बजट आ गया। किसानों और मध्य वर्ग को 17 रुपए प्रतिदिन का लॉलीपॉप मिला, लेकिन देश के करोड़ों युवाओं के हाथ खाली रहे। मोदी सरकार के आखिरी बजट भाषण में जॉब्स यानी नौकरियां शब्द का पांच बार इस्तेमाल किया गया। लेकिन इसे लेकर कुछ ऐलान तो दूर सरकार ने इस तथ्य को मानने से इनकार कर दिया कि देश में बेरोजगारी की दर 1971 के युद्ध के बाद सबसे ज्यादा हो चुकी है।
बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर जब मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में करोड़ों नौकरियों और तीव्र विकास का वादा किया तो युवाओं को उम्मीदें बंधी थीं। पांच साल बाद ग्रामीण बेरोजगारी 18 फीसदी पर है सरकार का इस पर जवाब तक देना नहीं चाहती है। जाहिर है युवा जवाब के लिए राजनीतिक विकल्प तलाश रहे हैं।
बजट पर वाहवाही का शोर थमेगा तो पीयूष गोयल का बजट इतिहास में आर्थिक लचरता के ऐसे दस्तावेज़ के रूप में दर्ज होगा जिसमें सरकार उतने पैसे खर्च करने का वादा कर रही है, जितने उसके पास हैं ही नहीं। तो सवाल है कि क्या सरकार अतिरिक्त पैसे के लिए रिजर्व बैंक के सामने फिर हाथ फैलाएगी, जैसा कि पूर्व आरबीआई गवर्नर बिमल जालान ने सुझाव दिया है। या फिर पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के शब्दों में इसे वोट ऑन अकाउंट के बजाए, अकाउंट फॉर वोट समझा जाए। लेकिन इससे काम नहीं चलने वाला।
इस बजट को माना जा रहा था कि इसमें नौकरियों देने या रोजगार के अवसर पैदा करने के कुछ ऐलान होंगे, लेकिन ऐसा कुछ न हो सका। बजट भाषण में रोजगार या नौकरियों का चार बार मुख्य रूप से जिक्र हुआ। सबसे पहले बताया गया कि हवाई यात्रा करने वालों की तादाद बढ़ी तो इससे एविएशन सेक्टर में नौकरियां पैदा हुईं। दूसरा वंदे भारत एक्सप्रेस शुरु होगी जो मेक इन इंडिया प्रोग्राम के तहत बनी है, इससे नौकरियां पैदा हुईं। इसके अलावा बताया गया कि सोलर पॉवर जनरेशन सेक्टर में लाखों नौकरियां पैदा हुईं।
चौथे में तो वित्त मंत्री ने कमाल ही कर दिया। उन्होंने कह दिया कि अब तो नौकरियां पैदा करने का जिम्मा खुद युवाओं का ही है। उन्होंने कहा, “हमारे युवाओं ने बेशुमार स्टार्ट अप शुरु करके हमें रास्ता दिखाया और उसमें बेशुमार नौकरियां पैदा कर रहे हैं।” यानी वित्त मंत्री कह रहे थे कि युवाओं जाओ अपने लिए काम तलाशों, दूसरे युवाओं के लिए नौकरियां पैदा करो और हम तो सिर्फ एंजेल टैक्स लगाते रहेंगे।
बेरोजगारी मोदी सरकार के लिए एक गंभीर समस्या है और यह सरकार लगातार उसे बचती रही है। इस सरकार ने तो एनएसएसओ के आंकड़ों को भी यह कह कर खारिज कर दिया कि यह कोई अधिकारिक आंकड़े नहीं हैं। लेकिन आंकड़े सरकार का मुंह चिढ़ा रहे हैं। चुनावी साल में सरकार को यह महंगा पड़ने वाला है।
सरकार एनएसएसओ आंकड़ों को तो झुठला सकती है, लेकिन नेशनल करियर सर्विस के आंकड़ों को कैसे झुठलाएगी जिसमें पंजीकृत होने वाले बेरोजगारों की संख्या 4 करोड़ तक पहुंच गई है और सिर्फ 7 लाख युवाओं को ही नौकरी मिली है। इस बजट में इस बारे में चुप्पी है कि बाकी के 3.93 करोड़ युवाओं को नौकरी कैसे मिलेगी।
2011 के जनसंख्या आंकड़ों के मुताबिक देश में 15-29 वर्ष आयुवर्ग के युवाओँ की संख्या करीब 48 करोड़ है। इनमें से करीब 15 करोड़ ग्रामीण इलाकों के हैं, जहां बेरोजगारी का आंकड़ा 17.4 फीसदी पहुंच चुका है। कुल मिलाकर सरकार ने देश के युवाओं को नजरंदाज़ कर दिया है और संकेत दे दिया है कि अगली सरकार ही इनके बारे में कोई प्रभावी नीति बना सकती है।
लेकिन, बजट से दो बड़े सवाल निकल कर आ रहे हैं। पहला यह कि उन लोगों का क्या होगा जिनकी सालाना आमदनी पांच लाख रुपए से एक रुपया ज्यादा है? और दूसरा यह सरकार प्रधानंमत्री किसान योजना में पैसे कहां से लाएगी? पहले सवाल का जवाब यह है कि पांच लाख तक आमदनी पर तो कोई टैक्स नहीं लगेगा, लेकिन अगले एक रुपए पर सीधे 10,000 रुपए का टैक्स भरना पड़ेगा। मध्यवर्ग में अब सारी चर्चा तब तक इसी पर होनी है, जब तक सरकार इस बारे में स्पष्ट रूप से सफाई नहीं देती।
दूसरा सवाल जो पैसे से जुड़ा है वह थोड़ा जटिल है और इसके बारे में सरकार बात ही नहीं करना चाहती। सरकार ने कहा, “हम 2018-19 के लिए वित्तीय घाटा 3.3 फीसदी पर रखना चाहते हैं। लेकिन किसानों को आमदनी की मदद देने के लिए इस साल हम 20,000 करोड़ रुपए डाल रहे हैं और अगले साल के लिए 75,000 करोड़ का प्रस्ताव कर रहे हैं।”
लेकिन, सरकार तो पहले ही वित्तीय घाटे के मोर्चे पर सीमा पार कर चुकी है और अब उसे पूर्व आरबीआई गवर्नर बिमल जालान की तरफ देखना होगा कि वही कुछ वित्तीय गुंजाइश निकाल सके, क्योंकि बाकी सबको फेल हो चुका है।
अब चूंकि पहले 57 महीनों में सरकार कुछ नहीं कर पाई, इसलिए चुनाव से ऐन पहले वह अपना रिपोर्ट कार्ड सुधारने की कोशिश कर रही है। लेकिन क्या यह काफी और प्रभावी होगा?
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