इससे पहले इतने सारे सीनियर अफसरों को सेवा विस्तार कभी नहीं मिला। केन्द्रीय गृह सचिव अजय कुमार भल्ला को पिछले साल अगस्त में दो साल का कार्यकाल पूरा होने पर एक साल का सेवा विस्तार दिया गया। खुफिया ब्यूरो (आईबी) के निदेशक अरविंद कुमार और रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के प्रमुख सामंत कुमार गोयल को मई में एक-एक साल का सेवा विस्तार मिला। रक्षा सचिव अजय कुमार अगस्त में दो साल का कार्यकाल पूरा कर चुके हैं लेकिन अब तक पद पर बने हुए हैं। और अब प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के मुखिया संजय कुमार मिश्रा को हाल ही में एक और साल का विस्तार दिया गया है।
महाराष्ट्र कैडर के आईपीएस अधिकारी सुबोध कुमार जायसवाल को मई में केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) का निदेशक नियुक्त किया गया था और उनके दो साल के कार्यकाल में अभी डेढ़ साल का वक्त बचा था लेकिन केन्द्र सरकार ने अध्यादेश लाकर दिल्ली पुलिस एस्टैब्लिशमेंट एक्ट में संशोधन कर दिया जिससे सीबीआई निदेशक का भी कार्यकाल पांच साल किया जा सके।
प्रेक्षकों का मानना है कि सरकार ने जिस तरह का ‘एक्सटेंशन राज’ कायम कर रखा था, उससे साफ है कि नौकरशाही के प्रति उसका भरोसा सवालों के घेरे में है, अन्यथा सरकार कुछ खास अफसरों पर ही इस तरह निर्भर नहीं रहती। एक्सटेंशन राज प्रशासन पर भी सवालिया निशान खड़े करता है क्योंकि अगर सरकार किसी खास अफसर को चुनती है तो इसके लिए आम तौर पर उसके पास वरिष्ठता को नजरअंदाज करने के ठोस कारण होने चाहिए। एक अन्य विश्लेषक ने कहा, जिन भी अफसरों को सेवा विस्तार दिया गया, वे निश्चित ही काबिल होंगे लेकिन यहां बात यह है कि सरकार किसके साथ ज्यादा सहज महसूस करती है।
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पूर्व नौकरशाहों को भी यह बात हजम करने में दिक्कत हो रही है कि सरकार कुछ पसंदीदा लोगों को सेवा विस्तार देने के लिए अध्यादेश ले आई। उन्हें लगता है कि संजय कुमार मिश्रा को ईडी निदेशक के पद पर बनाए रखने के लिए जो किया गया, वह सोचना भी मुश्किल है। लो प्रोफाइल रहकर काम करने वाले 1984 बैच के आईआरएस अधिकारी संजय कुमार मिश्रा को नवंबर, 2020 में दो साल का कार्यकाल पूरा होने पर सेवा विस्तार दिया गया। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार पर राष्ट्रपति के आदेश को वैध माना कि सीवीसी अधिनियम कार्यकाल के संदर्भ में ‘दो साल से कम नहीं’ की बात करता है जिसका मतलब दो साल से ज्यादा तो हो ही सकता है। लेकिन इसके साथ ही अदालत ने केंद्र सरकार को यह भी सलाह दी थी कि संजय मिश्रा को इसके बाद सेवा विस्तार न दे। लेकिन 14 नवंबर को लाए गए अध्यादेश के जरिये कानून में संशोधन करते हुए सरकार ने बिल्कुल वही किया। संजय मिश्रा का कार्यकाल 17 नवंबर को खत्म हो रहा था और उन्हें एक साल का विस्तार दे दिया गया। इसके साथ ही सरकार को यह भी अधिकार मिल गया है कि उन्हें नवंबर, 2023 तक एक-एक साल का विस्तार देती रहे। 2020 में राष्ट्रपति के आदेश से यही तो करने की कोशिश की गई थी। जाहिर है, सरकार के लिए मिश्रा बहुमूल्य हैं।
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कई अफसरों ने कहा कि ‘कोई भी अफसर ऐसा नहीं जिसके बिना काम नहीं चल सके। ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए अध्यादेश लाया जाना असामान्य है।’ लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य ने कहा कि ‘संविधान ने अध्यादेश का प्रावधान इसलिए नहीं किया कि रिटायर हो रहे किसी अफसर का कार्यकाल बढ़ाया जा सके।’ एक वर्तमान अधिकारी ने कहा कि जब भी किसी को सेवा विस्तार दिया जाता है, इससे कई सालों की वरिष्ठता श्रृंखला प्रभावित हो जाती है।
एक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी ने तो यहां तक कहा कि ‘केन्द्र सरकार को ईडी की जरूरत है क्योंकि ईडी के पास तलाशी लेने, जब्ती और गिरफ्तारी की बेलगाम और बेहिसाब ताकत है। वे चाहते हैं कि विपक्षी नेताओं, सरकार के खिलाफ जुबान खोलने वाली सिविल सोसाइटी और मीडिया के लोगों पर मामले चलते रहें।’ अगर यह एजेंसी निष्पक्षता और प्रोफेशनल तरीके से काम करेगी, तो ऐसा सरकार को रास नहीं आएगा। ईडी को अब ‘नई सीबीआई’ कहा जा रहा है और मोदी सरकार इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रही है।
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उदाहरण के लिए, 2012-13 में ईडी ने फेमा (विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधनियम) और पीएमएलए (मनी लॉड्रिंग निरोधक अधिनियम) के 99 मामले दर्ज किए थे और 2019 में यह संख्या बढ़कर 670 हो गई। वित्त मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2011 से 2020 जनवरी तक ईडी ने कुल 1,700 छापे मारे, यानी तकरीबन 200 छापे सालाना। इसके उलट अभियोजन सालाना दहाई अंक में भी नहीं पहुंच सका। वकीलों का कहना है कि एक सियासी औजार के तौर पर ईडी पर निर्भरता की एक वजह यह भी है कि ईडी के सामने दिए गए बयान की अदालत में स्वीकार्यता है।
विपक्ष का कहना है कि ईडी को विपक्षी नेताओं के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है। विपक्ष के नेताओं को नियमित रूप से समन भेजकर बुलाया जाता है, गिरफ्तार किया जाता है और जैसे ही वही नेता भाजपा में शामिल होता है, इस तरह की सारी गतिविधियां एकदम से बंद हो जाती हैं। असम के मौजूदा मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व शर्मा और बंगाल के पूर्व केन्द्रीय मंत्री मुकुल राय इसके उदाहरण हैं।
12 नवंबर को सरकार ने सीबीडीटी के पूर्व चेयरमैन पीसी मूडी को राज्यसभा महासचिव बनाया। इस चक्कर में उत्तराखंड कैडर के पूर्व आईएएस अधिकारी पी पी के रामाचार्यलू को नियुक्ति के मुश्किल से 10 हफ्ते के भीतर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। मूडी इस पद पर नियुक्ति पाने वाले पहले आईआरएस अधिकारी हैं। संदेश एकदम साफ है। सरकार को प्रतिबद्ध अफसर चाहिए।
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