इस वक्त दारुल कज़ा यानी शरई अदालत का मामला ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और मीडिया दोनों जगह छाया हुआ है। एक तरफ मीडिया ने दारुल कज़ा की हकीकत पर बहस शुरु कर दी है, तो दूसरी तरफ इस मुद्दे पर पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्यों के आपसी मतभेद खुल कर सामने आ गए हैं। हालांकि 15 जुलाई को हुई मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक में समलैंगिकता और बाबारी मस्जिद के मुद्दे भी विचार के लिए आए थे, लेकिन दारुल कज़ा का मामला ही बैठक में छाया रहा। बोर्ड के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि कई सदस्य इस बैठक में इसलिए शामिल नहीं हुए क्योंकि वह इस वक्त दारुल कज़ा के मामले पर विचार करने के पक्ष में नहीं हैं। बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना राबे हसनी नदवी, उपाध्यक्ष मौलाना कल्बे सादिक, मोहम्मद अय्यूब, मौलाना अरशद मदनी और मौलाना महमूद मदनी आदि रविवार की बैठक में आए ही नहीं। बोर्ड एक वरिष्ठ सदस्य ने कौमी आवाज को बताया कि और भी बहुत से सदस्यों ने इस बैठक में इसलिए हिस्सा नहीं लिया क्योंकि वे दारुल कजा के मुद्दे को इस वक्त उठाने के पक्ष में नहीं हैं।
इस सदस्य का कहना है कि दारुल कज़ा मामले में जल्दबाज़ी करने से राजनीतिक तौर पर इसका गलत फायदा उठाने की कोशिश की जाएगी। लेकिन, उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया गया। उन्होंने यह भी बताया कि दारुल कज़ा पहले से ही कई राज्यों में मौजूद हैं तो आधिकारिक तौर पर नए दारुल कज़ा खोलने की घोषणा करने से साम्प्रदायिक शक्तियों को यह कहने का मौका मिल रहा है कि 'देश में अदालत मौजूद है तो मुसलमानों को शरई अदालत की क्या जरूरत! इस वरिष्ठ सदस्य का कहना है कि यह सब बातें चुपचाप भी जा सकती थीं, और जब बोर्ड की बैठक से पहले ही दारुल कज़ा 'पर हंगामा शुरू हो गया था तो देश में और 10 दारुल कज़ा खोलने की घोषणा करना किसी भी ऐतबार से मुनासिब नहीं था।
गौरतलब है कि दारुल कज़ा के मुद्दे पर रविवार की बैठक के दौरान भी कुछ सदस्यों ने यह कहा था कि, '' इस घोषणा अभी कोई जरूरत नहीं है क्योंकि ऐसा करने से यह एक राजनीतिक चर्चा का विषय बन जाएगा...., लेकिन बहुमत घोषणा करने के पक्ष में नजर आई और फिर बाद में प्रेस कांफ्रेंस कर और दस नए दारुल कज़ा खोले जाने की घोषणा की गई। इस ऐलान के साथ ही पूरे मीडिया और खासतौरसे हिंदी मीडिया में इस पर बहस शुरु हो गई।
वैसे तो यह बहस मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वरिष्ठ सदस्य जफरयाब जिलानी द्वारा बोर्ड की बैठक से पहले ही देश के हर जिले में दारुल कज़ा खोलने पर विचार किए जाने की बात कहने के बाद से ही शुरू हो चुकी थी, लेकिन बैठक के बाद हुई प्रेस कांफ्रेंस ने उसे और तेज कर दिया।
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इस बारे में बोर्ड के वरिष्ठ सदस्य कमाल फारूकी ने कौमी आवाज़ को बताया कि, 'देश में पहले से ही कई दारुल कज़ा मौजूद हैं। ऐसे में नए दारुल कज़ा खोले जाने को बिना वजह तूल दिया जा रहा है। ऐसा सिर्फ इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि इसकी जरूरत है।'' कमाल फारूकी मीडिया इस बात पर नाराज दिखे कि 10 दारुल कज़ा में पहला गुजरात में खोलने जाने की बातें की जा रही हैं, जो कि सच्चाई नहीं है। उन्होंने कहा कि '' जिस जगह पहले जरूरत होगी वहां पहले खोला जाएगा।'' साथ ही कमाल फारूकी ने यह भी कहा कि '' अगर गुजरात में दारुल कज़ा खुल रहा है तो इसमें गलत क्या है।"
दूसरी तरफ दारुल कज़ा पर छिड़ी बहस से मुस्लिम बुद्धिजीवियों में बेचैनी है। डॉ जाकिर हुसैन स्कूल के प्रिंसिपल दारुल कज़ा के ऐलान को नासमझी का ऐलान बताते हैं। उनका कहना है कि, "बोर्ड के इस कदम से सांप्रदायिक ताकतों को मजबूती मिलेगी और लोगों के बीच गलत संदेश भेजा जा रहा है। मौजूदा हालात में बोर्ड को इस मामले को टाल देना चाहिए था। वहीं मुस्लिम आलोचक ऐन आम चुनाव से पहले की गई पर्सनल लॉ बोर्ड की इस पेशरफ्त को बीजेपी और संघ को फायदा पहुंचाने वाला कदम मान रहे हैं। बातें यहां तक हो रही हैं कि बोर्ड प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि बीजेपी और संघ के लिए काम कर रहा है। संभवत: यही कारण था कि बोर्ड के वरिष्ठ सदस्य जफरयाब जिलानी को प्रेस कांफ्रेंस में सफाई देनी पड़ी की बोर्ड बीजेपी या संघ के लिए नहीं, बल्कि मुसलमानों के लिए काम कर रहा है।
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