सबा खालिद ने हाल ही में छोटा सा एक्सपोर्ट का काम शुरु किया है। वह याद करती हैं कि जब वह छोटी थीं तो उनके दादा दूरदर्शन पर शाम को आने वाले न्यूज बुलेटिन को देखना नहीं भूलते थे और उस दौरान घर में किसी भी किस्म का शोर या आवाजें होने पर पाबंदी थी।
सबा उस वक्त कोई 10 साल की थीं, जब 6 दिसंबर 1992 को समाचारों में बताया गया कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया है। इस खबर के बाद जो खामोशी और सन्नाटा छाया था, वह दादा के अनुशासन का नतीजा नहीं था, बल्कि एक किस्म के खौफ का था। उस वक्त वह एक हिंदू बहुल इलाके में एकमात्र मुस्लिम परिवार के रूप में रहती थीं। उके दादा ने सबको हिदायत दी, कि घर से कोई नहीं निकलेगा, सब घर में दुबके रहेंगे।
सबा खालिद बताती हैं, “मेरी दादी तो सदमे में चली गई थीं। आज भी ये सब बताते हुए मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। खबरें आ रही थीं कि लोग मारे जा रहे हैं, ट्रेनों को आग लगाई जा रही है। हम अपनी जिंदगी में इतने खौफजदा कभी नहीं हुए थे, लेकिन अब दहशत हावी होती जा रही थी। मैं उस वक्त के ऐहसास को बयां नहीं कर सकती।” उन्होंने आगे बताया, “शुक्र है कि हमारे आसपास रहने वाले हिंदू कट्टर नहीं थे, लेकिन उस दिन के बाद सबकुछ बदल गया। पहली बार मुझे उनमें और खुद में फर्क साफ दिखने लगा था।”
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सबा का बचपन था, सो वह इस सबके धार्मिक और राजनीतिक महत्व को नहीं समझती थीं कि 16वीं सदी में बनी एक मस्जिद को ढहाए जाने का क्या अर्थ है। वे नहीं समझती थीं कि जो हिंदू दक्षिणपंथी कहते हैं कि मस्जिद को भगवान राम की जन्मभूमि पर बनाया गया है या फिर विभाजन के बाद देश में हिंदू-मुस्लिम एकता का यह सबसे काला अध्याय था। वह इसी कशमकश में थी कि आखिर लोग एक पुरानी मस्जिद के नाम पर एक-दूसरे को मार क्यों रहे हैं? व्यस्क होने के बाद ही उन्हें ये समझ में आया कि दरअसल “एक ही धर्म को मानने वाले एक जैसी मानसिकता के लोगों का अपना वर्चस्व स्थापित करने का तरीका था।”
वे बताती हैं, “मुझे काफी बाद में ये सब समझ आया, लेकिन इसका मेरे पर गहरा असर पड़ा। यह एक पुरानी इमारत थी, इसकी रक्षा करने की जिम्मेदारी थी न कि इसे ध्वस्त करने की। इसे राजनीति के लिए या लोगों को धर्म के आधार पर बांटने के लिए इस्तेमाल का कोई तुक नहीं था। क्या यह इंसाफ है? क्या हम अपने बच्चों को यहीं सब सिखाएंगे?” सबा अब दो बच्चों की मां हैं।
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इस बात को तीस साल से अधिक वक्त गुजर चुका है। वे अब भी एक हिंदू-मुस्लिम की मिली-जुली आबादी वाले इलाके में रहती हैं। सबा बताती हैं कि कुछ दिन पहले चार लोग अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के भजन गाते हुए चंदा मांग रहे थे। मेरे घर के दरवाजे पर कुरान की आयतें लिखी हुई हैं, फिर भी उन्होंने चंदे के लिए मेरा दरवाजा खटखटाया। जब उनके पति ने कहा कि आखिर वे क्यों चंदा दें, तो वे चले गए।
सबा ने बताया कि, “वे एक गीत लगातार गा-बजा रहे थे, ‘राम को जो लाए हैं, हम उनको लाएंगे...’ पूरा गीत तो याद नहीं है, लेकिन बहुत ही भयानक किस्म का गीत था। उन्होंने लोगों को दिमागों में जहर भर दिया है, लोग एक दूसरे के इस तरह दुश्मन बन गए हैं कि उन्हें सही और गलत का फर्क ही समझ नहीं आता है...।”
सबा खालिद याद करती हैं कि उन्होंने यह गीत पहले भी सुना है। एक बार जब वह अपने दोनों बेटों (12 और 8 साल) के साथ अजमेर जा रही थीं। पैंट्री में काम करने वाला एक लड़का लगातार इसे अपने मोबाइल फोन पर बजा रहा था।
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अयोध्या में 22 जनवरी को होने वाले प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम से पहले वहां से 700 किलोमीटर दूर दिल्ली की सड़कों पर भी भगवा झंडे लहराने लगे हैं। लोगों ने अपने घरों, दुकानों, कॉलोनियों, और सार्वजनिक जगहों पर ऐसे झंडे लगा दिए हैं। इनमें दिल्ली की मशहूर खान मार्केट भी शामिल है, जो स्वतंत्रता सेनानी खान अब्दुल जब्बार खान के नाम पर है। खान अब्दुल जब्बार खान ने अपने भाई खान अब्दुल गफ्फार खान के साथ आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था और धार्मिक आधार पर भारत विभाजन का विरोध किया था। खान अब्दुल गफ्फार खान को सीमांत गांधी कहा जाता है। अब ऐसी चर्चा है कि हिंदू दक्षिणपंथी इस मार्केट का नाम श्रीराम मार्केट करने की कोशिश कर रहे हैं।
आरएसएस के कार्यकर्ता घर-घर जाकर राम मंदिर कार्यक्रम के पर्चे बांट रहे हैं, स्टिकर लगा रहे हैं, और लोगों से अपील कर रहे हैं कि वे 22 जनवरी को अपने नजदीकी मंदिरों में पूजा करें, राम भजन गाएं, प्रार्थना सभाएं करें, 108 बार राम मंत्र का उच्चारण करें, अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम को बड़ी स्क्रीन लगाकर दिखाएं, घरों में दिए जलाएं आदि आदि।
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राम मंदिर उद्घाटन को लेकर जहां एक तरफ उत्सव जैसा माहौल तैयार कर दिया गया है, उसी दौरान हमने कुछ मुस्लिमों से बात की कि आखिर इस जन उत्साह को वे कैसे देखते हैं। और देश में बीजेपी के 10 साल के शासन के दौरान हिंदू बहुसंख्यावाद का जोर और मुस्लिम विरोधी भावनाएं उमड़ रही हैं, उस पर उनकी क्या राय है।। बहुत से लोगों का जवाब है कि इस सबने देश को बदल दिया है। हमने जितने लोगों से बात की, उनमें से काफी लोगों ने कहा कि उन्होंने तय किया है कि खामोश रहेंगे, घरों के अंदर ही रहेंगे, इस दौरान यात्रा करने से बचना है क्योंकि क्या पता कहां कब कौन सी अनहोनी हो जाए।
वैसे तो इन लोगों ने बीते करीब 10 साल से भय और अपमान भरे माहौल में जीना सीख लिया है, लेकिन दोस्तों, मीडिया और यहां तक कि आम लोगों के रवैये और रुख में जो बदलाव आया है वह ज्यादा डरावना है। किसी भी आलोचना के प्रति सरकार की असहिष्णुता ने अपने गम-गुस्से को जाहिर करना और मुश्किल बना दिया है, जिससे निराशा लगातार बढ़ती जा रही है।
सबा खालिद कहती हैं, “अगर किसी को तकलीफ पहुंचाकर जश्न मनाया जा रहा है तो साफ है कि समाज में बहुत कुछ टूट चुका है। हम उम्मीदें छोड़ चुके हैं, और अपने ही देश में ठगा हुआ सा महसूस कर रहे हैं। हमारे साथ तो दूसरे दर्जे के नागरिक से भी बदतर व्यवहार किया जा रहा है।” सबा कहती हैं, “पत्रकारिता अपनी मर्यादा कब की छोड़ चुकी है। न्यायपालिका भी इससे अछूती नहीं रही है। गलत-सही का फर्क खत्म हो गया है। हम किसका दरवाजा खटखटाएं? एक नाइंसाफी हुई थी, लेकिन इंसाफ के लिए किसके पास जाएं? इससे भी बदतर यह है कि हमारी बात सुनी तक नहीं जा रही है। हमारी बोलने की आजादी खत्म हो चुकी है। कहां बचा है लोकतंत्र?”
सुप्रीम कोर्ट द्वारा मंदिर के निर्माण को मंजूरी देने के चार साल बाद, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित एक समारोह में इसकी आधारशिला रखने के तीन साल बाद, आम चुनाव से कुछ महीने पहले 22 जनवरी को एक भव्य समारोह में मंदिर का उद्घाटन किया जा रहा है। भले ही इसका निर्माण सिर्फ 2026 तक ही पूरा हो पाएगा।
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प्रधानमंत्री, जो अयोध्या से 200 किलोमीटर दक्षिण में वाराणसी से सांसद हैं, वहां भी हिंदू दक्षिणपंथी एक और मस्जिद को हटाने की कोशिश में लगे हैं। प्रधानमंत्री ने 11 दिन के उपवास का ऐलान किया है, और मीडिया इसे भी बड़े पैमाने पर प्रचारित कर रहा है।
राम मंदिर के निर्माण के लिए विवादित भूमि सौंपते समय, सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों ने कहा था कि हजारों कार सेवकों या हिंदू स्वयंसेवकों द्वारा मस्जिद को ढहाने से विवादित स्थल पर यथास्थिति के 1991 के आदेश का उल्लंघन हुआ था, यह एक सोचा-समझा काम था और इससे "कानून के शासन का घोर उल्लंघन" हुआ था। कोर्ट यह भी कहा था कि न तो बीजेपी और यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की राज्य सरकार, न ही कांग्रेस पार्टी और प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की केंद्र सरकार ने कार सेवकों को रोका।
सितंबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के एक साल बाद और विध्वंस के 28 साल बाद, केंद्रीय जांच ब्यूरो की एक विशेष अदालत ने बाबरी विध्वंस मामले में बीजेपी के चार वरिष्ठ नेताओं को भी बरी कर दिया। इनमें तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी भी हैं, जिन्होंने 1990 में गुजरात से यूपी तक रथ यात्रा पर निकाली थी और जिन्होंने कथित तौर पर 1992 में मस्जिद विध्वंस के लिए भीड़ को उकसाया था। अब वे 96 साल के हैं और अपनी ही पार्टी द्वारा हाशिए पर धकेले जा चुके हैं।
अगस्त 2022 में, सुप्रीम कोर्ट ने यथास्थिति के सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन होने के मामले में 1992 में यूपी के मुख्यमंत्री रहे बीजेपी नेता कल्याण सिंह के खिलाफ मोहम्मद आलम भूरे द्वारा दायर अवमानना याचिका को भी बंद कर दिया।
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चार प्रमुख हिंदू मठों के प्रमुखों (शंकराचार्यों) इस बात पर आपत्ति जताई है कि मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा को राजनीतिक शो बनाकर हिंदू धर्म ग्रंथों और प्रथाओं का उल्लंघन किया जा रहा है। लेकिन इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा है।
मंदिर के उद्घाटन से कुछ हफ्ते पहले, मोदी ने अयोध्या में एक नए अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का उद्घाटन किया । इंडिगो एयरलाइन के चालक दल ने मोदी के गृह राज्य गुजरात के अहमदाबाद से अयोध्या के लिए अपनी पहली उड़ान में हिंदू देवताओं की पोशाक पहनी रखी थी। दिल्ली से अयोध्या जा रहे विमान के पायलट ने "जय श्री राम" कहकर उड़ान भरी और यात्रियों ने भी मंत्रोच्चार किया।
आयशा रहमान, एक वकील हैं। वे नौ साल की थी, जब मस्जिद ढहाई गई और दंगों की खबर उन तक पहुंची। तब वह अपनी बहन और मां के साथ, अयोध्या से 250 किमी दक्षिण में 1.5 लाख लोगों के शहर ग़ाज़ीपुर में रहती थी। वे एक छोटी सी चारदीवारी के साथ ग्राउंड फ्लोर पर रहते थे। उनके पिता सउदी अरब में काम करते थे, इसलिए वे अपना घर छोड़कर पहली मंजिल पर रहने वाले अपने चाचा के घर चली गई थीं।
वे बताती हैं, “मुझे याद है कि मेरी मां बहुत डरी हुई थी, खुद को सहज दिखाने की कोशिश कर रही थी। महिलाएं बेइज्जती के बारे में बात कर रही थीं, यह शब्द उन्होंने बलात्कार के लिए इस्तेमाल किया था। तब मुझे नहीं पता था कि इसका क्या मतलब है, लेकिन मैं इतना समझ गई थी कि यह कुछ ऐसा था जो केवल महिलाओं के साथ होता था।”
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आयशा कहती हैं, ''मुझे सबकुछ याद है, कि लोग एक कट्टर (कट्टरपंथी) नेता के बारे में बात कर रहे थे।" उन्होंने आगे कहा, वह आडवाणी थे।
खालिद की तरह, आयशा को यह समझने में काफी समय लगा कि 6 दिसंबर 1992 को क्या हुआ था। अब, जब मंदिर निर्माण हो रहा है, वह भी सरकारी तौर पर और जिस तरह का जश्न मनाया जा रहा है, इससे वे अंदर ही अंदर काफी परेशान भी हैं। आयशा का परिवार जानने वाले अन्य मुस्लिम परिवार डरे हुए हैं। भले ही वह एक वकील हैं, जिसने यूपी की अदालतों में मानवाधिकारों के कई मामले लड़े हैं, लेकिन वह कुछ भी नहीं कह सकती या कर सकती हैं, जिससे उनकी हताशा बढ़ गई है।
आयशा कहती हैं, “मेरे घर पर, लोग कहते हैं कि बाहर या सार्वजनिक जगहों पर मत जाना। किसी की आंखों में आंख डालकर कुछ मत बोलना। यदि वे जय श्री राम कहते हैं, तो मुड़कर नमस्ते बोल देना। यह बहुत दर्दनाक और बर्दाश्त से परे है, लेकिन हमें यह स्वीकार करना होगा कि हम दोयम दर्जे के नागरिक हैं।“
वे कहती हैं, "हम केवल आपसे या परिवार के सदस्यों और समुदाय के कुछ करीबी दोस्तों पर ही अपना गुस्सा जाहिर कर सकते हैं। अगर आप सार्वजनिक रूप से बोलेंगे, तो आप जेल जाने या पीटे जाने का खतरा मोल लेते हैं।"
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हमने परवीन तल्हा से पूछा कि अगस्त 2020 में जिस दिन मोदी ने मंदिर की आधारशिला रखी थी, उस दिन दूरदर्शन के लाइव कवरेज के बारे में उन्हें कैसा लगा था, तो पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित पूर्व आईएएस कहती हैं यह वैसा ही था जैसा कि दूरदर्शन ने कांग्रेस शासन में 1986 में बाबरी मस्जिद के ताले खोलने के दौरान किया था।
1969 में भारतीय सिविल सेवा में शामिल होने वाली पहली मुस्लिम महिला ताल्हा, जो संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य के रूप में रिटायर हुईं, उन्होंने उस दिन के दूरदर्शन की खबरों को याद करते हुए उन शब्दों को दोहराया जो तब कहे गए थे, “आज मंदिर के दरवाजे खोल दिए गए हैं और लोग बहुत उल्लास के साथ पूजा कर रहे हैं।”
जिस दिन अक्टूबर 1990 में बिहार में लालू प्रसाद यादव की सरकार द्वारा आडवाणी को गिरफ्तार किए जाने के बाद भी जब कारसेवक अयोध्या पहुंच गए थे, उस दिन जब ताल्हा शाम को घर पहुंची तो उन्हें किसी पड़ोसी द्वारा भेजे गए चार लड्डू मिले। लेकिन उन्हें कभी पता नहीं चला कि लड्डू आखिर किस पड़ोसी ने भेजे थे।
दिसंबर 1992 में जिस दिन बाबरी मस्जिद गिराई गई, ताल्हा किसी लंच में गई थीं, जिसे एक मुस्लिम नवाब ने दिया था। लंच के दौरान ही वहां मौजूद दो पूर्व हिंदू महाराजाओँ ने खुशी से ऐलान किया था, ‘तोड़ दी गई, पूरी तरह गिरा दी गई, सपाट कर दिया गया...।’ ताल्हा कहती हैं “मुझे उस वक्त तो बहुत ज्यादा कुछ नहीं लगा, क्योंकि मैं धार्मिक तौर पर बहुत ज्यादा जागरुक नहीं हूं। लेकिन इसके बाद जो कुछ हुआ, खासतौर से मुंबई में जो कुछ हुआ, उसने मुझे हिला दिया था, साफ हो गया था कि अब आगे की राह आसान नहीं होगी।“ वह कहती हैं, “तब जश्न तो था, लेकिन इतना खुलापन नहीं था, अब लोग खुलकर कहते हैं लखनऊ के करीब है अयोध्या, जाओ देखकर आओ...बहुत शानदार मंदिर बना है, लेकिन इससे ज्यादा संविधान विरोधी कुछ हो सकता है क्या, और इससे भी ज्यादा क्रूर कुछ नहीं हो सकता।“
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उनका कहना है कि वह उस उम्र को पार कर चुकी हैं, जब धार्मिक पहचान के आधार पर उनके साथ कुछ होता, लेकिन बीते एक दशक में जो कुछ बदलाव हुआ है, वह भयानक है। वे कहती हैं कि, " आज मुझे अपने बचपन के सबसे अच्छे दोस्त के सामने भी दो बार सोचने के बाद बोलना पड़ता है। हर कोई बदल गया है। मेरे दोस्त, मेरे बैचमेट... व्हाट्सएप ग्रुप देखिए कि उसमें क्या चल रहा है। कुछ भी कभी भी पहले जैसा नहीं है।”
सबा खालिद का भी अपने एक करीबी दोस्त से झगड़ा हो गया, क्योंकि उन्होंने सरकार के बारे में कुछ आलोचनात्मक लिख दिया था, उन्हें इस बुरी तरह अश्लील तरीके से ट्रोल किया गया कि उन्होंने सोशल मीडिया ही छोड़ दिया। वे कहती हैं कि “मैंने कुछ भी पोस्ट करना छोड़ दिया है क्योंकि मैं अपने मानसिक स्वास्थ्य का बरबाद नहीं करना चाहती।”
सबा ने अपने दोनों बेटों को बाबरी मस्जिद के बारे में इसलिए नहीं बताया क्योंकि वे छोटे हैं और वह चाहती हैं कि उनके दिल में कोई डर या गुस्सा न रहे। लेकिन फिर भी, बाहरी दुनिया से कैसे दूर रह सकते हैं। उन्होंने बताया कि बेटों को स्कूल में अब लगभग हर समारोह धार्मिक है, आमतौर पर राधा, कृष्ण और राम जैसे हिंदू देवताओं का उत्सव मनाया जाता है। वे कहती हैं कि, “हर समय, यह धर्म, धर्म, धर्म। यह मानसिक बीमारी है। और भी चीज़ें हैं, स्कॉटिश नृत्य, पर्यावरण, पानी बचाने का अभियान है...लेकिन उस पर किसी का ध्यान नहीं है।"
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