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मोदी के वाराणसी में कन्स्ट्रक्शन लॉबी की पौ बारह, 'विकास' के नाम पर भूमि कब्जाने का खेल जारी

हवाई अड्डा विस्तार, छह लेन का राजमार्ग, होटल और मॉल बनाने के लिए पीएम मोदी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी के आसपास भूमि का अधिग्रहण तो हो ही रहा है, पेड़ों की अंधाधुंध कटाई भी जारी है। इसने कन्स्ट्रक्शन लॉबी को भूमि कब्जाने का बहाना भी दे दिया है।

मोदी के वाराणसी में कन्स्ट्रक्शन लॉबी को 'विकास' के नाम पर भूमि कब्जाने का खेल जारी
मोदी के वाराणसी में कन्स्ट्रक्शन लॉबी को 'विकास' के नाम पर भूमि कब्जाने का खेल जारी फोटोः रश्मि सहगल

वाराणसी के अंदर और बाहर, आस-पास के गांवों में इस समय भूमि अधिग्रहण का काम बहुत तेजी से चल रहा है। यह सब इसलिए कि राज्य सरकार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तमाम तुगलकी फरमान लागू करने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती और इसके लिए संगठनों और किसानों को बेदखल करने के लिए युद्धस्तर पर काम जारी है। ऐसा लगता है कि वाराणसी को एक ‘न भूतो, न भविष्यत्’ टूरिस्ट हब बना देने की तैयारी है। देखने की बात है कि अब इस प्राचीन शहर का मूलभूत स्वरूप इसके साथ किस तरह तालमेल बिठाता है।

23 सितंबर को मोदी राजातालाब के गांजरी में 450 करोड़ रुपये की लागत से 32 एकड़ भूमि पर बनने वाले अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम की आधारशिला रखने वाराणसी आए थे। अब नौकरशाही इस परियोजना को बिजली की रफ्तार से आगे बढ़ाना चाहती थी, इसलिए इस प्रमुख कृषि भूमि का अधिग्रहण कर लिया गया और किसानों को भूमि के लिए सर्कल रेट से चार गुना भुगतान भी कर दिया गया। गांजरी गांव के तेजतर्रार प्रधान अमित पटेल कहते हैं, “यहां के किसान बहुत खुश हैं क्योंकि उन्हें सर्किल रेट से चार गुना ज्यादा दाम मिला है। लेकिन स्टेडियम के लिए अधिग्रहित की गई 1.5 एकड़ ग्रामसभा की जमीन का कोई मुआवजा नहीं दिया गया।

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बेहतर तो यही होता कि गांव को हमारी जर्जर स्वास्थ्य या शैक्षणिक सुविधाएं उन्नत करने पर खर्च करने के लिए कुछ मुआवजा मिल जाता।” अमित कहते हैं: “मेरे नेतृत्व में ग्राम पंचायत के सदस्यों ने स्टेडियम के उद्घाटन के लिए सभी तैयारी और संगठनात्मक कार्य किए लेकिन हमारे गांव से किसी को भी समारोह में आमंत्रित नहीं किया गया। हां, हमारे गांव की उन सोलह महिलाओं को जरूर बुलाया गया जिन्हें उज्ज्वला योजना के तहत गैस सिलेंडर मिले थे और जिनके पास आयुष्मान भारत कार्ड हैं। लेकिन उन्हें भी जब पता चला कि उनके प्रधान को ही आमंत्रित नहीं किया गया है, अपनी नाराजगी व्यक्त करने के लिए उन्होंने उद्घाटन समारोह में शामिल होने से इनकार कर दिया।”

लेकिन ज्यादातर किसान गांजरी के किसानों की तरह भाग्यशाली नहीं हैं क्योंकि उन्हें बड़े पैमाने पर बिना किसी मुआवजे के अपनी जमीन छोड़ने या सरकार को औने-पौने दामों पर बेचने के लिए मजबूर किया जा रहा है। पटेल बताते हैं, “जिलाधिकारी द्वारा पहले ही आदेश जारी किया जा चुका है कि पड़ोसी गांवों हरसोड़, हरदासपुर, मेहंदीगंज और गंजारी में भूमि का अब आगे कोई पंजीकरण नहीं होगा।” इन गांवों के किसान जमीन की बिक्री पर लगे प्रतिबंध को एक अशुभ संकेत के रूप में लेते हैं कि सरकार जल्द से जल्द उनके अधिग्रहण की योजना बना रही है। सच है कि ज्यादातर किसान अपनी कृषि योग्य जमीन खोना नहीं चाहते।

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वाराणसी जिले के जालूपुर गांव की कहानी एकदम अलग है। इस गांव में भू-मालिकों को नोटिस मिला जिसमें उन्हें बताया गया कि चूंकि उनकी भूमि ‘बंजर’ है, इसलिए यह राज्य की संपत्ति है और ऐसे में उनका अधिग्रहण तो होना ही है, उन्हें मुआवजे में धेला भी नहीं मिलेगा। लेकिन चूंकि इन जमीनों के अधिकांश मूल मालिकों के काफी समय पहले निधन हो चुके हैं  और पचास के दशक के बाद से ये जमीनें नई पार्टियों को बेची जा चुकी हैं, ऐसे में मौजूदा मालिक घटनाक्रम के इस ताजा मोड़ से डरे हुए हैं। जालूपुर के प्रधान अमृत चौहान कहते हैं- “हम इन जमीनों को पचास के दशक से जोत रहे हैं। हमारे पिताओं ने यह जमीनें इनके मूल मालिकों से खरीदी थीं जिनकी बहुत पहले मृत्यु हो चुकी है। इस जमीन की चकबंदी भी हो चुकी है और नए मालिकों के नाम जमीन के रिकॉर्ड में भी दर्ज हैं।”

अब यह विडंबना ही है कि जिन जमीनों के मूल मालिकों का दशकों पहले मर चुके हैं, यहां नोटिस उनके नाम पर भेजी गई कि ‘उनकी जमीनें बंजर हो चुकी हैं’। चौहान बताते हैं कि- “मौजूदा मालिकों को तो एक वकील के जरिये यह सूचना मिली जिसे अपने एक मृत ग्राहक की ओर से यह सूचना प्राप्त हुई थी।” जालूपुर, कोसी, मिल्कोपुर, तोफापुर और सरयेन गांवों के किसानों को भी अपनी जमीन छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

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जालूपुर के तीन प्रभावित किसानों ने एसडीएम से संपर्क किया लेकिन उनकी अपील सुने बिना ही उनका मामला खारिज कर दिया गया। इस क्षेत्र के एक बड़े किसान महेंद्र जायसवाल की जमीन भी अधिग्रहित की जा रही है। वह इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील दायर करने की तैयारी कर रहे हैं। उनकी इच्छा अपनी जमीन पर एक डीम्ड यूनिवर्सिटी स्थापित करने की थी लेकिन जिस तरह और तेजी से भूमि अधिग्रहण हो रहा है, उसे देखते हुए वह भरोसा नहीं कर पा रहे कि इसकी अंतिम परिणति क्या होगी!

इस बीच वाराणसी हवाई अड्डे और ट्रांसपोर्ट कॉलोनी के आसपास के गांवों में अधिग्रहण के विरोध में आंदोलन शुरू हो गया है और इसमें तेजी आ रही है। दरअसल, सरकार वाराणसी हवाई अड्डे का जल्द विस्तार करने की इच्छुक है और राज्य के प्रशासनिक तंत्र ने हवाई अड्डे के आसपास रहने वाले ग्रामीणों को जमीन खाली करने का नोटिस दे दिया है। क्षेत्रीय ग्रामीण जिस तरह अपना विरोध जारी रखे हुए हैं, लोकसभा चुनाव नजदीक होने और सत्तारूढ़ दल के खिलाफ हवा बन जाने के डर से हवाईअड्डा विस्तार परियोजना को फिलहाल रोक दिया गया है।

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मौजूदा सरकार की एक अन्य पसंदीदा परियोजना ट्रांसपोर्ट नगर और उसके आसपास कृषि भूमि का अधिग्रहण है। दरअसल सरकार सड़कों का एक नेटवर्क बनाना चाहती है जिसमें वाराणसी के बाहर छह लेन की सड़क और वाराणसी को बुंदेलखंड और मथुरा से जोड़ने वाले विशेष एक्सप्रेस-वे का प्रस्ताव शामिल है। सरकार यहां कई मॉल और शॉपिंग सेंटर बनाने की तैयारी में है। इसमें एक मॉल का आकार लखनऊ के लुलु मॉल से भी दोगुना होने की उम्मीद है।

किसानों के अधिकारों के लिए विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले लक्ष्मण मौर्य बताते हैं कि “इसके लिए अब तक लाखों पेड़ काटे जा चुके हैं।” मौर्य कहते हैं, “जो भी किसान इसके विरोध में आवाज उठाता है, उस पर नक्सली होने का आरोप लगाया जा रहा है।”

जालूपुर से बारह किलोमीटर दूर एक गांव है शहंशाहपुर। यहां सरकार ने जमीन अधिग्रहण के लिए गांव वालों को दोबारा नोटिस दिया है। लेकिन यहां के किसान भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलित हैं और उनका दावा है कि वे अपनी जमीन छोड़ने के बजाय आखिरी सांस तक लड़ेंगे। सारनाथ के रास्ते में भी बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण चल रहा है।

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हालांकि इस अंधाधुंध भूमि अधिग्रहण से सिर्फ किसान ही प्रभावित नहीं हैं। तथागत विहार चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा गंगा तट पर बौद्ध आध्यात्मिक विकास केन्द्र के रूप में 80 एकड़ में चलाए जा रहे हरे-भरे बौद्ध विहार को भी अपनी जमीन खाली करने को कहा जा चुका है। इसका उपयोग ऐसे गोदाम विकसित करने के लिए होगा जिनका इस्तेमाल अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण द्वारा किया जाएगा। इनका भव्य मल्टी-मॉडल ट्रांसपोर्ट हब रामनगर में बनाने की योजना है। हालांकि संयुक्त सचिव और प्रबंध ट्रस्टी विद्याधर मौर्य मामला अदालत में ले गए जिसके बाद फिलहाल तो इस अधिग्रहण पर रोक लग गई है। मौर्य ने कहा, “मैंने चार महीने पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और स्टे पाने में कामयाब रहा” लेकिन वह इस बात को लेकर आशंकित हैं कि भविष्य में घटनाएं कैसा मोड़ लेती हैं।

रेल, सड़क और नदी परिवहन के बीच तालमेल बिठाने के इरादे से एक अन्य इंटर-मॉडल हब राजघाट के पास आकार ले रहा है। अब चूंकि इसके लिए लगभग 31 एकड़ भूमि की आवश्यकता होगी, इस योजना के लिए ‘सर्व सेवा संघ’ की बलि चढ़ा दी गई। यह ऐसा संगठन है जिसका सारा ध्यान गांधीवादी शिक्षाओं को बढ़ावा देने पर केन्द्रित है। संघ की 8.7 एकड़ भूमि को बेरहमी से हड़प कर अधिग्रहण किया जा चुका है। शेष 21 एकड़ जमीन कथित तौर पर कृष्णमूर्ति फाउंडेशन से अधिग्रहित करने की योजना है जिसकी 300 एकड़ से अधिक की मुख्य संपत्ति सर्व सेवा संघ के पास तक है।

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पूर्वी उत्तर प्रदेश में अंधाधुंध भूमि अधिग्रहण का यह दौर सामाजिक अशांति का कारण बन रहा है। पड़ोस के आजमगढ़ में ऐसा ही एक आंदोलन पिछले एक साल से चल रहा है और वहां  किसान इसके खिलाफ ‘युद्धरत’ हैं क्योंकि वहां सरकार मंदुरी-आजमगढ़ हवाई पट्टी का विस्तार करने के लिए 670 एकड़ भूमि का अधिग्रहण करना चाहती है और जिसके लिए आठ गांवों के 4000 घरों पर बुलडोजर चलाना होगा। खिरिया बाग इलाके में “घर बचाओ, खेत बचाओ” आंदोलन के बैनर तले गांव की महिलाएं लम्बे समय से हर रोज प्रदर्शन कर रही हैं।

राकेश टिकैत, मेधा पाटकर और मैग्सेसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडे सहित अनेक प्रमुख किसान नेता और सामाजिक कार्यकर्ता इन किसानों के समर्थन में सामने आए हैं। ऐसी ही एक सभा को संबोधित करते हुए नेशनल अलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट्स की मेधा पाटकर ने कहा कि प्रशासन 2013 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन कर रहा है। उनके अनुसार, कानून के मुताबिक, प्रशासन को किसी भी क्षेत्र का अधिग्रहण करने से पहले 80 फीसदी भूस्वामियों की सहमति लेनी चाहिए। समाजवादी जन परिषद के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता अफलातून कहते हैं, “यह अंधाधुंध भूमि अधिग्रहण सदियों से शिक्षा और आध्यात्मिक विकास का केन्द्र रहे वाराणसी की आत्मा को नष्ट कर रहा है।”

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