वे पंचायत भवन के खंभे हैं जिन पर किसी ने लिख दिया है- भूख। आम तौर पर इस ओर ध्यान नहीं जाता। न तो गांव वाले इस पर गौर करते हैं और न ही अधिकारी। पंचायत के टूटे-फूटे भवन में सामने की ओर चार खंभे हैं जिनमें से तीन पर ‘भूख’ लिखा है। एक व्यक्ति से पूछा कि यह किसने लिखा। मजाकिया लहजे में जवाब मिला- “जरूर किसी भूखे ने लिखा होगा”। लेकिन इस क्रूर हास्य पर वहां मौजूद और किसी को हंसी नहीं आई। वैसे इसमें भी कम से कम यह बात तो जरूर है कि ऐसी मुश्किल घड़ी में भी इस ग्रामीण इलाके से हास्य बिल्कुल गायब नहीं हुआ है। लेकिन ‘भूख’ शब्द बाहर वालों को दूसरे तरह से सोचने को मजबूर करता है। शहरों से आने वाले लोगों में, जिन्हें पेट भर खाना मिल रहा होता है, इस तरह की घटनाएं एक तरह का अपराध बोध भरती हैं।
खेरा गांव में बहुत लोग भूखे हैं। शिव देवी उन तमाम औरतों में से एक हैं जो राशन कार्ड लेने के लिए रोजाना पंचायत भवन का चक्कर लगाती हैं। यहां तक कि अस्थायी राशन कार्ड भी नहीं बन पा रहा है और हर दिन कोई न कोई कारण बताकर उन्हें खाली हाथ लौटा दिया जाता है। कमजोर आवाज में वह कहती हैं, “अब अगर हमें जल्दी खाना नहीं मिला तो भूख से ही मर जाएंगे।” इस इलाके में मदद के लिए पहुंचने वाले हर हाथ छोटे पड़ रहे हैं। गैरसरकारी संगठन और आम लोगों से जितना बन पा रहा है, वह इन सभी लोगों का पेट भरने के लिए काफी नहीं। शिव देवी के परिवार में सात लोग हैं जिनमें तीन बच्चे हैं। उनके पड़ोस में रहने वाले एक व्यक्ति ने बताया कि इस दौरान शिव देवी अक्सर भूखी ही रहीं जिससे कि बच्चों को एक-एक रोटी अधिक मिल जाए।
शिव देवी की परेशानी इसलिए भी बढ़ गई है कि वह घुमंतू समुदाय से हैं। इस गांव में फिलहाल ऐसे 17 परिवार हैं। ये लोग किसी एक जगह टिककर नहीं रहते और एक गांव से दूसरे गांव घूमते रहते हैं। ये लोग रोजमर्रा की जरूरतों के छोटे-मोटे औजार और बर्तन वगैरह बनाते हैं और इनकी बिक्री से मिलने वाले पैसे से ही इनका गुजारा होता है। लॉकडाउन के बाद इनकी आय एकदम खत्म हो गई है। इन लोगों में कुछ तो भाग्यशाली रहे किउन्हें गैरसरकारी संगठन विद्याधाम समिति के हस्तक्षेप के बाद अस्थायी राशन कार्ड मिल गया लेकिन शिव देवी को अब भी ऐसी किसी मदद का इंतजार ही है।
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फूलचंद कहते हैं, “लोग हम पर हंसते हैं। हम राशन की दुकान तक भी नहीं जा सकते। लोग हमें देखते ही चिल्लाने लगते हैं-कोरोना आ गया। एक बार तो एक नौजवान ने हमपर पत्थर भी फेंके थे।” बांदा के खमोरा गांव में तो सामान्य समय में भी ‘कछबंदिया’ लोग अवांछित रहे हैं। यहां रहने वाले करीब 70 दलित परिवारों के लोगों को ‘कछबंदिया’ कहकर बुलाया जाता है। अब कोरोना वायरस के संक्रमण की आशंका ने उनके लिए स्थितियां और खराब कर दी हैं। फूलचंदयह मानते हैं कि‘कछबंदिया’ लोगों में साफ-सफाई कम ही होती है। वैसे भी, वे लोग सीवर के बगलमें रह रहे हैं। वह कहते हैं, “छूआछूत का चलन बढ़ता ही जा रहा है।” इस इलाके में सक्रिय गैरसरकारी संगठन वीडीएस से जुड़े राजा भईया कहते हैं कि इसमें सदेह नहीं किये कछबंदिया दलित सबसे गरीब लोगों में हैं। वे भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत मुफ्त में अनाज लेने के पात्र हैं लेकिन स्थानीय अधिकारी यह सुविधा इन लोगों तक नहीं पहुंचा सके हैं। इस संदर्भ में जिलाधीश के पास शिकायत भी की गई है और इंतजार है कि वह कोई कार्रवाई करें।
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उनके पति की चार साल पहले मृत्यु हो गई थी और तभी से छह बच्चों को पालने की जिम्मेदारी उनपर आ गई। उसके दो बड़े बच्चे परिवार का पेट पालने में मां की मदद करने के लिए दिहाड़ी मजदूरी का काम करने पुणे गए लेकिन लॉकडाउन हो जाने के कारण वहीं फंसे हुए हैं। ये दोनों अभी नाबालिग ही हैं। इस महिला का नाम चुन्नी है। उसकी बड़ी बेटी को लकवा है और उधार पर पैसे लेकर वह उसका इलाज करा रही थी। लेकिन अब इलाज रुक गया है क्योंकि पैसे नहीं रहे। चुन्नी को अब अपने बेटों के आने का इंतजार है। उसके पास मोबाइल फोन तो नहीं है लेकिन उसके बेटों ने किसी से उसके पास खबर भिजवाई कि वे दोनों वहां से घर के लिए निकल चुके हैं। चुन्नी कहती है, “शायद वे दोनों पैदल आ रहे हैं... या हो सकता है किसी ट्रक वगैरह में चढ़कर आ रहे हों।” लेकिन उन्होंने सोच रखा है कि अब अपने बेटों को काम करने के लिए बाहर नहीं जाने देंगी। कहती हैं, “हम यहीं जीएंगे और यहीं मरेंगे। मेरे बच्चे परदेस में नहीं मरेंगे”।
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लेकिन मनीष को अफसोस है कि उन्होंने वापस आने का फैसला क्यों किया। वह जगधारी में बर्तन बनाने वाली फैक्टरी में काम करते थे। लेकिन पैदल चलते हुए किसी तरह घर पहुंचने के बाद उन्हें काले तिरपाल के शामियाने में 14 दिनों के लिए क्वारंटाइन कर दिया गया। लेकिन क्वारंटाइन की अवधि खत्म हो जाने के बाद भी लोग उसे संदेह की नजर से देखते हैं। गांव के हैंडपंप से जब उसने पानी लेने की कोशिश की तो लोगों ने उसके साथ मारपीट की। पास से गुजरते पुलिस वाले ने उसे बचाया। इसके बाद भी उसे इस धमकी के साथ छोड़ा गया कि किसी भी सार्वजनिक जगह पर दिख गया तो उसकी खैर नहीं। वह कहता है, “इस लॉकडाउन ने मुझे मेरे गांव से अलग कर दिया है। ये वही लोग हैं जिनके साथ मैं पला-बढ़ा लेकिन अब उनके लिए मैं कुछ भी नहीं। वे मुझसे ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे में कोई अछूत हूं।”
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ऐसा नहीं कि यह कोई अपवाद है। कुछ ही दिन पहले लौटकर गांव आए एक व्यक्ति की गांववालों ने पिटाई कर दी थी। वह व्यक्ति अपने बच्चों के लिए बिस्कुट खरीदने एक दुकान पर गया था और वहां उसने गलती से दुकान के काउंटर को छू लिया। इसके लिए उसे लाठियों से इतना पीटा गया कि इलाज के लिए डॉक्टर के पास जाना पड़ गया। मनीष कहते हैं, “ हम कोई कोविड पॉजिटिव नहीं हैं। हमें तो एहतियात के तौर पर अलग रखा गया था लेकिन पूरा गांव हमें कोविड संक्रमित मानकर व्यवहार करता है।”
बुंदेलखंड में स्थिति बुरी है, इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन उत्तर प्रदेश के दूसरे इलाकों की भी स्थिति इससे कोई बहुत अलग नहीं। बड़ी संख्या ऐसे ग्रामीणों की है जिन्होंने लॉकडाउन और कोरोनावायरस के बारे में कुछ नहीं सुना। वे आज भी इनसे अनजान हैं। तर्कहीन भय गांव वालों का पीछा नहीं छोड़ रहा और लौटकर गांव आने वाले प्रवासी अज्ञान के कारण उपजे संदेह का खामियाजा भुगत रहे हैं। चारों ओर चिनगारी बिखरी हुई है। आग कहीं से भी भड़क सकती है।
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