2015 के बिहार विधानसभा चुनावों के वक्त भी भारतीय जनता पार्टी की कोई लहर नहीं थी जबकि हिन्दू हृदय सम्राट कहे जाने वाले नरेंद्र मोदी उससे एक साल पहले ही प्रधानमंत्री बने थे। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने ही आरक्षण-राग अलाप कर बीजेपी की कमर तोड़ दी थी। भागवत ने कहा था कि आरक्षण नीति की समीक्षा की जानी चाहिए। जनता दल (यूनाइटेड) के दबाव के कारण इस बार बीजेपी नेतृत्व ने भागवत को बिहार चुनावों से दूर रखा, हालांकि विजयादशमी पर सालाना संबोधन उनके लिए बढ़िया अवसर था। इस बार बीजेपी-जेडीयू ने सतर्कता बनाए रखी। बहुत चतुराई और सतर्कता के साथ नीतीश कुमार ने यह बयान जरूर दिया कि आरक्षण आबादी के हिसाब से दिया जाना चाहिए।
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वैसे, यह बात बीजेपी और जेडीयू, दोनों को समझ में आ गई कि दोनों मिल-जुलकर न लड़ें, तो उन्हें सत्ता आसानी से नहीं मिलने वाली। इस दृष्टि से दोनों ही पार्टियां अधूरी हैं। यह सबक उन्हें 2015 में भी मिला था लेकिन गलतफहमियों का कोई इलाज किसी के पास नहीं है। दूसरी बात, क्षेत्रीय और अपेक्षाकृत छोटे दलों के लिए भी यह सबक है कि बीजेपी महज उनका इस्तेमाल करती है और सत्ता मिलने के बाद उसकी बड़े भाई वाली ऐंठन बनी रहती है। इसी वजह से शिवसेना, अकाली दल आदि पार्टियां उसका साथ छोड़ चुकी हैं। यह क्रम आगे भी बना रहेगा। जेडीयू के लिए तो यह खास सबक है कि थाली का बैंगन बने रहने से चुनावों के वक्त अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर इसी तरह धुकधुकी बनी रहती है।
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मतदान का दूसरा चरण आते- आते बीजेपी और जेडीयू दोनों को यह बात समझ में आ गई कि अकेला किसी का गुजारा नहीं है। हाल यह तक हो गया कि नीतीश कुमार अंततः प्रधानमंत्री मोदी की पीठ पर ही सवार हो गए। पटना के कंकड़बाग में रहने वाले वोटर राजेश दुग्गल इसे इस तरह कहते हैं: तेजस्वी की सभाओं में उमड़ी भीड़ और मुख्यमंत्री समेत कई मंत्रियों की विभिन्न क्षेत्रों में हूटिंग ने सबको महसूस करने पर विवश कर दिया कि मामला एकतरफा नहीं है। सिवान के सीनियर वकील अमरेश कुमार सिंह भी मानते हैं कि तेजस्वी के तेज को रोकने के लिए ही बीजेपी-जेडीयू को एकजुटता के संकेत देने पड़े। दोनों ही हर तीर आजमा रहे हैं- पुलवामा और अभिनंदन पर पाकिस्तान का कबूलनामा, कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने की कथित उपलब्धिया लालू प्रसाद यादव के जमाने का कथित जंगलराज। मुजफ्फरपुर के व्यवसायी निशांत कुमार तो साफ कहते हैं कि नीतीश से सबका मन हट गया है और इसी वजह से उनकी नैया मोदी के भरोसे है।
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यह भी बिल्कुल साफ हो गया है कि महज वादों से जनता को भरमाना अब मुश्किल है। कोरोना की वजह से लगाए गए लॉकडाउन ने जेडीयू के कथित सुशासन की तो पोल खोल ही दी, बीजेपी की कलई भी उतर गई। रोजगार के सवाल से दोनों इसी कारण पसीने-पसीने होते रहे। बीजेपी-नीतीश शासन ने बिहार में रोजगार पैदा होने-किए जाने की संभावना दिन- पर-दिन खत्म कर दी जबकि बिहार के लोग राज्य से बाहर जाकर रोजगार ढूंढ़ने -करने को विवश होते ही रहे। नई सत्ता के लिए इस मुद्दे की अनदेखी असंभव रहेगी। प्रलय आ जाए, तब भी गारंटी तो नहीं दी जा सकती कि समुद्र बिहार के पास आ जाएगा या बिहार खिसककर सागर के पास चला जाएगा लेकिन यहां उद्योगों के लिए नए सिरे से प्रयास करना तो जरूरी होगा ही। जनता यह बात समझ गई है और इसीलिए लोग-बाग यह कहने में संकोच नहीं कर रहे कि नीतीश अपेक्षाओं पर उतने खरे नहीं उतर पाए। सीतामढ़ी के व्यवसायी दिनेश इसे इस तरह कहते हैं: अब भी भले ही एनडीए की सरकार बन जाए, पर यह बात तो लगभग साफ हो गई है कि लोग नीतीश के कामकाज से संतुष्ट नहीं हैं।
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वैसे, बीजेपी-विरोधी विपक्ष के लिए बिहार चुनाव का सबक यह है कि उसे सत्ता बल- धनबल से हर जगह जूझकर ही रास्ता निकालना होगा। उसकी तुलना में बीजेपी के पास संसाधन अधिक रहेंगे और उसे कम संसाधनों के बल पर ही जनता के सामने जाना होगा। लेकिन अगर उसके पास मुद्दे सही और उचित होंगे और वह जनता को आश्वस्त कर ले जाएगा, तब ही वह बीजेपी का ठीक तरीके से मुकाबला कर पाएगा। यह भी ध्यान रखना होगा कि वे सही सवाल उठाते रहें और उनकी चुभन बीजेपी नेतृत्व महसूस करे, तो वह इनके जवाब देने की जगह बातों का मुंह मोड़ने का हर संभव प्रयास करेगा लेकिन अगर विपक्ष अपने रुख पर अडिग रहे, तो जनता सही सवालों के जवाब पाने में उसका साथ देगी।
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