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कश्मीर के बाद अब बीजेपी की नजर झारखंड पर, आदिवासी इलाकों के विशेष कानूनों पर निगाह

झारखंड के विपक्षी नेताओं का आरोप है कि बीजेपी सरकार आदिवासियों की जमीनें पूंजीपतियों के हाथों गिरवी रखना चाहती है और इसी कारण वह पहले भी इस कानून में संशोधन की कोशिश कर चुकी है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद अब झारखंड में संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटीएक्ट) में संशोधन की आवाज उठाई जा रही है। यह आवाज गोड्डा से तीसरी बार चुने गए बीजेपी सांसद डाॅ. निशिकांत दुबे ने उठाई है। उनका कहना है कि संथाल परगना इलाके में आजादी के पहले से लागू एसपीटी एक्ट में संशोधन आज के वक्त की जरूरत है। इसमें संशोधन कर यहां के गैर आदिवासियों को जमीन खरीदने-बेचने का अधिकार दिया जाना चाहिए।

बीजेपी सांसद के इस प्रयास पर विपक्ष के कई प्रमुख नेताओं और आदिवासी संगठनों ने धमकी दी है कि अगर सरकार ने एसपीटी या सीएनटी (छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम) एक्ट में छेड़छाड़ की कोशिश की, तो इसके परिणाम बहुत बुरे होंगे। विपक्षी नेताओं का आरोप है कि बीजेपी सरकार आदिवासियों की जमीनें पूंजीपतियों के हाथों गिरवी रखना चाहती है और इसी कारण वह पहले भी इस कानून में संशोधन की कोशिश कर चुकी है।

यह सारा विवाद तब शुरू हुआ, जब एक कार्यक्रम के सिलिसिले में गोड्डा पहुंचे सांसद निशिकांत दुबे ने सार्वजनिक तौर पर संशोधन की सिफारिश की। उन्होंने कहा कि इस एक्ट को लागू करने से पहले बनाई गई रशेल कमेटी ने भी सिफारिश की थी कि इस इलाके के गैर आदिवासियों को अपनी जमीन खरीदने-बेचने की छूट मिले। तब की अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी सिफारिशों को हूबहू नहीं माना। इसलिए, यहां आदिवासियों के साथ-साथ गैर आदिवासियों को भी अपनी जमीनें बेचने या खरीदने की इजाजत नहीं है। यह कानून काफी पुराना हो चुका है और इस कारण इलाके का विकास प्रभावित हो रहा है, सरकार को इसके संशोधन पर विचार करना चाहिए।

इन पंक्तियों के लेखक से बातचीत में भी उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि रशेल कमेटी की सिफारिशों को हूबहू मान लिया जाए। इससे आदिवासियों की जमीनें भी बच जाएंगी और गैर आदिवासी लोग अपनी जमीनों की खरीद-बिक्री कर सकेंगे। बकौल निशिकात दुबे, वह कोई नई मांग नहीं कर रहे, बल्कि उन्होंने पहले भी यह मांग की थी।

क्या है एसपीटी एक्ट

दुमका के वरिष्ठ अधिवक्ता और सोशल एक्टिविस्ट सैमुअल सोरेन ने बताया कि एसपीटी और सीएनटी एक्ट ब्रिटिश सरकार के समय बना कानून है और संथाल परगना और छोटा नागपुर इलाके में तभी से लागू है। यह आदिवासी जमीन की खरीद-बिक्री की इजाजत नहीं देता। इससे आदिवासियों के हितों की रक्षा होती है। उन्होंने कहा कि संथाल परगना में देवघर को छोड़कर बाकी सभी जिले संविधान की पांचवी अनुसूची के तहत प्रोटेक्टेड इलाके हैं। यहां बाहरी लोगों का जमीन खरीदना और बसना गैरकानूनी है। अब बीजेपी सरकार यह चाहती है कि किसी भी बहाने से इसमें छेड़छाड़ की जाए, ताकि आदिवासियों से उनकी जमीन का मालिकाना हक छीना जा सके। यह गैरकानूनी तो है ही, अमानवीय भी है। उन्होंने आरोप लगाया कि डाॅ. निशिकांत दुबे कथित तौर पर काॅरपोरेट घरानों कीतरफदारीकर रहे हैं। उनकीनजर दरअसल आदिवासियों कीउन जमीनों पर है, जो एसपीटीएक्टके कारण प्रोटेक्टेड हैं। उन्हें अपनीमांग पर पुनर्विचार करना चाहिए।

विपक्ष का विरोध

पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन का कहना है कि हमने पहले भी बीजेपी के इस मंसूबे का विरोध किया है और भविष्य में भी इसका विरोध करेंगे। उन्होंने कहा कि जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों का प्राकृतिक हक है और इसकी रक्षा के लिए हमलोग हरसंभव लड़ाई लड़ेंगे। गोड्डा में कांग्रेस की पूर्व जिलाध्यक्ष और महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय सचिव दीपिका पांडेय सिंह का भी मानना है कि बीजेपी सरकार किसी-न-किसी बहाने उन कानूनों पर चोट करना चाहती है जो आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए बनाए गए थे। गाहे-बेगाहे उनकी यह मंशा सार्वजनिक हो जाती है। आदिवासियों के हितों की रक्षा हमारी पार्टी की प्राथमिकता है।

पहले भी हुआ था विरोध

झारखंड सरकार की ट्राईबल एडवाइजरी काउंसिल (टीएसी) की उपसमिति ने भी एसपीटी एक्ट में संशोधन और रशेल कमेटी की सिफारिशों पर लोगों की राय जानने के लिए दुमका में एक बैठक की थी। तब काउंसिल के सदस्यों को लोगों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा था। सैकड़ों आदिवासियों ने दुमका में प्रदर्शन कर टीएसी वापस जाओ के नारे लगाए थे। इसके बाद आनन-फानन में कुछ लोगों को बैठाकर रायशुमारी की औपचारिकता पूरी की गई थी। इससे पहले बीजेपी की रघुवर दास सरकार ने एसपीटी और सीएनटी एक्ट में संशोधन की कोशिश की थी और विपक्षी विधायकों के विरोध के बावजूद उस विधेयक को विधानसभा से पास भी करा लिया था। इसके बाद पूरे राज्य में बड़े आंदोलन हुए और मुख्यमंत्री को आदिवासियों का भारी विरोध झेलना पड़ा। फिर राज्यपाल की आपत्ति के बाद सरकार ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया।

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