एक बार फिर शुक्रवार को संसद की कार्यवाही बिना किसी कामकाज, बिना एक भी अविश्वास प्रस्ताव को मंजूर किए स्थगित हो गई। इस बार कार्यवाही अनिश्चित काल के लिए स्थगित हुई है यानी संसद का बजट सत्र खत्म हो गया। कई सप्ताह से लंबित पड़े अविश्वास प्रस्तावों को मंजूर न करना मौजूदा सरकार की बदइंतजामी और हठधर्मी के प्रतीक के रूप में याद रखा जाएगा।
हो सकता है सरकार इस बात पर मन ही मन खुश हो रही हो कि उसने विपक्ष के मंसूबे पूरे नहीं होने दिए, लेकिन इस सत्र ने लोकसभा स्पीकर के पद की गरिमा को तार-तार कर दिया। सरकार ने राजनीतिक लाभ के लिए इस पद की गरिमा, अधिकार और स्वायत्तता और स्वतंत्रता का बलिदान कर दिया।
इतिहास गवाह है कि इससे पहले कभी भी इतने अविश्वास प्रस्तावों को इतने लंबे समय तक नहीं लटकाया गया
अपनी नाकामियों को स्वीकारते हुए लोकसभा स्पीकर पद कभी भी इतना बेबस और उपहासपूर्ण नजर नहीं आया
कभी भी लोकसभा कार्यवाही शुरु होने के मिनटों के अंदर ही स्थगित नहीं हुई
लोकसभा को उन राजनीतिक दलों ने बंधक नहीं बनाया जो या तो सरकार के करीबी थे या उसके साथ थे
और, कोई भी संसदीय कार्यमंत्री इतनी बुरी तरह नाकाम साबित नहीं हुआ जो वह अवरोध करने वाले राजनीतिक दलों को पहचान नहीं पाया
लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के पास यह विकल्प था कि वे कार्यवाही में अवरोध पैदा करने वाले मुट्ठी भर सांसदों को निलंबित कर देतीं। उन्होंने ऐसा न कर संसद नाम की संस्था को शर्मिंदा किया है। उनके पास अधिकार था कि वे किसी भी सदस्य को मार्शल के जरिए सदन से बाहर भिजवा सकती थीं, पूरे सत्र के लिए निलंबित कर सकती थीं। लेकिन तीन सप्ताह तक वे किंकर्तव्यविमूढ़ बनकर सरकार के हाथों में खेलती रहीं।
लोकसभा अध्यक्ष ने संवैधानिक मर्यादाओं का भी ध्यान नहीं रखा। परंपरा है कि लोकसभा के सारे कामकाज में अविश्वास प्रस्ताव को हमेशा तरजीह दी जाती है। संविधान के मुताबिक अगर कोई अविश्वास प्रस्ताव आता है तो स्पीकर के पास सारी कार्यवाहियों को स्थगित कर इस प्रस्ताव को मंजूर कर इस पर चर्चा का समय निश्चित करने के अलावा कोई विकल्प है ही नहीं। लेकिन उन्होंने अविश्वास प्रस्ताव के अलावा सरकार के बाकी कामकाज को प्रस्तावों के जरिए होने दिया। सबसे हास्यास्पद तो यह रहा कि वे अविश्वास प्रस्ताव के लिए सांसदों की संख्या ही नहीं गिन पाईं।
इस सत्र को संसदीय इतिहास के काले अध्याय के रूप में इसलिए भी याद किया जाएगा कि इस बार बिना किसी बहस या चर्चा के सदन ने केंद्रीय बजट को पास कर दिया। ऐसा करके सरकार और स्पीकर ने संसद को अप्रासंगिक ही बना दिया।
आंकड़ों के देखें तो पता चलता है कि स्वतंत्रता के बाद से अब तक कुल 26 अविश्वास प्रस्ताव आए हैं और इनमें से 25 गिरे हैं। एक प्रस्ताव के मौके पर प्रधानमंत्री ने खुद ही इस्तीफा देकर इसे अनावश्यक बना दिया था।
गठबंधन की सरकार के दौर में अगर अविश्वास प्रस्ताव रोकने की कोशिश होती है, तो उसे कुछ हद तक राजनीतिक दृष्टिकोण से सही भी ठहराया जा सकता है, लेकिन पूर्ण बहुमत वाली बीजेपी और एनडीए ऐसा करते हैं तो इसका सीधा अर्थ है कि वे संसद में राजनीति कर रहे हैं, बस।
दरअसल कर्नाटक चुनाव सिर पर हैं और सरकार कोई भी ऐसी चर्चा नहीं चाहती जिसमें उससे ऐसे सवाल पूछे जाएं जिनके जवाब देने में उसे पसीने छूट जाएं। लेकिन संसद में विपक्ष की आवाज को दबाकर सरकार ने संसदीय लोकतंत्र के साथ जो किया है, वह लोकतंत्र की हत्या के अलावा कुछ नहीं।
पूरे सत्र के दौरान न तो संसदीय कार्यमंत्री और न ही सदन के नेता की तरफ से ऐसा कोई प्रयास हुआ जिससे लोकसभा में जारी गतिरोध को खत्म कर चर्चा हो सकती। इस मोर्चे पर स्पीकर तो बुरी तरह नाकाम रहीं। सरकार की इस नाकामी का सबूत तो इससे भी मिल जाता है जब सत्रावसान के बाद तमाम सांसदों ने एक सुर में कहा कि जब से बीजेपी सत्ता में आई है तब से न तो राष्ट्रीय विकास परिषद, न राष्ट्रीय एकता परिषद और न ही केंद्र-राज्य परिषद की कोई बैठक हुई है।
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