बीजेपी, इसके सहयोगी संगठन और सरकार के ‘बड़े’ लोगों का मुसलमानों और सरकार के आलोचकों को परजीवी, दीमक, आतंकवादी, देशद्रोही, शहरी नक्सल कहना कोई नई बात नहीं है। 2014 के बाद ऐसी घटनाओं में वृद्धि हुई है जबकि पुलिस और अदालतों ने इस तरफ से जैसे आंखें मूंद रखी हैं। एनडीटीवी के वीआईपी हेट ट्रैकर ने हाल ही में दावा किया है कि 2014 के बाद 80 फीसदी भड़काऊ भाषण बीजेपी के मंत्रियों, सांसदों और विधायकों ने दिए।
इस तरह की शिकायत मिलने पर पुलिस का रटा-रटाया जवाब होता है- यह कोई अपराध नहीं या अभी मामले की जांच की जा रही है। उसके बाद ऐसे बड़े लोग खुद भी दावा करने लगते हैं कि उनहोंने अपने भाषणों में किसी समुदाय या व्यक्ति का नाम नहीं लिया। नफरती भाषणों के सिलसिले में तो खुद प्रधानमंत्री भी शामिल हो जाते हैं जब वह कहते हैं कि बदमाशों को आसानी से उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है।
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हाल की दो घटनाओं के कारण नफरती भाषण एक बार फिर सुर्खियों में है। एक, हाल ही में राष्ट्रीय राजधानी में बीजेपी नेताओं के बोल बिगड़े और दूसरा, रिटायर्ड नौकरशाहों ने संस्था कंस्टीट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप (सीसीजी) द्वारा फरवरी, 2020 में दिल्ली में हुए दंगों पर तैयार रिपोर्ट ‘अनसर्टेन जस्टिस’ का विमोचन किया गया।
बीजेपी के लोकसभा सांसद परवेश साहिब सिंह ने हाल ही में दिल्ली में एक कार्यक्रम में कहा, ‘हम उनकी दुकानों से कुछ नहीं खरीदेंगे। हम उन्हें कोई काम नहीं देंगे... उनके ठेले से सब्जियां नहीं खरीदेंगे... अगर हमें उन्हें हमेशा के लिए ठीक करना है तो हमें पूर्ण आर्थिक बहिष्कार लागू करना होगा।’ उत्तर प्रदेश के बीजेपी विधायक नंद किशोर गुर्जर ने उसी कार्यक्रम में कहा, ‘हमारा खूबसूरत शहर सूअरों का शहर बनकर रह गया है।’
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इन शब्दों से साफ है कि ये खास समुदाय के लिए कहे गए थे लेकिन बीजेपी सांसद ने ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से बातचीत में दावा किया कि उन्होंने किसी धार्मिक समुदाय का नाम नहीं लिया। यह भी दावा किया कि वह तो ‘उन परिवारोों’ का जिक्र कर रहे थे जो उस इलाके के मनीष नाम के व्यक्ति को चाकू मारने के पीछे थे। जाहिर है, यह सफाई किसी भी नजरिये से भरोसे लायक नहीं और यह सोचने को मजबूर करती है कि क्या ये लोग वास्तव में कानून से ऊपर हैं। और ऐसा तब है जब भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 153-ए धर्म, नस्ल, जाति या भाषा के आधार पर समूहों के बीच शत्रुता पैदा करने वाली भाषा बोलने और कार्यों को दंडनीय अपराध बनाती है जिसमें तीन साल तक की कैद या जुर्माना या दोनों की सजा हो सकती है।
एक ओर तो परवेश वर्मा, नंद किशोर गुर्जर, ‘संत-महंत’ जैसे लोगों के बिगड़े बोलों के लिए उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती, वहीं दिल्ली पुलिस सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ देशद्रोह तक का मामला दर्ज कर लेती है।
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‘अनसर्टेन जस्टिस’ रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति मदन लोकुर की अध्यक्षता में एक पैनल की देखरेख में तैयार की गई है और पैनल में दिल्ली हाईकोर्ट के रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एपी शाह, दिल्ली हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज न्यायमूर्ति आर एस सोढी, पटना हाईकोर्ट की रिटायर्ड जज न्यायमूर्ति अंजना प्रकाश, पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई जैसे लोग हैं। दिल्ली दंगों में केन्द्रीय गृह मंत्रालय के रुख, दिल्ली पुलिस की जांच-पड़ताल, पेश सबूतों पर अदालत की टिप्पणी वगैरह रिपोर्ट का हिस्सा हैं। इसमें मीडिया की भूमिका की भी समीक्षा की गई है।
चूंकि यह केस अभी अदालत में लंबित है, इसलिए रिपोर्ट में अभियुक्तों के खिलाफ चल रहे मामले के गुण-दोष पर कोई टिप्पणी नहीं की गई है। लेकिन रिपोर्ट का शीर्षक अपने आप में काफी कुछ कह जाता है। रिपोर्ट में दंगों से पहले बड़े नेताओं के नफरती भाषण भी रखे गए हैं। रिपोर्ट में परवेश साहिब सिंह वर्मा का 28 जनवरी, 2020 को समाचार एजेंसी एएनआई को दिए वीडियो इंटरव्यू का भी जिक्र है जिसमें उन्होंने सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के बारे में कहा था, ‘..आज से कुछ साल पहले जो आग कश्मीर में लगी थी... जब कश्मीरी पंडितों की बहन-बेटियों के साथ रेप हुआ था...उसके बाद वह आग यूपी में लगती रही, हैदराबाद में लगती रही, आज वह आग दिल्ली के एक कोने में लग गई है।...ये लोग आपके घरों में घुसेंगे, आपकी बहन-बेटियों को उठाएंगे, उनसे रेप करेंगे। इसलिए आज समय है...कल मोदीजी नहीं आएंगे बचाने... अमित शाह नहीं आएंगे बचाने।’
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11 दिसंबर, 2019 को संसद में नागरिकता संशोधन अधिनियम पारित होने के बाद देश के तमाम हिस्सों में विरोध प्रदर्शन हुए और इसके साथ ही सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों, खास तौर पर मुसलमानों के खिलाफ एक माहौल बनाया जा रहा था। 8 फरवरी को दिल्ली में चुनाव को देखते हुए भी यह सब हो रहा था। बीजेपी लोगों में संदेश देती रही कि सीएए का समर्थन करना सभी भारतीयों की देशभक्तिपूर्ण जिम्मेदारी है और यह सब करते हुए उसने मुसलमानों में असुरक्षा की भावना भर दी।
20 जनवरी, 2020 को बीजेपी नेता कपिल शर्मा सीएए समर्थक रैली में भड़काऊ नारा लगाते हैं- देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को। फिर 27 जनवरी को यही नारा केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर लगाते हैं। उसके बाद बीजेपी के तत्कालीन महासचिव तरुण चुग ट्वीट करते हैं- ‘हम दिल्ली को सीरिया नहीं बनने देंगे और उन्हें यहां आईएसआईएस जैसा मॉडल नहीं चलाने देंगे जिसमें औरतों और बच्चों का इस्तेमाल किया जाता है... हम दिल्ली को जलने नहीं देंगे।’
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स्तंभकार और सीएसडीएस के प्रोफेसर अभय दुबे इन सबमें एक पैटर्न देखते हैं। वह कहते हैं, ‘युद्ध के रणनीतिकारों की तरह ही उन्होंने जगह- जगह संघर्ष के क्षेत्र तैयार कर दिए हैं। कहीं लव जिहाद के नाम पर, कहीं मदरसा सर्वे के नाम पर, कहीं हिजाब पर रोक के नाम पर... मंशा एक ही है- सांप्रदायिक आग धधकती रहे।’ दुबे साफ कहते हैं कि यह सब बीजेपी और संघ की मर्जी के बिना नहीं हो सकता।
विश्व हिंदू परिषद से जुड़े लोगों ने इस तरह के सांप्रदायिक बोल की तरफदारी करते हुए कहा कि मुसलमानों और लिबरलों को यह सोचना चाहिए कि आखिर हिन्दू ऐसी भाषा बोलने के लिए मजबूर क्यों हो गए?
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अनसर्टेन जस्टिस में विस्तार से बताया गया है कि कैसे और किन लोगों ने दंगों को भड़काया। बीजेपी और राष्ट्रवादी हिन्दू समूहों ने 23 और 24 फरवरी को लोगों को जुटाने के लिए फेसबुक लाइव का इस्तेमाल किया। 23 फरवरी को सुबह 8.21 मिनट पर संजीव शर्मा ने अपने दर्शकों को कहा कि वे सीएए विरोधी प्रदर्शन स्थलों को जाने वाली सड़कों को जाम कर दें और वहां खाना वगैरह न ले जाने दें। सुबह 10.46 बजे अनुपमा पांडे फेसबुक पर संदेश देती हैं कि ‘हिन्दू भाई’ बड़ी तादाद में मौजपुर चौक पहुंचें। वह ललकारती हैं- ‘जब तक वे आपके घर आने वाली सड़कों को जाम न कर दें, अपने घरों में बैठे रहें। शर्म आनी चाहिए 100 करोड़ लोगों को!’ दोपहर 11:27 बजे अंजलि वर्मा लिखती हैं- ‘गृह युद्ध की करो तैयारी, तब सुधरेंगे मुल्ले टोपी धारी’।
रिपोर्ट में इस तरह की तमाम घटनाओं का जिक्र है जिससे इस बात का बखूबी अंदाजा हो जाता है कि दंगे कहां से और कैसे भड़के।
(फेसबुक और ‘अनसर्टेन जस्टिस’ से मिले तथ्यों पर आधारित)
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