आपदा बचाव और प्रबंधन ने कई संदर्भों में बहुत प्रगति की है, पर इसके बावजूद आपदाओं से जुड़ी चिंताएं बढ़ रही हैं। इसकी एक वजह यह है कि जलवायु बदलाव के जिस दौर में हम प्रवेश कर रहे हैं उसमें अधिक अनिश्चित और अतिवादी मौसम की अपेक्षा है, जिसके कारण कई आपदाएं और विकट रूप से उपस्थित होने की भरपूर संभावना है।
इसके अतिरिक्त कई स्थानों पर बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाओं के संदर्भ में यह देखा गया है कि बचाव कार्यों पर काफी खर्च होने के बावजूद समस्या पहले से और विकट रूप में उपस्थित हो रही है। भूस्खलन बढ़ रहे हैं। बाढ़ अधिक उग्र और विनाशकारी हो रही है। इस कारण आपदा प्रबंधन में सुधारों की आवश्यकता काफी समय से महसूस की जा रही है।
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एक बड़ी जरूरत यह है कि वन-विनाश को रोका जाए और विशेषकर प्राकृतिक वनों की रक्षा की जाए। हिमालय और पश्चिम घाट जैसे पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्रों में तो यह और भी जरूरी है। बाढ़ नियंत्रण की किसी भी योजना को यदि दीर्घकालीन तौर पर असरदार होना है तो प्राकृतिक वनों की रक्षा और स्थानीय प्रजातियों के पेड़ों को अधिक पनपाने पर जोर देना होगा।
नदियों के प्राकृतिक बहाव को बहुत संकुचित नहीं करना चाहिए अपितु नदियों के आसपास के फ्लड प्लेन में नदियों के विस्तार का पर्याप्त स्थान रहना चाहिए जिसे सीमेंट-कंक्रीट से मुक्त रखना चाहिए। जो आसपास के प्राकृतिक जल स्रोत और दलदली क्षेत्र है उन्हें बनाए रखना चाहिए ताकि आसपास नदी का अतिरिक्त पानी समा सके और साथ-साथ भूजल में वृद्धि भी होती रहे। नदियों और पानी के निकासी के प्राकृतिक मार्गों को अवरोधों और अतिक्रमणों से मुक्त रखना चाहिए।
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विभिन्न विकास कार्यों के निर्माण के समय जल-निकासी पक्ष का पर्याप्त ध्यान रखना आवश्यक है। जिन स्थानों पर बहुत से निर्माण कार्य हो रहे हैं वहां तो यह और भी जरूरी है। जब जल्दबाजी में किए गए निर्माणों में जल-निकासी की उपेक्षा होती है तो वर्षा के समय यह बहुत महंगी पड़ती है।
बाढ़ का पानी जब आए तो यह शीघ्र ही निकल भी जाए, इस पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इसके लिए जल-निकासी व्यवस्था सुधारने के साथ यह जरूरी है कि तालाब, परंपरागत जल-स्रोत और दलदली क्षेत्र अपनी जगह बने रहें और इन पर अतिक्रमण न हो ताकि बाढ़ का पानी इनमें समा सके। यदि सब सावधानियां अपनाई जाएं तो बाढ़ के विनाश को काफी कम किया जा सकता है।
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बाढ़ नियंत्रण का अधिकांश बजट बांधों (डैम) व तटबंधों (इमबैंकमैंट) पर खर्च होता है। अतः नीतिगत स्तर पर इन दोनों निर्माण कार्यों के अब तक के परिणामों और अनुभवों की सही, निष्पक्ष समझ बनाना और फिर आगे की नीतियां इस समझ के आधार पर बनाना बहुत जरूरी है। यदि इस तरह के निष्पक्ष आकलन का प्रयास नहीं किया गया तो हो सकता है कि हम पहले की गलतियों को फिर दोहराते जाएं।
तटबंधों की बाढ़ नियंत्रण उपाय के रूप में एक तो अपनी कुछ सीमाएं हैं तथा दूसरे निर्माण कार्य और रख-रखाव में लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण हमने इनसे जुड़ी समस्याओं को और भी बहुत बढ़ा दिया है। तटबंध द्वारा नदियों को बांधने की एक सीमा तो यह है कि जहाँ कुछ बस्तियों को बाढ़ से सुरक्षा मिलती है वहां कुछ अन्य बस्तियों के लिए बाढ़ का संकट बढ़ने की संभावना भी उत्पन्न होती है। अधिक गाद लाने वाली नदियों को तटबंध से बांधने में एक समस्या यह भी है कि नदियों के उठते स्तर के साथ तटबंध को भी निरंतर ऊंचा करना पड़ता है। जो आबादियां तटबंध और नदी के बीच फंस कर रह जाती हैं, उनकी दुर्गति के बारे में तो जितना कहा जाए कम है। केवल कोसी नदी के तटबंधों में लगभग 85 हजार लोग इस तरह फंसे हुए हैं।
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इतना ही नहीं, तटबंधों द्वारा जिन बस्तियों को सुरक्षा देने का वायदा किया जाता है उनमें भी बाढ़ की समस्या बढ़ सकती है। यदि वर्षा के पानी के नदी में मिलने का मार्ग अवरुद्ध कर दिया जाए और तटबंध में इस पानी के नदी तक पंहुचने की पर्याप्त व्यवस्था न हो तो दलदलीकरण और बाढ़ की एक नयी समस्या उत्पन्न हो सकती है। यदि नियंत्रित निकासी के लिए जो कार्य करना था उसकी जगह छोड़ दी गयी है पर लापरवाही से कार्य पूरा नहीं हुआ है तो भी यहां से बाढ़ का पानी बहुत वेग से आ सकता है। तटबंध द्वारा ‘सुरक्षित’ की गयी आबादियों के लिए सबसे कठिन स्थिति तो तब उत्पन्न होती है जब निर्माण कार्य या रख-रखाव उचित न होने के कारण तटबंध टूट जाते हैं और अचानक बहुत सा पानी उनकी बस्तियों में प्रवेश कर जाता है। इस तरह जो बाढ़ आती है वह नदियों के धीरे-धीरे उठते जल-स्तर से कहीं अधिक विनाशकारी होती है।
इसी तरह बांध या डैम निर्माण से कितनी बाढ़ सुरक्षा हो रही है इस बारे में भी कुछ सवाल उठाना जरूरी है। बांध प्रायः सिंचाई और पन बिजली उत्पादन के लिए बनाए जाते हैं पर साथ ही उनसे बाढ़ नियंत्रण का महत्त्वपूर्ण लाभ प्राप्त होगा यह भी कहा जाता है। यह लाभ तभी प्राप्त हो सकता है जब अधिक वर्षा के समय बाँध के जलाशय में पर्याप्त जल रोका जा सके और बाद में उसे धीरे-धीरे नियंत्रित ढंग से छोड़ा जा सके। पर पहाड़ों में जो बन-विनाश और भू-कटाव हुआ है उससे जलाशयों में बहुत मिट्टी-गाद भर गयी है और जल रोकने की क्षमता कम हो गई है। इसी कारण तेज वर्षा के दिनों में पानी भी बहुत अधिक होता है क्योंकि वर्षा के बहते जल का वेग कम करने वाले पेड़ कट चुके हैं। बांध के संचालन में सिंचाई और पन बिजली के लिए जलाशय को अधिक भरने का दबाव होता है। दूसरी ओर वर्षा के दिनों में बाढ़ से बचाव के लिए जरूरी होता है कि जलाशय को कुछ खाली रखा जाए। दूसरे शब्दों में बांध के जलाशय का उपयोग यदि बाढ़ बचाव के लिए करना है तो पन बिजली के उपयोग को कुछ कम करना होगा। जब ऐसा नहीं होता है तो जलाशय में बाढ़ के पानी को रोकने की क्षमता नहीं रहती है।
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ऐसी स्थिति में बहुत सा पानी वेग से एक साथ छोड़ना पड़ता है जो भयंकर विनाश उत्पन्न कर सकता है। कोई बड़ा बांध टूट जाए तब तो खैर प्रलय ही आ जाती है जैसा कि मच्छू बांध टूटने पर मोरवी शहर के तहस नहस होने के समय देखा गया। पर बांध बचाने के लिए जब बहुत सा पानी एक साथ छोड़ा जाता है उससे जो बाढ़ उत्पन्न होती है वह भी सामान्य बाढ़ की अपेक्षा कहीं अधिक विनाशक और जानलेवा होती है।
यदि हम पिछले कुछ वर्षों के बाढ़ के दिनों के समाचार पत्रों को ध्यान से पढ़ें तो हमें पता चलेगा कि सबसे अधिक विनाशक और जानलेवा बाढ़ प्रायः वहीं आई है जहां तटबंध टूटे हैं या बांध से बड़े पैमाने पर पानी छोड़ा गया है। अब आगे के लिए जो भी नियोजन हो, उसके लिए बाढ़ के इस बदलते रूप को ध्यान में रखना जरूरी है।
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