कोई प्रधानमंत्री किसी ऐसे इलाके से चुनाव प्रचार की शुरुआत करे जहां उसकी अपनी पार्टी का उम्मीदवार न हो, बल्कि गठबंधन सहयोगी का उम्मीदवार मैदान में हो, तो इसमें कोई बुराई तो नहीं है। लेकिन बिहार में राजनीतिक विश्लेषक इसके गहरे मायने निकाल रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार में लोकसभा चुनाव के प्रचार की शुरुआत 2 अप्रैल को जमुई और गया लोकसभा सीट से की। मोदी की इस चुनावी सभा में बिहार के मुख्यमंत्री और उनके सहयोगी दल के जेडीयू के मुखिया नीतीश कुमार और एलजेपी प्रमुख राम विलास पासवान भी थे। जमुई सीट से पासवान के बेटे चिराग पासवान उम्मीदवार हैं। जबकि गया से नीतीश की पार्टी जेडीयू के विजय मांझी मैदान में हैं। विजय मांझी का मुकाबला हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के जीतन राम मांझी से है जो आरजेडी-कांग्रेस महागठबंधन के साझा उम्मीदवार हैं।
इन दोनों सीटों और औरंगाबाद और नवादा सीट पर पहले चरण में 11 अप्रैल को मतदान होना है। रोचक है कि औरंगाबाद से बीजेपी के उम्मीदवार सुशील सिंह मैदान में हैं, जो मौजूदा सांसद भी हैं।
वैसे तो बीजेपी ने बिहार में अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत 29 मार्च को की थी जब बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने औरंगाबाद में एक चुनावी सभा की थी। लेकिन वह सभा बहुत ज्यादा कामयाब नहीं मानी गई और मीडिया में भी उसका कोई खास असर देखने को नहीं मिला। लेकिन 2 अप्रैल की मोदी की रैली को लेकर काफी उत्सुकता रही।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी ने जानबूझकर बिहार में अपने प्रचार अभियान की शुरुआत उन सीटों से की है जहां उनके सहयोगी दलों के उम्मीदवार मैदान में हैं। दरअसल बीजेपी ऐसा प्रभाव देना चाहती है कि एनडीए में सबकुछ ठीक है और कोई गड़बड़ या अनबन नहीं है।
यह सर्वविदित है कि बिहार बीजेपी में ऊपर से नीचे तक इस बात को लेकर गहरी नाराज़गी है कि केंद्रीय और शीर्ष नेतृत्व ने उन सीटों को भी गठबंधन सहयोगियों को दे दिया जो जनसंघ के जमाने से पार्टी का गढ़ मानी जाती रही हैं।
मसलन गया सीट को ही लें, तो इस सीट पर 1971 से अब तक 6 बार भगवाधारी पार्टी का कब्जा रहा है। यहां से 1980 और 1984 में कांग्रेस की जीत हुई थी। इसके बाद यहां कांग्रेस नहीं जीत पाई। लालू यादव की पार्टी ने भी यहां दो बार जीत हासिल की, लेकिन गया हमेशा से भगवा गढ़ ही माना जाता रहा।
पर, इस बार यह सीट जेडीयू के खाते में गई है, जिसने अपेक्षाकृत कमजोर नेता विजय मांझी को मैदान में उतारा है। बीजेपी कार्यकर्ताओं की नाराजगी इस बात को लेकर है कि पार्टी ने यहां से जेडीयू के लिए मौजूदा सांसद हरि मांझी की बलि दे दी, जबकि जेडीयू यहां से कभी नहीं जीत पाई है।
अकेला यही मामला नहीं है। बीजेपी ने भागलपुर सीट भी एक अनजाने से जेडीयू उम्मीदवार अजय मंडल के लिए छोड़ दी जबकि हकीकत यह है कि पिछले चुनाव में बीजेपी के शाहनवाज़ हुसैन यहां से मामूली वोटों के अंतर से आरजेडी के शैलेश मंडल उर्फ बुलो मंडल से हारे थे। इसी तरह नवादा सीट भी एलजेपी के खाते में चली गई है, जहां से केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह सांसद हैं। एलजेपी इस सीट से कभी नहीं जीत पाई है।
इतना ही नहीं जेडीयू ने बीजेपी से कटिहार और किशनगंज सीटें भी हासिल की हैं जबकि बिहार के सीमांचल की इन दोनों सीटों पर बीजेपी ने काफी मशक्कत की थी। बीजेपी ने गोपालगंज से भी मौजूदा सांसद का टिकट काटकर इस सीट को जेडीयू की झोली में डाल दिया।
बात यहीं नहीं खत्म होती। सिवान के मौजूदा सांसद ओ पी यादव को भी अपनी सीट जेडीयू की कविता सिंह के लिए छोड़नी पड़ी है। उनका मुकाबल आरजेडी नेता मोहम्मद शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब से है। शहाबुद्दीन इन दिनों तिहाड़ जेल में हैं।
जेडीयू की नजरें दरभंगा सीट पर भी थीं, जहां से पिछली बार बीजेपी टिकट पर कीर्ति आज़ाद जीते थे। लेकिन वह अब कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। यहां से नीतीश कुमार अपने चहेते संजय झा को मैदान में उतारना चाहते थे। उन्हें यह सीट जब नहीं मिली तो उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अपने गुस्से का इजहार किया और इसके लिए अमित शाह को दोषी ठहराया।
बीजेपी की दिक्कत यह है कि ये सभी सीटें जो उसने छोड़ी हैं, इन पर ठीकठाक संख्या में मुस्लिम आबादी है और बीजेपी हमेशा इन सीटों पर हिंदू कार्ड खेलती रही है। ये सीटें ज्यादातर शहरी मानी जाती हैं जो कि बीजेपी के लिए एकदम माकूल माहौल है, और इन सीटों पर न तो जेडीयू और न ही एलजेपी को मजबूत माना जाता है।
लेकिन सीटों के बंटवारे में बीजेपी को बड़ी कुर्बानी देनी पड़ी। पिछली बार बीजेपी ने 30 सीटों पर चुनाव लड़ा और 22 पर जीत हासिल की थी, लेकिन इस बार वह सिर्फ 17 सीटों पर ही चुनाव लड़ रही है। उसने पिछले चुनाव में सिर्फ 2 सीटें जीतने वाले जेडीयू को 17 सीटें दे दी हैं।
इस सबके बीच बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व यह नहीं दिखाना चाहता कि बिहार एनडीए में कोई अनबल या बिखराव है, इसीलिए वह उन सीटों पर ज्यादा ध्यान दे रही है जहां से उसके सहयोगी दलों के उम्मीदवार मैदान में हैं।
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