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दिल्ली दंगों ने तोड़ दी कारोबारियों की कमर: कम से कम 25,000 करोड़ का नुकसान, ज्यादातर दुकानों का नहीं था बीमा

उत्तर पूर्वी दिल्ली में अब साफ-सफाई का काम चल रहा है और दुकानदार मार्केट में लौटने लगे हैं। लेकिन जो कुछ सामने है वह सिर्फ तबाही का मंजर है। एक शुरुआतीअनुमान के मुताबिक दंगों में कम से कम 25,000 करोड़ का आर्थिक नुकसान हुआ है।

फोटो सौजन्य : @aruproytweets
फोटो सौजन्य : @aruproytweets 

उत्तर पूर्वी दिल्ली में तीन दिन की हिंसा के बाद अब तबाही और बर्बादी के अवशेष बचे हैं। पूरा इलाका युद्ध के मैदान जैसा नजर आता है और नगर निगम सड़कों पर बिखरे ईंट-पत्थरों और जली हुई गाड़ियों को हटाने में जुटा है। इस इलाके के करावल नगर, गोकुलपुरी, भजनपुरा और चांदबाग इलाके हिंसा के बाद की वीभत्सता की कहानी के साथ जबरदस्त आर्थिक नुकसान के गवाह हैं। दिल्ली चैंबर ऑफ कॉमर्स के एक अनुमान हिंसा में तबाह हुए कारोबार से कम से कम 25,000 करोड़ का नुकसान हुआ है। यह सिर्फ शुरुआती अनुमान है और आने वाले दिनों में जैसे-जैसे लोग अपने तबाह हुए कारोबार की तरफ लौटेंगे तो इसके बढ़ने की आशंका है।

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हालांकि 25,000 करोड़ एक बड़ी रकम है, लेकिन जमीनी हकीकत इससे कहीं ज्यादा भयावह नजर आती है, क्योंकि इस इलाके के ज्यादातर कारोबारियों ने अपनी दुकानों, फैक्टरियों, और काम-धंधों का कोई बीमा नहीं करा रखा है। इतना ही नहीं कुछेक बड़े मार्केट के अलावा ज्यादातर कारोबारियों की एसोसिएशन भी नहीं है, जो काम-धंधों को पटरी पर लौटाने में मदद दे सके।

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नीचे दी गई तस्वीर में जो शख्स दिख रहे हैं वह अशोक शर्मा हैं। उनकी हार्डवेयर और पेंट की दुकान थी। वे बताते हैं कि, “यहां तो सबकी दुकानें हैं।” इशारा करते हुए कहते हैं, “वह हिंदू की दुकान है, उसके बराबर में मुसलमान की दुकान है, ऐसा ही है पूरा मार्केट। ऐसे हालात तो 1984 और 1992 तक में नहीं हुए थे।” सिर्फ अशोक शर्मा ने ही इस भरे-पूरे बाजार में बीमा करा रखा था। उनका कहना है कि उनकी दुकान में एक करोड़ रुपए से ऊपर का सामान था, लेकिन बीमे से उन्होंने शायग 40 लाख तक ही मिल सकेगा। बाकी के लिए तो मुसीबतें और ज्यादा हैं। एक दुकानदार का कहना था, “कभी सोचा ही नहीं बीमा कराने के बारे में, न कभी सोचा था कि ऐसा दिन भी आएगा।”

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इन इलाकों में लोग दशकों से काम कर रहे हैं। ज्यादातर एमएसएमई यानी छोटे और मझोले कारोबार हैँ। दुकानें भी मिली जुली हैं, यानी हिंदुओं की भी और मुसलमानों की भी दुकानें आसपास ही हैं। कभी कोई दिक्कत नहीं हुई किसी को क्योंकि पैसा धर्म तो देखता नहीं है, और न ही वह आग जो धर्म आधारित सांप्रदायिकता के शोले बनकर कहर ढाती है।

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जिन लोगों ने बीमा करा भी रखा था, उन्हें भी बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं हैं। भजनपुरा मार्केट एसोसिएशन के महासचवि ज्ञानपाल बताते हैं कि बीमा कंपनियां नुकसान के दावों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रही हैं। हालांकि उत्तर पूर्वी दिल्ली के कई दुकानदारों और कारोबारियों ने बीमा के लिए दावे किए हैं। वहीं एलआईसी का स्थानीय दफ्तर और दूसरी बीमा कंपनियों के दफ्तर बंद पड़े हैं।

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इस इलाके में चूंकि ज्यादातर दुकानदार बिना कागजात और रसीदों के काम करते हैं, ऐसे में वक्त जरूरत दुकानदार और कारोबारी स्थानी महाजनों से कर्ज लेते हैं। ठेला लगाने वाले, छोटी-छोटी दुकानें चलाने वाले, घरों के अंदर से या किसी कोने में कोई सप्लाई का काम करने वाले इन्हीं महाजनों के सहारे कारोबार चलाते हैं क्योंकि बैंक उन्हें कोई कर्ज नहीं देता। सबकुछ तबाह होने के बाद इन कारोबारियों को एक बार फिर इन्हीं महाजनों के चंगुल में फंसना पड़ेगा जो बेहद मोटे ब्याज पर कर्ज देते हैं।

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दशकों से कारोबार करने वाले तमाम लोगों को पुलिस और स्थानीय प्रशासन से बेहद शिकायतें हैं। उनका यही कहना है कि, “कहां थे ये सब? हमारी फोन कॉल का जवाब क्यों नहीं दिया जा रहा था? जब आ भी गए तो भी सबकुछ होते देखते रहे, कुछ किया क्यों नहीं?” ये कारोबारी एक-दूसरे को नहीं, बल्कि राजनीतिज्ञों को कसूरवार ठहरा रेह हैं।

(यह रिपोर्ट बिजनेस स्टैंडर्ड के पत्रकार अरुपरॉय चौधरी के ट्वीट पर आधारित है। तस्वीरें भी उन्हीं की ट्विटर टाइमलाइन से ली गई हैं।

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