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दिल्ली: सिटिजन्स कॉन्क्लेव में वक्ताओं की राय, लोकतंत्र और संविधान को हर हाल में बचाना जरूरी 

4 सालों से देश में जो भय और पस्ती का माहौल छाया हुआ है, सिटिजन्स कॉन्क्लेव ने उसे तोड़ने का काम किया है। कॉन्क्लेव ने अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रिय लोगों को एक मंच पर लाकर यह संदेश दिया कि लोकतंत्र और संविधान को बचाने वाली ताकतों की तादाद कम नहीं है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया सिटिजन्स कॉन्क्लेव के एक सत्र में मंच पर मौजूद अतिथि

देश के 18 राज्यों से आए तकरीबन 900 सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवियों, न्यायविदों ने तीन दिन तक (25-27 मई) इस बात पर सघन विचार किया कि किस तरह से लोकतंत्र पर बढ़ रहे हमलों का मुकाबला करते हुए समावेशी भारत को बचाए रखा जा सकता है। इस समागम की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि इसने पिछले चार सालों में समाज में जो भय और पस्ती का माहौल छाया हुआ था, उसे तोड़ने का काम किया। इसने समावेशी भारत को बचाए रखने के लिए जितने भी अलग-अलग क्षेत्र के लोग सक्रिय हैं, सबको एक मंच पर लाकर यह संदेश दिया कि लोकतंत्र और संविधान को बचाने वाली ताकतों की तादाद कम नहीं है।

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दिल्ली के कॉन्सटीट्यूशन क्लब में 13 अलग-अलग सत्रों में बंटे इस सिटिजन्स कॉन्क्लेव की टैग-लाइन थी- ‘समावेशी भारत का निर्माण’, जिसमें प्रजातंत्र से लेकर बहुलतावाद तक पर गरमा-गरम बहस हुई और मौलिक विचारों का अदान-प्रदान हुआ। देश के शीर्ष बुद्धिजीवियों से लेकर युवा नेतृत्व ने अपने-अपने अनुभवों को बेबाकी से रखा और यह बताया कि किस तरह से देश के अलग-अलग क्षेत्रों में प्रतिरोध का आंदोलन चल रहा है। इस पूरे कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने वाली शबनम हाशमी ने नवजीवन को बताया कि डर और अवसाद के माहौल को तोड़ने के साथ-साथ एक ऐसा प्लेटफॉर्म बनाना हमारा मकसद था, जहां पूरे देश के लोग आ सकें, जुड़ सकें,अपने-अपने दुख-दर्द और आंदोलन को साझा कर सकें। इस कार्यक्रम से जुड़े ऑर्थोपेडिक सर्जन डॉ हर्षवर्धन हेगड़े ने बताया, “ये देश हमारा है, हमने इसे बनाया है और हमें ही इसे बचाना भी है। आज इन नफरत की ताकतों ने समावेशी भारत की कल्पना पर हमला किया है, हम यह बताना चाहते हैं कि इससे लड़ने के लिए बड़ी जमात तैयार है।” सईदा हमीद ने कहा, “हम हिम्मत नहीं हारने वाले हैं क्योंकि ‘दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है, लंबी है गम की शाम मगर शाम ही तो है।’

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कार्यक्रम की शुरुआत बहुत विचारोत्तेजक रही। गुजरात के बड़ोदा शहर से आए इतिहास के प्रोफेसर इफ्तिखार अहमद खान ने प्रजातंत्र और असहमति विषय पर कहा कि किसी भी तरह के विरोध को बुरी तरह से कुचलने के लिए सरकारें और सरकार के बाहर की ताकतें पूरी तरह से मुस्तैद हैं। लोगों का राज्य से मोहभंग हो रहा है। उन्होंने लोगों से अपील करते हुए कहा कि अभी भी हमने इतिहास से लेकर विकास के बारे में कई भ्रम पाल रखें हैं, जिन्हें हमें तोड़ना होगा और लोकतंत्र को बचाने के लिए अपनी चुप्पी तोड़नी होगी।

इस सत्र में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने अपने चिर-परिचित चुटले अंदाज में सवाल किया कि कर्नाटक में जो विपक्षी एकता देखने को मिली, वही तमिलनाडु के तूतिकोरिन में हुई मौतों के खिलाफ क्यों नहीं दिखाई दी। क्या वजह रही कि जो विपक्षी दल कर्नाटक में गैर-बीजेपी सरकार के समर्थन में उतरे थे, वे वहीं से तमिलनाडु में हुई हिंसा के विरोध में क्यों नहीं खड़े हुए। कन्हैया ने कहा कि आज अगर हम वाकई लोकतंत्र को बचाना चाहते हैं तो हमें सीधे-सीधे जनता से जुड़ना होगा, उसके सवालों को उठाना होगा। कन्हैया ने यह उम्मीद जताई कि अभी तक आम भारतीय नागरिक देश की साझी सस्कृति का पैरोकार है, वह शांति चाहता है। आज जरूरत है उससे सीधे जुड़ने की, ताकि नफरत की ताकतों को परास्त कर सकें। कन्हैया ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कटाक्ष करते हुए कहा कि वह अपनी डिग्री दिखाने के चैलेंज लेने को तैयार नहीं हैं, लेकिन फिटनेस के चैलेंज लेते फिर रहे हैं।

वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने कहा कि इस दौर में निष्पक्षता अब कोई विकल्प नहीं है, आपको सच्चाई दिखानी है। वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन ने कहा कि लोकतंत्र पर किस कदर संकट है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तूतिकोरिन पर चुप्पी साधे हुए हैं, पत्रकार राना अय्यूब की सुरक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र को भारत सरकार को पत्र लिखना पड़ रहा है, कर्नाटक में येदुरप्पा को सरकार बनाने का ऑफर देने वाले राज्यपाल से कोई इस्तीफा नहीं मांगता, न ही उसे हटाया जाता है और कोबरापोस्ट के खुलासे पर भी चुप्पी है। न्यायविद् उषा रमानाथन ने बताया कि किस तरह से आधार के जरिये सरकार जीवन के तमाम क्षेत्रों से निजता और लोकतंत्र खत्म कर रही है।

अर्थव्यवस्था, उद्योग, विकास पर चर्चा करते हुए पूर्व वित्त सचिव अरविंद मायाराम ने बताया कि केंद्र सरकार की नीतियां कोर अर्थव्यवस्था को न सिर्फ चौपट कर रही हैं, बल्कि कुछ बड़े घरानों के पास गिरवी रख रही है। प्रॉन्जॉय गुहा ठाकुरता ने अंबानी-अडानी के हाथों देश की आर्थिक संप्रभुता बेचने वाली मोदी सरकार की कड़ी आलोचना की।

दलितों और अल्पसंख्यकों की स्थिति पर चर्चा करने वाले सत्र में हर्ष मंदर, गुजरात के विधायक और युवा दलित नेता जिग्नेश मेवानी, लेखक राम पुनियानी, सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड ने न सिर्फ हाल के उत्पीड़न की घटनाओं का जिक्र किया, बल्कि यह भी बताया कि किस तरह से विरोध बढ़ा है। लोग चुप बैठने को तैयार नहीं हैं। मनुवादी ताकतों को जो सरकारी प्रश्रय मिला है उसके खिलाफ आंदोलन भी लगातार तेज हो रहा है। लैंगिक अधिकार संबंधी मुद्दे पर एनी राजा, कविता कृष्णन, रचना मुद्राबोयीना और सैयदा हमीद ने बढ़ती गैर-बराबरी और हिंसा पर चिंता जाहिर करते हुए यह भी कहा कि जो कानूनी अधिकार महिला आंदोलन ने बहुत मुश्किल से हासिल किये, उन्हें पितृसत्तात्मक सोच के तहत छीना जा रहा है। सत्र में ट्रांस जेंडर और विकलांग लोगों की समस्याओं के बारे में भी सवाल उठे।

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इस सम्मेलन में युवाओं की भागीदारी काफी बढ़-चढ़ कर रही और उसमें भी बाजी लड़कियों ने मारी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ की पूर्व अध्यक्ष ऋचा सिंह ने सीधे-सीधे कहा कि मोदी सरकार छात्राओं के खिलाफ है, ज्ञान और विवेक के खिलाफ है। लखनऊ से आईं पूजा शुक्ला ने बताया कि राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ आंदोलन करने पर जब उन्हें जेल डाला गया था, तब उन्होंने देखा कि लोकतंत्र की किस तरह से धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय की कंवलप्रीत कौर ने बताया कि केंद्र सरकार की शह पर एबीवीपी जैसे संगठन लड़कियों के साथ बदसलूकी करने पर उतारू हैं। वे लड़कियों को मध्य युगीन बर्बरता की ओर ढकेलना चाहते हैं।

मानवाधिकार की रक्षा के लिये संघर्षशील पीयूसीएल की राष्ट्रीय सचिव कविता श्रीवास्तव, वैज्ञानिक गौहर रज़ा, मैथ्यू जैकब, मेघा पंसारे ने तमाम उदाहरणों के जरिये ये बताया कि किस तरह से नफरत की राजनीति का सबसे बड़ा दुश्मन विवेक होता है। इसलिए उनके निशाने पर तर्कवादी लोग सबसे ज्यादा हैं।

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