पांच मई की सुबह आठ बजे मेरे दोस्त प्रदीप शर्मा का मैसेज आया किउनके बड़े भाई का स्वर्गवास हो गया है और दाह संस्कार बाबरपुर की श्मशान घाट पर दस बजे किया जाएगा। मैं जब पहुंचा तो दाह संस्कार हो चुका था और लोग अलग-अलग ग्रुप में खड़े बातें कर रहे थे। मैं प्रदीप के पास जाकर खड़ा हो गया जहां कोई दस लोग मौजूद थे।
मेरे पूछने पर प्रदीप ने भाई की बीमारी और इलाज के बारे में बताया। उसके बाद लोगों ने चुनाव पर बातचीत शुरू कर दी। मुझे थोड़ा अजीब-सा लगा और मैंने कहा भी कि ये बातें यहां करने की क्या ज़रूरत है। लेकिन मेरी बात को नकारते हुए प्रदीप ने कहा कि वह तो चले गए, बात करने में क्याहै , यहां करो या बाहर। मैं खामोश हो गया।
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देखते ही देखते बातचीत जोरदार कांग्रेस-बीजेपी बहस में बदल गई। एक सीनियर टीचर बोले, ‘‘इस बार मोदी आ गया तो अगले दस साल तक नहीं जाएगा, और इस बार वह अपनी ग़लतियों को ठीक कर लेगा, जैसे नौकरी और किसानों की समस्याएं हैं, और देश को ऐसा ही प्रधानमंत्री चाहिए।’’ दूसरे साहब जब तक उनके सपोर्ट में कुछ कहते, एक और सज्जन ने सवाल किया कि मोदी ने किया क्या है। इस पर उन्होंने कहा कि पूरी दुनिया में भारत का सिर ऊंचा किया है, दुश्मनों को बता दिया है कि भारत क्या चीज़ है।
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अब बात बढ़ती नज़र आने लगी। अब तक खामोश खड़े एक सज्जन ने कहा कि विदेशों में घूमने के अलावा कुछ नहीं किया। दुश्मनों को मज़बूत कर दिया, उन्होंने हमारे घर में आकर हमारे सीआरपीएफ के जवानों की हत्या कर दी। इस पर मोदी की तारीफ करने वाले सज्जन को ग़ुस्सा आ गया और बोले आप लोगों को अच्छा प्रधानमंत्री नहीं चाहिए! एक और साहब ने उन से प्रश्न किया कि जो आदमी अपनी पत्नी को साथ न रखे, वह क्या देश की सेवा करेगा? जवाब में उन्होंने महात्मा बुद्ध का उदाहरण दे दिया। इस पर वह सज्जन भड़क उठे और बोले कि महात्मा बुद्ध ने प्रधानमंत्री बनने के लिए पत्नी और घर का त्याग नहीं किया था। माहौल बिगड़ता देख प्रदीप ने कहा, अच्छा बताओ, कितनी सीटें किस पार्टी को मिल रही हैं... और फिर शर्तें लगनी शुरू हो गईं।
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यह बताने का मकसद यह है कि दिल्ली की जनता किसी एक तरफ नहीं सोच रही क्योंकि इस चर्चा में भाग लेने वालों का संबंध उत्तर प्रदेश के ब्राहमण समाज और टीचिंग कम्युनिटी से था। बातचीत ऐसी जगह हो रही थी जहां लोग कम ही झूठ बोलते हैं। समाज के इस वर्ग को मोदी समर्थक कहा जाता है, लेकिन कोई अंधभक्ति नज़र नहीं आई। इस की कई वजह हो सकती हैं, जिनमें प्रधानमंत्री की भाषा, टीवी पर प्रचार की अति और दिल्ली में शीला दीक्षित का मैदान में उतरना शामिल है।
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सभ्य समाज हमेशा अच्छी भाषा सुनना पसंद करता है और अगर कोई भाषा का स्तर गिराता है तो लोगों को उस की अच्छाई भी बुरी लगने लगती है। हिन्दुस्तानी मानसिकता है कि अगर किसी चीज़ के प्रचार में अति हो जाती है तो जनता उस पर ठीक वैसे ही सवाल खड़े करने लगती है जैसे ग़रीब आदमी कार वाले से बेवजह की नफरत करता है।
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दिल्ली में सबसे बड़ी चर्चा यह नहीं है कि क्रिकेट खिलाड़ी गौतम गंभीर या बॉक्सर विजेंदर चुनाव लड़ रहे हैं। सबसे बड़ी चर्चा यह है कि शीला के मैदान में उतरने के बाद बीजेपी के लिए मुकाबला आसान नहीं रह गया है। लोग अब आम आदमी पार्टी की बात कम कर रहे हैं। लोग इस बात से भी खुश नज़र आ रहे हैं कि आप और कांग्रेस का गठबंधन नहीं हुआ। मूलतः दिल्ली में भी मुकाबला राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में चला गया है जहां मुख्य प्रतिद्वंद्वी बीजेपी और कांग्रेस हैं। शीला की जो छवि है, उसका फायदा कांग्रेस को साफ़ नज़र आ रहा है।
बीजेपी केंद्र में सत्ता में है, तो आप दिल्ली में। यहां की जनता पर दोनों सरकारों का असर दिखाई देता है। सीलिंग, जीएसटी-जैसे मुद्दों से मिडिल क्लास नाराज़ हैं। लोग आप सरकार की बिजली-पानी वाली घोषणाओं से तो खुश हैं लेकिन इनके अतिरिक्त इस पार्टी से उन्हें जो उम्मीदें थीं, वे पूरी नहीं हुईं। इनके चार मंत्री अलग-अलग मामलों में हटाए गए और कई बड़े नेताओं ने पार्टी छोड़ी- जैसे, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आशुतोष, कुमार विश्वास, आशीष खेतान वगैरह।
दिल्ली में निगम और दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्रसंघ के चुनावों में इनका प्रदर्शन बहुत ख़राब रहा और वोट प्रतिशत बहुत नीचे गिर गया। इसके साथ दिल्ली के बाहर भी इस पार्टी की साख ख़राब हुई है।
इस सबके बावजूद उत्तर पश्चिमी आरक्षित सीट और पूर्वी दिल्लीसे आप के उम्मीदवार चर्चा में हैं। आप ने जिन उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, उनमें नई दिल्ली से बृजेश गोयल, चांदनी चैक से पंकज गुप्ता, उत्तरी पूर्वी दिल्ली से दिलीप पांडेय, पूर्वी दिल्ली से आतिशी, दक्षिण दिल्ली से राघव चड्ढा, उत्तरी पश्चिमी दिल्ली से गुग्गन सिंह और पश्चिमी दिल्ली से बलबीर सिंह जाखड़ हैं।
बीजेपी के हर सांसद से लोग नाराज़ दिखते हैं। लेकिन जो संघ का कैडर वोट है, वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वजह से बीजेपी को वोट दे सकता है। वैसे, लोग और बीजेपी समर्थक भी प्रदेश अध्यक्ष और उत्तरी-पूर्वी दिल्ली से सांसद मनोज तिवारी से बहुत नाराज़ है। बीजेपी ने अपने दो सांसदों को टिकट नहीं दिया। इनमें उदित राज पार्टी छोड़कर कांग्रेस में चले गए। उदित राज की जगह सूफी गायक हंसराज हंस को बीजेपी ने आरक्षित सीट से उम्मीदवार बनाया है जबकि महेश गिरी की जगह क्रिकेटर गौतम गंभीर को मैदान में उतारा है।
बाकी सीटों पर बीजेपी ने अपने सांसदों को रिपीट किया है। इनमें डॉ हर्षवर्धन, रमेश विधूड़ी, मनोज तिवारी, प्रवेश वर्मा और मीनाक्षी लेखी हैं।
दिल्ली में कांग्रेस का न तो कोई विधायक है और न कोई सांसद। फिर भी, उसने पिछले चार वर्षों में बहुत तेज़ी से वापसी की है। इसकी वजह से दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ और निगमों के चुनावों में उसने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है। वर्ष 2015 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मात्र 9 प्रतिशत वोट मिले थे लेकिन निगम के उपचुनावों में कांग्रेस का यह प्रतिशत बढ़कर 25 से ज्यादा हो गया। दिल्ली में चुनावी मुकाबला अब बीजेपी और कांग्रेस के बीच हो गया है। अगर ऐसा होता है, तो फिर दिल्ली की सभी सात सीटों पर मुकाबला कांटे का होगा और बीजेपी के लिए पनघट की डगर कठिन होती जा रही है।
कांग्रेस ने उत्तरी पूर्वी दिल्ली से शीला दीक्षित (ब्राह्मण), पूर्वी दिल्ली से अरविंदर सिंह लवली (सिख), दक्षिण से विजेंदर सिंह (जाट), पश्चिमी दिल्ली से महाबल मिश्रा (पूर्वांचली), उत्तरी पश्चमी से राजेश लिलोठिया (दलित), चांदनी चैक से जय प्रकाश अग्रवाल (वैश्य) और नई दिल्ली से अजय माकन (पंजाबी) को उम्मीदवार बनाया है। और ये सब दिल्ली की राजनीति के जाने-पहचाने चेहरे हैं।
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