान लेकर भागना पड़ा। शहर को नदी के प्रकोप से बचाने के लिए बनाए गए डिब्रूगढ़ टाउन प्रोटेक्शन (डीटीपी) डाइक से महज दस मीटर दूरी तक की ज़मीन कट कर नदी में बह गई। डिब्रूगढ़ गुरुद्वारे के पीछे की विशाल भूमि को ब्रह्मपुत्र नदी बहाकर ले गई। जब डीटीपी पर ही खतरा दिखने लगा तो डिब्रूगढ़ के लोग दहशत में आ गए।
समझना होगा कि डिब्रूगढ़ शहर पहले ब्रह्मपुत्र नदी से काफी दूर था। यह शहर तो डिब्रू नदी के किनारे था। सन 1950 में इस इलाके में भयानक भूकंप आया था और इससे ब्रह्मपुत्र नदी की दिशा ही बदल गई। जमीन हिलने से नदी तट की भूमि ऊंची हुई और ब्रहमपुत्र सीधे-सीधे डिब्रू से मिल गई। यही नहीं मैजान चैनल, जो पूर्व में डिब्रू नदी की एक सहायक नदी थी, उसका मिलन भी हो गया।
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नदियों के मिलन से प्रवाह में आया तीखापन और फिर पहाड़ से तेजी से बह कर आ रही ब्रहमपुत्र में गाद के बढ़ने से डिब्रूगढ़ के आसपास कटाव बढ़ गया। समझना होगा कि दुनिया में सबसे अधिक तलछट से भरी नदियों में से एक ब्रह्मपुत्र है। इसके साथ बह कर आई गाद, मिटटी और चट्टानों के टुकड़ों से द्वीप बनते हैं। यहां इसे चार की जमीन कहते हैं, जो अचानक आई मिटटी से निर्मित होती है।
अनुमान है कि ऐसे कोई 2,300 से ज्यादा द्वीप बन चुके हैं यहां। अगर कुछ बड़े द्वीपों को छोड़ दें तो इनमें से अधिकांश द्वीप अस्थायी हैं, जो यहां से वहां स्थानांतरित होते रहते हैं। इनमें से सबसे बड़ा द्वीप माजुली है जो कि दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप है। कटाव की वजह से अपने मूल आकार के एक तिहाई तक सिकुड़ जाने के बाद भी यह विशाल बना हुआ है। लगभग 400 वर्ग किमी में फैला माजुली तकरीबन राजस्थान की राजधानी जयपुर जितना बड़ा है। डिब्रूगढ़ भी इसी तरह निर्मित है और माजुली से महज 15 किलोमीटर दूर है।
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पिछले कई दशकों में डिब्रूगढ़ में हर दशक में बाढ़ के स्तर में 0.33 मीटर की निरंतर दर से वृद्धि हुई है। इससे नदी की गहराई कम हुई है और नतीजतन, नदी की पानी वहन करने की क्षमता कम हो गई है। डिब्रूगढ़ शहर के लिए यह खतरा कोई नया नहीं है। बीते चार दशकों से यहां कटाव तेजी से हो रहा है, लेकिन अभी तक कोई स्थायी समाधान नहीं निकला है। जल संसाधन विभाग ने कटाव रोकने के जो भी प्रयास किये वे पानी में मिटटी की ही तरह बह गए।
यह कड़वा सच है कि सरकारी महकमे ब्रह्मपुत्र नदी के चरित्र को समझने में असफल रहे हैं। जब-जब भूमि कटाव से दहशत फैलती है सरकारी महकमे पहले लकड़ी से और अब पत्थर और मिटटी से तटबंध बना देते हैं। मैजान मोथोला से मोहनघाट और बोगीबील तक 10 किलोमीटर लंबा तटबंध बना दिया गया तो शहर के बीचों-बीच 22 किलोमीटर लंबा नाला खोद दिया गया। इधर शहर की आबादी बढ़ी और दूसरी तरफ नदी के जमीन को काटा गया। ऐसे में नाला भी शहर में बाढ़ का एक कारक बन गया।
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इसमें कोई शक नहीं कि असम की भौगोलिक स्थिति जटिल है। उसके पड़ोसी राज्य पहाड़ों पर हैं और वहां से नदियां तेज बहाव के साथ नीचे की तरफ आती हैं। असम की उपरी अपवाह में कई बांध बनाए गए। चीन ने तो ब्रह्मपुत्र पर कई विशाल बांध बनाए हैं। इन बांधों में जब कभी जल का भराव पर्याप्त हो जाता है, पानी को अनियमित तरीके से छोड़ दिया जाता है, एक तो नदियों का अपना बहाव और फिर साथ में बांध से छोड़ा गया जल, इनकी गति बहुत तेज होती है और इससे जमीन का कटाव होना ही है।
भारत सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि असम में नदी के कटाव को रोकने के लिए बनाए गए अधिकांश तटबंध जर्जर हैं और कई जगह पूरी तरह नष्ट हो गए हैं। एक मोटा अनुमान है कि राज्य में कोई 4448 किलोमीटर नदी तटों पर पक्के तटबंध बनाए गए थे ताकि कटाव को रोका जा सके लेकिन आज इनमें से आधे भी नहीं बचे हैं। बरसों से इनकी मरम्मत नहीं हुई, वहीं नदियों ने अपना रास्ता भी खूब बदला।
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भूमि कटाव का बड़ा कारण राज्य के जंगलों और आर्द्र भूमि पर हुए अतिक्रमण भी हैं। सभी जानते हैं कि पेड़ मिट्टी का क्षरण रोकते हैं और बरसात को भी सीधे धरती पर गिरने से बचाते हैं। आर्द्र भूमि बड़े स्तर पर नदी के जल-विस्तार को सोखते थे। राज्य के हजारों पुखरी-धुबरी नदी से छलके जल को साल भर सहेजते थे। दुर्भाग्य है कि ऐसे स्थानों पर अतिक्रमण का रोग ग्रामीण स्तर पर संक्रमित हो गया और तभी नदियों को अपने ही किनारे काटने के अलावा कोई रास्ता नही दिखा।
वर्ष 1912 से 1928 के दौरान जब ब्रह्मपुत्र नदी का अध्ययन किया गया था तो यह कोई 3870 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र से गुजरती थी। सन 2006 में किए गए इसी तरह के अध्ययन से पता चला कि नदी का भूमि छूने का क्षेत्र 57 प्रतिशत बढ़ कर 6080 वर्ग किलोमीटर हो गया। वैसे तो नदी की औसत चौड़ाई 5.46 किलोमीटर है लेकिन कटाव के चलते कई जगह ब्रह्मपुत्र का पाट 15 किलोमीटर तक चौड़ा हो गया है। सन 2001 में कटाव की चपेट में 5348 हैक्टेयर उपजाऊ जमीन आई, जिसमें 227 गांव प्रभावित हुए और 7395 लोगों को विस्थापित होना पड़ा। सन 2004 में यह आंकड़ा 20724 हेक्टेयर जमीन, 1245 गांव और 62,258 लोगों के विस्थापन पर पहुंच गया।
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अकेले सन 2010 से 2015 के बीच नदी के बहाव में 880 गांव पूरी तरह बह गए, जबकि 67 गांव आंशिक रूप से प्रभावित हुए। ऐसे गांवों का भविष्य अधिकतम दस साल आंका गया है। वैसे असम की लगभग 25 लाख आबादी ऐसे गांवों में रहती है जहां हर साल नदी उनके घर के करीब आ रही है। ऐसे इलाकों को यहां ‘चार’ कहते हैं। इनमें से कई नदियों के बीच के द्वीप भी हैं। हर बार ‘चार’ के संकट, जमीन का कटाव रोकना, मुआवजा, पुनर्वास चुनावी मुद्दा भी होते हैं। चूंकि अभी डिब्रूगढ़ जैसे पर्यटन स्थल के ऊपर ख़तरा मंडरा रहा है तो उसकी चर्चा भी है, लेकिन यह तो राज्य की बड़ी आबादी के लिए स्थायी रोग है।
आज जरूरत है कि असम की नदियों में ड्रेजिग के जरिये गहराई को बढ़ाया जाए। इसके किनारे से रेत उत्खनन पर रोक लगे। सघन वन भी कटाव रोकने में मददगार होंगे। अमेरिका की मिसीसिपी नदी भी कभी ऐसे ही भूमि कटाव करती थी। वहां 1989 में तटबंध को अलग तरीके से बनाया गया और उसके साथ खेती के प्रयोग किए गए। आज वहां नदी-कटाव पूरी तरह नियंत्रित हैं।
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