हमारी आजादी की लड़ाई का एक प्रेरणादायक पक्ष यह रहा है कि विभिन्न धाराओं में शामिल स्वतंत्रता सेनानियों ने प्रायः एक-दूसरे से करीबी सहयोग किया और जरूरत के समय सहायता पहुंचाई। मजहबी एकता और विभिन्न धर्मों की सद्भावना में कांग्रेस के प्रमुख नेताओं का गहरा विश्वास था तो शहीद भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों का भी यही आदर्श था। अतः आजादी की लड़ाई की इन दोनों धाराओं ने सांप्रदायिकता फैलाने के कुप्रयासों का कड़ा विरोध किया।
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जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे कांग्रेस के प्रखर युवा नेता क्रांतिकारियों को अधिक स्वीकार्य थे और इन दोनों नेताओं को नौजवान भारत सभा के वार्षिक अधिवेशनों की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किया गया और उन्होंने इस आमंत्रण को स्वीकार भी किया। जवाहरलाल नेहरू क्रान्तिकारियों से मिलने जेल में गए और उनके साहस और त्याग की बहुत प्रशंसा की। गंभीर बीमारी के बावजूद मोतीलाल नेहरु क्रांतिकारियों से मिलने अदालत में गए और लौटकर कानूनी सलाह उपलब्ध करवाने के अतिरिक्त क्रांतिकारियों की रिहाई के अभियान को भी सहायता पहुंचाई। यह रिकार्ड पर है कि चंद्रशेखर आजाद को गुपचुप वित्तीय सहायता मोतीलाल नेहरु पहुंचाते रहते थे। चंद्रशेखर आजाद जवाहरलाल नेहरू से मिलने उनके आवास भी गए।
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साईमन कमीशन के बहिष्कार के समय पंजाब में कांग्रेस को ‘नौजवान भारत सभा’ से ही सर्वाधिक सहयोग मिला। जब इस बहिष्कार के दौरान पुलिस की लाठी से चोट खाने के बाद लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई तो कांग्रेस की नेता बासंती दास ने भारत के युवा वर्ग का आह्वान किया कि क्या वे चुप रहेंगे। इस चुनौती को भगत सिंह और उनके साथियों ने स्वीकार करते हुए जवाबी कार्यवाही की।
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भगत सिंह और उनके साथियों की यह सोची-समझी योजना थी कि जेल में रहते हुए जितने अधिक बलिदान और त्याग से वे अपने उद्देश्यों और संदेश का प्रसार करेंगे उतनी ही भारतीय जनता और विशेषकर युवाओं में जागृति आएगी और इसके असर से कांग्रेस के आजादी के आंदोलन में भी तेजी आएगी।
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इस सोच के साथ जेल में उनका आचरण और व्यवहार बहुत कुछ सत्याग्रहियों जैसा ही था। लोकतांत्रिक मांगों के लिए 16 युवा क्रांतिकारियों ने 63 से 93 दिनों तक जो उपवास किया, वह सत्याग्रह के उच्च आदर्शों के अनुकूल था। इस दौरान ही क्रांतिकारियों की लोकप्रियता अपनी पराकाष्ठा पर पहुंची और भारतीय जनता को जागृत करने में क्रांतिकारियों को बड़ी सफलता मिली। इस उपवास में यतींद्रनाथ दास की मृत्यु हुई तो लाखों लोग जगह-जगह पर शहीद के अंतिम सम्मान के लिए एकत्र हुए और इनका नेत्तृत्व कांग्रेस के प्रमुख नेताओं सुभाषचंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरु और गणेश शंकर विद्यार्थी ने किया।
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इस तरह क्रांतिकारियों को सर्वोच्च लोक-सम्मान सत्याग्रहियों के रूप में ही मिला। इस दौरान उन्होंने कई बार स्पष्ट किया कि उनकी विचारधारा के केंद्र में हिंसा नहीं है, अपितु जन-शक्ति और जन-संघर्ष है। भगत सिंह ने कहा था, “क्रान्ति के लिए खूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है, और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय है- अन्याय पर आधारित समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।”
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हाईकोर्ट में दिए बयान में भगत सिंह ने कहा ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ से हमारा वह उद्देश्य नहीं था, जो आम तौर पर गलत अर्थ में समझा जाता है। पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।
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1929 में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जेल से पंजाब छात्र संघ को एक पत्र भेजा था जिसमें लिखा था, ‘‘इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठाएं। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी अधिक महत्वपूर्ण काम है। नौजवानों को क्रान्ति का संदेश देश के कोने-कोने में पहुंचाना है, फैक्टरी-कारखानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है, जिससे आजादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असंभव हो जाएगा।”
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