अपने समाज की नाराजगी को मजबूती से सामने रखने का काम दिल्ली से बीजेपी के सांसद उदित राज लगातार कर रहे हैं। खासतौर से सुप्रीम कोर्ट के अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून के दुरुपयोग के बारे में आए फैसले के बाद से दलितों का जो आक्रोश देश भर में फूटा है उसकी राजनीतिक आंच नरेंद्र मोदी सरकार औऱ बीजेपी को महसूस होनी लगी है। इन तमाम सवालों पर नवजीवन ने उनसे विस्तृत बातचीत की। बातचीत के अंश:
Published: 10 Apr 2018, 7:59 PM IST
दलितों ने 2 अप्रैल को भारत बंद किया था और इसके जवाब में आरक्षण विरोधियों ने 10 अप्रैल को भारत बंद किया, क्यों ऐसे हालात हुए ?
दलितों के खिलाफ नाइंसाफी हुई थी, तो उन्होंने अपनी नाराजगी जाहिर की। देश का कानून इसकी इजाजत देता है न। उन्होंने किसी जाति या तबके के खिलाफ गुस्सा नहीं जाहिर किया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध किया औऱ केंद्र सरकार द्वारा इस नाइंसाफी को ठीक न किए जाने पर आक्रोश जताया। लेकिन आज का जो भारत बंद है, वह दलित विरोधी कम और राष्ट्र-विरोधी ज्यादा है। यह सीधे-सीधे वैमन्सय फैलाने वाला है।
कैसे?
ऐसा इसलिए है क्योंकि आज भी तमाम क्षेत्रों में मालिकाना हक और दबदबा तो सवर्णों का ही है। आप मीडिया से लेकर सुप्रीम कोर्ट, नौकरशाही, सर्विस सेक्टर, बिजनेस, कैपिटल मार्किट आदि हर जगह देख लीजिए, सवर्ण ही छाए हुए है। इनमें कहीं दलित दिखते हैं? कहीं नहीं हैं। हर जगह इन्हीं के कब्जे में है। थोड़ी भी भागीदारी के लिए इनका दिल बड़ा नहीं है। ऐसे में क्या कोई राष्ट्र पनप सकता है, तरक्की कर सकता है। इनको दबाकर रखेंगे तो बाजार में खरीदने वाले कहां से आएंगे।
आज के आंदोलन का क्या असर पड़ेगा ?
इससे इन्हीं को नुकसान होगा। इन्होंने दलित और बैकवर्ड को और अधिक पोलेराइज कर दिया है। क्योंकि रिजर्वेशन वाले वे भी है। कुल मिलाकर इन्होंने भस्मासुर का काम कर दिया है।
बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की इतनी ज्यादा क्यों मूर्तियां तोड़ी जा रही हैं।
उन्हें बाबा साहेब से ही डर लगता है। मनुवाद को सीधी टक्कर तो यहीं से मिली थी और आज भी यहीं से मिल रही है। इसीलिए इतने हमले और नफरत फूट रही है।
लेकिन बीजेपी का तो दावा है कि वे दलित समाज के सबसे ज्यादा करीब है, 40 दलित सांसद उनके साथ है...
इस मामले में मैं यह कहना चाहता हूं कि यह एक बड़ा भ्रम है कि ज्यादा सांसद होने से कोई पार्टी दलितों के पास हो। दलित सांसद होने से दलित का उस पार्टी से जुड़ना जरूरी नहीं है। पता नहीं लोग समझ नहीं पाते। किसी भी संसदीय सीट में दलित 10 से 20-25 फीसदी तक ही होता है, यानी सिर्फ उसके वोट से कोई जीतता है। जितवाने वाले कोई और होते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि जिसके पास ज्यादा दलित जीत कर आएं, वे पार्टियां दलित से ज्यादा दूर हैं। इतना आसान का विश्लेषण ये लोग नहीं कर लेते हैं कि लगता है कि जमीन से ये लोग वाकई में जुड़े ही नहीं हैं। चूंकि जो पार्टियां दलित विरोधी हैं, लोग उन्हें पसंद करते हैं और उन्हीं के वोट से दलित जीतते हैं। और यही लोग कहते हैं कि देखो हमारे यहां दलित ज्यादा हैं, जबकि हकीकत इसकी उल्टी है।
Published: 10 Apr 2018, 7:59 PM IST
सबका साथ-सबका विकास नारे में क्या दलितों को जगह नहीं मिली, जो लोगों में इतना
गुस्सा है ?
इसमें कई चीजें हैं, सुप्रीम कोर्ट का फैसला, विश्वविद्यालयों में टीचरों की भर्ती में आरक्षण की बात है, निजीकरण लगातार बढ़ा जा रहा है, नौकरियां लगातार कम हो रही हैं, यही वजह है कि 2 अप्रैल को हुए विरोध प्रदर्शनों में नौजवानों की संख्या इतनी ज्यादा थी। सब यूथ थे। कोई नेता नहीं था।
दलितों के विरोध में पहली बार इस तरह का उग्र प्रदर्शन हुआ ?
दो चीजें पहली बार हुईं हैं। जब दलित विरोध पर उतरे तो सवर्ण उनके खिलाफ आए, क्यों? जब बाकी लोग विरोध करते हैं, तो दलित तो उनका विरोध नहीं करते हैं। जब दलित उतरे तो वे क्यों आए? ग्लावियर में दलितों के आंदोलन के विरोध में बड़े पैमाने पर सवर्ण उतरे। ग्वालियर में यह स्थापित हो गया कि गोली मारने वाले दूसरी जाति के लोग थे। वे आज भी विरोध कर रहे हैं। मैं किसी भी तरह की हिंसा का समर्थन नहीं कर रहा, लेकिन दलितों पर कहर बरपा हो रहा है। मेरठ से लेकर देश भर में दलितों को फंसाया जा रहा है।
दलितों के खिलाफ इतना गुस्सा क्यों ?
उन्हें लगता है कि जो हमारी पांव की जूती थे, वे अब हमारे बराबर आ रहे हैं। यह स्वार्थ औऱ ईष्या की वजह से ऐसा कर रहे हैं।
Published: 10 Apr 2018, 7:59 PM IST
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Published: 10 Apr 2018, 7:59 PM IST